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बचपन के दिनों को याद करते ही हर व्यक्ति रोमांचित हो उठता है। शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति मिलेगा जो बचपन के दिनों को याद न करना चाहता हो या फिर बचपन की कारस्तानियों को याद कर खुश न होता हो। बचपन की यादों में खोते ही तरह-तरह के गंवई खेल, नानी-दादी से सुनी कहानियां और स्वच्छंदता के साथ मस्ती भरे दिन आंखों के आगे नाचने लगते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है और हर व्यक्ति पुरानी यादों में खो जाता है। ठीक इसी तरह अगर बचपन के खेल-कूद किसी के सामने चल रहे होते हैं तो हर आदमी अपने बालपन को याद करते हुए उन क्षणों का लुत्फ उठाना जरूर चाहता है। इसके उदाहरण आज भी चाहे वह इलाका शहरी हो या ग्रामीण, देखने को मिल जाते हैं। लोकप्रियता या मीडिया कवरेज के लिहाज से आधुनिक खेलों की चकाचौंध और उनमें लिप्त अकूत पैसों के आगे भले ही कबड्डी, कुश्ती, मल्लखंभ, तलवारबाजी या लाठी भांजने जैसे पारंपरिक खेल हाशिए पर चले गए हों, लेकिन सच्चाई यही है कि पारंपरिक खेल आज भी जिंदा हैं। उन खेलों के प्रति लोगों का आकर्षण आज भी जिंदा है और उन खेलों का आयोजन आज भी पूरे उत्साह और उमंग के साथ किया जाता है।
रुझान कम नहीं हुआ
सुर्खियों में न रहने के कारण आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि पारंपरिक खेल विलुप्त होते जा रहे हैं। लेकिन महानगरों के बीचांे-बीच या फिर ग्रामीण इलाकों में इन खेलों के लगातार हो रहे आयोजन कहीं से यह सिद्ध नहीं करता है कि ये खेल किसी भी आधुनिक खेलों की तुलना में कमतर हैं या फिर कम लोकप्रिय हैं। क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी और बैडमिंटन जैसे खेलों की पेशेवर लीगों के बीच कबड्डी व कुश्ती की पेशेवर लीग के धमाकेदार आयोजन इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं कि देश के पारंपरिक खेलों के प्रति खेल-प्रेमियों का रुझान कम नहीं हुआ है। सच्चाई तो यह है कि कबड्डी व कुश्ती लीग की शुरुआत से अन्य पारंपरिक खेलों को भी बढ़ावा मिलेगा।
मिट्टी की कुश्ती महत्वपूर्ण
भारतीय पहलवानों को अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार गद्दे पर कुश्ती लड़नी होती है। इसके बावजूद देश में मिट्टी की कुश्ती के आयोजन खूब हो रहे हैं। गद्दे के जमाने में मिट्टी की कुश्ती का क्या औचित्य है? इस सवाल पर भारतीय शैली कुश्ती संघ के महासचिव और पूर्व अंतरराष्ट्रीय रैफरी रोशनलाल का कहना है, 'मिट्टी की कुश्ती के बिना कोई पहलवान पूर्ण हो ही नहीं सकता। ओलंपिक खेलों में दो पदक जीत चुके सुशील कुमार, लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता योगेश्वर दत्त सहित महाबली सतपाल, करतार सिंह और राजीव तोमर जैसे पहलवानों ने दुनिया भर में अपनी डंका बजाई तो उसके पीछे मिट्टी का अखाड़ा ही उनके लिए नर्सरी के तौर पर काम आया। मिट्टी के अखाड़े पर पहलवानों का न केवल दमखम बढ़ता है, बल्कि विपक्षी पहलवान पर पकड़ मजबूत करने की कला भी इन्हीं अखाड़ों पर सीखी जाती है। स्टैंडिंग (खड़ी) कुश्ती में मिट्टी के अखाड़े से काफी मदद मिलती है, जिसमें पहलवान विपक्षी को थका कर उस पर हमला बोलने की रणनीति बना सकता है।' द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता महाबली सतपाल का भी मानना है कि मिट्टी के अखाड़े के बिना कोई भी पहलवान खुद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर ही नहीं सकता।
