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तो नीतीश कुमार बिहार में अपने गठबंधन के साथियों के साथ अपार बहुमत से सत्तासीन हो गए हैं! 243 स्थानों में 178 का बहुमत सामान्य नहीं होता। चुनाव विश्लेषण से साफ है कि अगर जदयू, कांग्रेस एवं राजद एक साथ नहीं आए होते तो स्थिति इसके उलट हो सकती थी। भाजपा को अकेले 24. 4 प्रतिशत मत मिलना यह साबित करता है कि बिहार में उसका जनाधार ठीक-ठाक है और प्रतिस्पर्धी की इतने सशक्त जातीय सांप्रदायिक गोलबंदी के बावजूद इतनी संख्या में लोगों ने वोट दिया तो यह सामान्य बात नहीं है। नतीजों से यह भी स्पष्ट है कि भाजपा के चारों साथी दल अपने सामाजिक जनाधार का मत पाने में एकदम विफल रहे। भाजपा का वोट तो उनको मिल गया लेकिन वे भाजपा को वोट नहीं दिलवा सके। भाजपा को अकेले 93 लाख 8 हजार 15 मत मिले और उसके बाद सबसे ज्यादा राजद को 69 लाख 95 हजार 509। कहा जा सकता है कि भाजपा ने ज्यादा स्थानों पर चुनाव लड़ा, इसलिए मत ज्यादा आए। यह एक सीमा तक ही सच है, क्योंकि पराजित होती पार्टी को मिलने वाले मत एवं विजयी पार्टी या पार्टियों के मत में सामान्य तौर पर अंतर होना चाहिए। बहरहाल, विचार करने की बात यह है कि इस अंकगणित में नीतीश कुमार के लिए अगर शक्तिसंपन्नता की तस्वीर है तो दूसरी ओर चुनौतियां ज्यादा हैं।
उनके पास भारी बहुमत है। तीनों को मिलाकर 41. 9 प्रतिशत मत का आधार है, तीनों दलों में अभी उनको नेता मानने पर एकता है, विधानसभा के बाहर मजबूत सामाजिक-सांप्रदायिक समीकरण का समर्थन है। ऐसी स्थिति में पहली दृष्टि का निष्कर्ष यही है कि नीतीश के लिए सरकार का संचालन एकदम आसान होगा। इसमें नीतीश कुमार ने चुनाव के पूर्व जो वायदे किए, जो घोषणाएं कीं उनको लागू करने के लिए उनके पास निर्बाध तंत्र है। भाजपा की ओर से विधान परिषद दल के नेता सुशील कुमार मोदी एवं प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडे ने यह घोषणा कर दी है कि वे सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएंगे और विकास के कार्य में सरकार को पूरा सहयोग देंगे।
राष्टÑीय स्तर पर और अनेक राज्यों में जो भाजपा विरोधी, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विरोधी राजनीतिक खेमा है उसका नीतीश को अंध-समर्थन है। देश के बौद्धिकों का एक वर्ग, जिसमें मीडिया का एक वर्ग भी है, वह यह मानकर उत्साहित है कि चलो, नीतीश ने नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर आघात किया है। भाजपा के सामने यही वर्ग तो संगठित होकर दुष्प्रचार करके परेशानियां खड़ी करता रहता है। नीतीश के सामने ऐसी स्थितियां पैदा नहीं होंगी। कहने का तात्पर्य यह कि राजनीतिक दलों और नेताओं के एक बड़े समूह का समर्थन उनको मिलेगा। क्योंकि मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग हमेशा भाजपा विरोध के नाम पर नीतीश का समर्थन करेगा। इसके पूर्व उन्होंने स्थानीय मीडिया को विज्ञापन और व्यक्तिगत प्रबंधन की मार से अपने साथ रखा ही हुआ था तो छवि बिगड़ने की भी समस्या नहीं है। सबसे बड़ी बात है कि केन्द्र में ऐसी सरकार है जिसने पूर्वी भारत में विकास पर ज्यादा जोर देकर देश में आर्थिक विकास के संतुलन की नीति अपनाई है। प्रधानमंत्री मोदी बार-बार कह चुके हैं कि कृषि में अगली हरित क्रांति पूरब से होगी जिसमें बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पूर्वोत्तर के राज्य प्रमुख होंंगे। केन्द्र के पास इसकी पूरी योजना है और इसका लाभ बिहार को पूरी तरह मिल सकता है। स्वयं मोदी ने एक लाख 25 हजार करोड़ रु. का जो पैकेज घोषित किया उसके बारे में भी साफ कर दिया गया है कि पराजय के बावजूद बिहार को वह पूरी तरह प्राप्त होगा। उस पैकेज में भौतिक एवं मानवीय संसाधनों की आधारभूत संरचना की योजनाएं हैं जिनको केवल नीतीश को अमल में लाने के लिए कदम भर उठाना होगा या राज्य सरकार को कुछ के लिए केवल जगह, सुरक्षा आदि उपलब्ध करानी होगी। उनके लिए अच्छा संयोग यह भी है कि उन्होंने 2 लाख 70 हजार करोड़ रु. के पैकेज में विकास की जो सात सूत्री योजना दी उसमें से ज्यादातर केन्द्र के पैकेज और राष्टÑीय विकास नीति में शामिल हैं। तो यह सब मिलकर उनकी ऐसी ताकत है जो इसके पूर्व उनको प्राप्त नहीं थी।
