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आखिर कब तक?

by
Dec 14, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 14 Dec 2015 13:09:32

 

हितेश शंकर
आका के लिए खून बहाना' उस जमाने में 'देशभक्ति' का पर्याय जरूर होता होगा, जब 'देश' माने ही कोई राजपरिवार होता था। राजपरिवार वंशानुगत हो यह भी अनिवार्य नहीं था। खूब तख्तापलट भी होते थे। कई राजवंशों की नींव इस आधार पर पड़ी थी कि उन्होंने रियासत 'खरीद' ली थी। किसी-किसी को 'सेवा से खुश होकर ईनाम' में भी मिली थी।
 हम पढ़ते हैं कि पुरानी, जंग लगी,
सड़ी-गली तलवारों की आन-बान-शान के नाम पर चलने वाली सियासत पौने दो सौ साल पहले खत्म हो गई। लेकिन रुकिए, क्या सचमुच ऐसा है?
नेशनल हेराल्ड घोटाले पर सवा सौ साल बूढ़ी  पार्टी के तमाम 'माननीयों' ने देश की सबसे बड़ी पंचायत में अपने आका  के लिए पसीना बहाकर दिखाने और 'खून बहाने' का वादा करने का जो काम कर दिखाया है, उसे देखने के बाद एक सवाल पैदा होता है-क्या समय की सूई फिर से दो सदी पीछे जा टिकी है? क्या आज भी उनके लिए देश माने दो लोग ही हैं?
यह सवाल जिनसे है, उनसे एक दो सवाल और भी हैं। आपकी 'स्वामिभक्ति' को सलाम। लेकिन, क्या आपके आका भी धोखे से तख्तापलट कर आका नहीं  बने हैं? याद कीजिए कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी के साथ कोलकाता अधिवेशन में किया गया व्यवहार। या एक चिट्ठी भर के आधार पर दिलाई गई शपथ। और अगर फिर भी, ये ही आपके आका हैं तो यह देश, यह तिरंगा, यह संविधान, यह जनता, यह संसद, न्यायपालिका, कानून वगैरह क्या हैं? क्या इनमें से कोई भी आपके आकाओं  के बराबर रखे जाने लायक नहीं है?
खैर, फिर सवाल पर लौटें, हे मुट्ठीभर माननीयो, आप जो भी कुछ कर रहे हैं, करने के लिए बाध्य हैं, क्या उसके लिए आपकी आत्मा आपको नहीं कचोटती? क्या इस दिन के लिए आपके मतदाताओं ने आपको वोट दिया था कि आप दिल्ली जाकर देशहित की बात करने की बजाय आलाकमान की मर्जी संभालना? क्या इसलिए आपको वोट दिया था कि आप उचित-अनुचित, भला-बुरा, सही-गलत, नैतिक-अनैतिक सब की अनदेखी करते हुए सिर्फ अपने आलाकमान की सेवा करते रहना चाहे उनकी आंख का इशारा हुआ हो या न हुआ हो? क्या आप भूल गए कि देश को संविधान देने वाली संविधान सभा में जिस पार्टी का एकतरफा बहुमत था आप उसी पार्टी के चिराग हैं? क्या आपने कभी कल्पना की है कि यदि संविधान सभा में नाममात्र के गैर कांग्रेसी सदस्यों ने आज की कांग्रेस जैसा व्यवहार किया होता तो क्या हम कभी स्वयं को संविधान दे भी पाते?
आपका अंतर्द्वंद्व समझा जा सकता है। जिन्हें संविधान देना था, उन्हें टिकट थोड़े ही लेना था। लेकिन दिल पर हाथ रखकर खुद बताएं- आपको टिकट के बूते सीट मिली है या आप के बूते टिकट को सीट मिली है! सोचिए।
 सही कहा जाए तो लोकसभा चुनाव में मतदाताओं का भरोसा बचाए रखने में कांग्रेस के जो बचे-खुचे प्रतिनिधि अपनी जमीन बचाए रखने में सफल रहे वे सब अपनी निजी क्षमता के बूते जीते। वंश के उत्तराधिकारियों की छत्रछाया या 'किरपा' अब छीजते-छीजते छलावा भर रह गई है। कुनबे की स्थिति तो यह है कि जहं-जहं इनके चरण पड़े, बंटाधार ही हुआ। आप नहीं जानते क्या? खंडित मूर्तियों की भी पूजा होती है क्या? फिर आप क्या कर रहे हैं?
कैसा भय? कैसा आलाकमान? किस बात पर आत्मा को मारने की मजबूरी? हो सकता है आपने इस तरह सोचा ही न हो। यह बात समझी जा सकती है। निष्ठा निश्चित रूप से होती है, होनी भी चाहिए। लेकिन, निष्ठा या समर्पण भी मर्यादा त्यागकर तो नहीं होता। 'कुनबे के लिए खून बहाना' एक बात है, लेकिन आका से भी यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर किसका खून बहाया जाए, और क्यों? संसद ठप करना एक बात है, लेकिन, यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर संसद क्यों ठप की जाए? गलत बात पर सवाल उठाने से आपको किसने रोका है?
आपको एहसास होना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं। जिन्हें किसी का भय नहीं है आप उनके भय का गीत रच रहे हैं। इस चीख-पुकार को और क्या कहा जाए? भय का गीत? आका के लिए? 2015 में? लोकतंत्र पर धब्बा बनना या कहलाना न आप चाहेंगे, न आपके समर्थक…और न ही आपकी आने वाली पीढि़यां। आपने कई घरों की दीवारों पर, अजायबघरों में सजी ढाल-तलवारें देखी होंगी। उनमें से हरेक को अपने इतिहास और खानदान की दुहाई देने का हक है। मजेदार बात यह है कि अब यह तलवारें उठने लगी हैं। लोकतंत्र के खिलाफ, उसकी मर्यादा के खिलाफ। उन्हें न लक्ष्य का बोध है न शत्रु का। सिर्फ खड़खड़ाना उनका अस्तित्व बोध है।
इन बिलावजह खड़खड़ाती नुमाइशी यादों को वापस खूंटी पर टांगना उन्हीं की जिम्मेदारी है, जिन्होंने उन्हें बड़े गर्व से सजाकर रखा हुआ था। यह जिम्मेदारी आज लोकतंत्र ने उन्हें सौंपी है।      ल्ल

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