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इन दिनों कमलेश तिवारी का नाम खूब चर्चा में है। चर्चा की वजह उनके द्वारा सोशल मीडिया पर की गई टिप्पणी रही, जिसमें उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद के खिलाफ कुछ लिखा था। समाचारों की मानें तो कमलेश तिवारी द्वारा पैगम्बर मोहम्मद पर की गयी टिप्पणी उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री आजम खान की एक ओछी बयानबाजी पर प्रतिक्रिया के रूप में थी। आजम खान द्वारा की गई अपमानजनक बयानबाजी पर उनकी पार्टी ने उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की, लेकिन कमलेश पर न केवल रासुका के तहत कार्रवाई की गई बल्कि अनेक संगीन धाराओं के तहत उन्हें जेल में डाल दिया गया। इस मामले के तूल पकड़ने के बाद जानकारी निकलकर सामने आई कि कमलेश तिवारी हिन्दू महासभा से जुड़े हैं। जबकि हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वामी चक्रपाणि ने इस दावे को खारिज करते हुए एक अखबार से बातचीत में कहा,‘कमलेश तिवारी का हिन्दू महासभा से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें वर्ष 2008 में महासभा ने विवादित कारणों के चलते निकाल दिया था।’ स्वामी चक्रपाणि ने कहा कि भारत सभी का देश है और किसी को भी किसी मत के लिए बेअदबी की अनुमति नहीं है। हालांकि कमलेश की गिरफ्तारी और उनके द्वारा लिखी गयी टिप्पणी के इतर भी इस मामले के तमाम पहलू हैं, जो इस देश में पनप रही जिहादी मानसिकता की झलक दिखाते हैं। मामले को तीन हिस्सों में बांटकर देखें तो पहला हिस्सा आजम खान द्वारा आपत्तिजनक बयान का है, जिस पर अभी तक न तो उनकी पार्टी ने ही संज्ञान लिया है और न ही शासन-प्रशासन ने। यानी स्पष्ट होता है कि आजम खान को कुछ भी बोलने की खुली छूट समाजवादी पार्टी एवं अखिलेश सरकार की तरफ से मिली हुई है।
दूसरे हिस्से में कमलेश तिवारी का नाम आता है, जो अपनी एक टिप्पणी के बाद गिरफ्तार हुए हैं और एक वर्ग की आलोचना के शिकार हो रहे हैं। कमलेश की गिरफ्तारी का न तो हिन्दू समाज ने विरोध किया है और न ही उनके बयान का समर्थन किया है। लेकिन इस पूरे मामले में देश के मुल्ला-मौलवियों और उलेमाओं का रुख समाजिक सद्भाव के लिहाज से बेहद नकारात्मक और कट्टरवादी नजर आया है। कमलेश तिवारी की टिप्पणी के बहाने लखनऊ, श्रीनगर, टोंक, मुजफ्फरनगर, बरेली, रामपुर, नैनीताल, फर्रुखाबाद और भोपाल सहित देश के कई हिस्सों में भारी संख्या में कट्टरवादी मुसलमान न सिर्फ सड़कों पर उतरे, बल्कि नफरत फैलाने वाली बयानबाजी भी की गई। कमलेश के विरोध में मुसलमान सड़कों पर उन तख्तियों के साथ उतरे जिन पर लिखा था, ‘इस गुस्ताखी की एक ही सजा, सर तन से जुदा।’ इसके अलावा बड़ी संख्या में मुसलमानों को सम्बोधित करते हुए जमीयत शबाबुल इस्लाम के पश्चिमी उत्तर प्रदेश महासचिव एवं जामा मस्जिद के इमाम ने घोषणा की, ‘कमलेश का सिर लाने वाले को 51 लाख का ईनाम दिया जाएगा।’ भोपाल में भी हजारों की उन्मादी भीड़ के बीच एक मस्जिद के सामने भाषण देते हुए एक मौलवी यह कहते हुए सुने गये कि कमलेश को सरेआम मौत देना इस्लाम के खिलाफ गुस्ताखी के अनुकूल है। उस विरोध रैली में जुटी भीड़ से हिंसक और भड़काऊ बयान के बाद ‘अल्लाहू अकबर’ के नारे साफ तौर पर सुने जा सकते थे।
अब सवाल उठता है कि आखिर बयानों पर कार्रवाई को लेकर दोहरा मापदंड क्यों? कमलेश तिवारी अगर गलत हंै तो आजम खान सही कैसे साबित होते हैं? आज जब कमलेश को राज्य और संविधान के तहत कानून के कटघरे में खड़ा किया जा चुका है और देश का एक वर्ग उनकी टिप्पणी की भर्त्सना कर रहा है, ऐसे में ‘सिर काटने के एवज में 51 लाख का ईनाम’ रखने वाले मौलवियों पर लगाम लगाने और उन्हें सलाखों के भीतर पहुंचाने की जिम्मेदारी किसकी है?
न्याय और कानून का यह दोहरा मापदंड उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार पर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है। इस मुद्दे पर हमने समाजवादी पार्टी के एक बड़े नेता से बात की तो उन्होंने कहा, ‘हमसे इस पर न बुलवाइये।’ तथाकथित सेकुलर मानसिकता से ग्रसित इस कार्य-प्रणाली के बाद सोशल मीडिया पर भी जमकर बहस हुई है। सोशल मीडिया पर एक तरफ जहां कमलेश तिवारी की भर्त्सना हो रही है, वहीं दूसरी ओर इस मामले में मुल्ला-मौलवियों एवं उनके अनुयायियों द्वारा नफरत फैलाए जाने वाले भाषणों एवं उ.प्र.सरकार के दोहरे रवैये पर जमकर गुस्सा भी जाहिर किया गया है।
अमरीका में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत रत्नेश तिवारी अपनी फेसबुक वॉल पर लिखते हैं कि, ‘कमलेश तिवारी का सिर काटने पर 51 लाख का ईनाम!’ ये सब खुलेआम बोलने वाले बेफिक्र घूम रहे हैं… इन सब पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
कमलेश तिवारी प्रकरण के बहाने सोशल मीडिया पर सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता पर भी चर्चा हुई। तमाम लोग यहां प्रश्न उठाते नजर आये कि ‘जब मकबूल फिदा हुसैन हिन्दुओं के देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक चित्र बना रहे थे, तब तो उन पर कार्रवाई नहीं की गयी! जब तथाकथित वामपंथी साहित्यकार हिन्दू-देवताओं के लिए आपत्तिजनक एवं अपमानजनक अपशब्द लिख रहे थे, तब क्यों कोई नहीं बोला? फिर कुछ खास टिप्पणियों से ही भावनाएं क्यों भड़कती हैं? सेकुलरिज्म और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार कमलेश तिवारी के मामले पर क्यों चुप्पी ओढ़े हैं?’ शिवानन्द द्विवेदी
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