शायद यही वजह है कि राजधानी दिल्ली के करीब नोएडा, बवाना, करनाल और सोनीपत में पिछले करीबन सौ वर्ष से लगातार मिट्टी की कुश्ती का आयोजन किया जाता रहा है। इन देसी दंगलों को देखने के लिए दूर-दराज के गांवों से बच्चे और नौजवान सहित बुजुगोंर् की कई टोलियां बैलगाड़ी और ट्रैक्टर में भर-भरकर आती हैं। हजारों कुश्ती-प्रेमियों का ऐसा उत्साह दर्शाता है कि मिट्टी की कुश्ती आज भी गांववासियों के दिलों में धड़कती है, बसती है। ढोल-नगाड़ों की थापों के बीच देश के नामी-गिरामी पहलवान मुकाबला जीतने के बाद गांववासियों से आशीर्वाद लेते हैं और लोग उनकी झोली दस रुपए से लेकर हजार के नोटों से भर देते हैं। इसके अलावा पेशेवर कुश्ती लीग की शुरुआत से पहलवानों को लाखों रुपए की इनामी व अनुबंध राशि मिल रही है। देश में आज सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त, बजरंग या अमित पहलवान परिचय के मोहताज नहीं हैं और न ही उनके पास पैसों की कोई कमी है।
कबड्डी भी नहीं है कम
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अलावा हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, दक्षिण भारत के कई राज्यों और महाराष्ट्र में कुश्ती की ही तरह कबड्डी भी काफी लोकप्रिय खेल है। मिट्टी पर कबड्डी की परंपरा को जारी रखने में ग्रामीण इलाकों का महत्वपूर्ण योगदान है। शारीरिक तन्दरुश्ती को बनाए रखने के लिए गांव-देहात में आज भी कबड्डी मनोरंजन का एक प्रमुख साधन है। पंजाब और हरियाणा में तो कबड्डी पर लाखों रुपए की पुरस्कार राशि दांव पर लगी होती है जहां देश के कोने-कोने से खिलाड़ी भाग लेने तो आते ही हैं, विदेश से भी कई टीमें या खिलाड़ी नियमित रूप से इसमें भाग लेते हैं।
भारत अंतरराष्ट्रीय कबड्डी में सबसे आगे है। हालांकि एशियाई स्तर पर पाकिस्तान और ईरान से भारत को कड़ी टक्कर मिलती है, लेकिन एशियाई खेलों में भारत ही पहले पायदान पर रहता है। इसी तरह ब्रिटेन, अमरीका, कनाडा व कई अन्य देशों में कबड्डी का चलन तेजी से बढ़ रहा है और सबसे मजेदार बात यह है कि इन देशों में भी भारतीय मूल के खिलाडि़यों का ही सबसे ज्यादा दबदबा रहता है। उन विदेशी टीमों के लिए खेलने वाले खिलाडि़यों के लिए मिट्टी की कबड्डी के प्रति आकर्षण ही उन्हें अक्सर भारतीय माटी पर खींच लाता है। ऐसी स्थिति में जाहिर है, खेल-प्रेमियों का आकर्षण भी कबड्डी के प्रति कम नहीं हो रहा है।
लाखों के वारे-न्यारे
यही नहीं, पिछले दिनों देश के अलग-अलग महानगरों में प्री कबड्डी लीग के सफलतापूर्वक आयोजन से भी इस बात की पुष्टि होती है कि यह खेल आज भी देशवासियों के दिल में धड़कता है। कबड्डी की फ्रेंचाइजी टीम खरीदने के लिए बड़े-बड़े औद्योगिक घराने और बॉलीवुड सितारों ने रुचि दिखाई। स्टेडियम में मौजूद भारी भीड़ के अलावा लाखों लोगों ने टी.वी. पर इसका सीधा प्रसारण देखा। कबड्डी लीग की बढ़ती लोकप्रियता का ही नतीजा है कि देश के सैकड़ों खिलाड़ी आज लाखों की कमाई करने में सफल रहते हैं। अब अपने भविष्य को संवारने या नौकरी पाने के लिए कबड्डी के खिलाड़ी को किसी अन्य खेल की ओर कदम बढ़ाने की जरूरत नहीं है।
मल्लखंभ का दम
भारतीय इतिहास पर नजर डालें तो पुराकाल से मल्लखंभ का उल्लेख मनोरंजन और शारीरिक बलिष्ठता के श्रेष्ठ साधन के रूप में किया जाता रहा है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण, भीम और पवनपुत्र हनुमान मल्लखंभ के महारथी थे। मल्लखंभ की महान परंपरा आज भी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जारी है। मल्लखंभ के खिलाड़ी जमीन के अंदर गड़े खंभों पर और हवा में रस्सियों के सहारे योग के कम से कम 15-16 आसनों का हैरतअंगेज प्रदर्शन करते हैं। एक अकेले खेल मल्लखंभ के जरिए कुश्ती, योग और जिम्नास्टिक के बेहतरीन खिलाडि़यों को तलाशा और तराशा जा सकता है। कबड्डी की ही तरह भारतीय मल्लखंभ खिलाडि़यों का विदेशों में भी जलवा है। आज अमरीका, जर्मनी, आस्ट्रेलिया और कनाडा में मल्लखंभ के कई प्रशिक्षण केंद्र हैं, जहां पर भारत में इस खेल की बारीकियां सीखकर गए खिलाडि़यों की सबसे ज्यादा अहमियत है। – प्रवीण सिन्हा
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