सरकार गठन के साथ ही बिहार में अपहरण का खौफ फिर लौटता दिख रहा है। जिस जंगलराज-भाग दो का भय बिहार में विद्यमान है उसे लेकर अब उनकी कड़ी परीक्षा का समय है। उनकी क्षमता की परख होनी है कि वे अपने लिए इस सुभीते माहौल में बिहार को अपराध से मुक्ति और सुशासन दे सकते हैं या नहीं। लेकिन इसके परे देखिए।
किसी गठबंधन सरकार का प्रदर्शन गठबंधन की एकता, आपसी विश्वास, एक दूसरे से व्यवहार में संयम तथा मंत्रियों की योग्यता और क्षमता पर निर्भर करता है। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली पूर्व सरकारों में 2005 से 2013 में गठबंधन टूटने तक, उनके वित्त मंत्री थे सुशील कुमार मोदी। सड़क निर्माण से लेकर विकास के कई महत्वपूर्ण मकहमे भाजपा नेताओं के पास थे। वे सब नीतीश कुमार के नेतृत्व में ईमानदारी व समर्पण से काम करते थे। जब तक सरकार में साथ रहे किसी बिंदु पर खटपट नहीं हुई। यहां तक कि भाजपा के विचारों के विपरीत कई कदम मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश ने उठाए लेकिन कभी मंत्रियों, नेताओं ने उसके खिलाफ सार्वजनिक बयान नहीं दिया। जून 2010 में जब नरेन्द्र मोदी के साथ हाथ मिलाते दिखाने वाले एक पोस्टर पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नीतीश कुमार ने भाजपा की राष्टÑीय कार्यकारिणी के लिए एकत्रित नेताओं को भोजन के लिए दिया हुआ निमंत्रण वापस ले लिया तब भी गिरिराज सिंह जैसे एकाध मंत्री को छोड़कर किसी ने विरोध में बयान नहीं दिया था। यह सामान्य संयम की स्थिति नहीं थी। उसके बाद से नीतीश कुमार लगातार बिना नाम लिए नरेन्द्र मोदी के प्रति घृणा व वितृष्णा प्रकट करते रहे, मीडिया में सरेआम बोलते रहे, लेकिन भाजपा के नेताओं ने मौन साधकर गठबंधन को बनाए रखा। नीतीश ने बिहार को विशेष राज्य के दर्जे का अभियान छेड़ा तो उससे भाजपा को बिल्कुल अलग कर दिया। अप्रैल 2013 में नीतीश कुमार ने राजधानी दिल्ली में अपनी पार्टी की कार्यकरिणी एवं राष्टÑीय परिषद में केन्द्र सरकार की जगह मोदी एवं भाजपा पर हमला किया तो केन्द्रीय नेताआ ने प्रतिक्रिया अवश्य व्यक्त की, क्योंकि सारी सीमाएं पार हो चुकी थीं। ऐसे समय पार्टी द्वारा प्रतिक्रिया न देने का अर्थ होता सारे आरोपों को स्वीकार करना, लेकिन इससे बिहार में गठबंधन पर कोई असर नहीं पड़ा। यहां तक कि राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में विशेष राज्य के दर्जे की मांग करती जो रैली हुई उसमें भाजपा को शामिल नहीं किया गया। भाजपा चुप रही, केवल गठबंधन चलाने के लिए। प्रश्न है कि क्या यही स्थिति वर्तमान गठबंधन में कायम रहेगी?
प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि तीनों के बीच कई मायनों में वैचारिक एकता है। खासकर भाजपा और मोदी विरोध के नाम पर इनकी एकता कायम रह सकती है। वैसे भी इस गठबंधन का तानाबाना सोनिया गांधी ने रचा है। सोनिया ने ही नीतीश कुमार को दिल्ली बुलवाया, उनकी मुलाकात हुई। लालू प्रसाद कांग्रेस के साथ जाने-न जाने को लेकर निश्चित नहीं थे, लेकिन इस गठबंधन के बाद उनके पास मजबूरी हो गई। सजायाफ्ता और 2005 से बिहार की राजनीति में मतदाताओं द्वारा नकार दिए गए गए लालू के पास अपनी राजनीतिक हैसियत और पार्टी को बचाने का एक ही रास्ता था कि इस गठबंधन में शामिल हो जाएं। वे हो गए। इसमें सोनिया गांधी के दो निहित उद्देश्य थे- मरती हुई कांग्रेस को नीतीश के मकरध्वज से थोड़ा जिन्दा होते दिखाना तथा राष्टÑीय स्तर पर कांग्रेस के नेतृत्व में भाजपा विरोधी या मोदी विरोधी गठजोड़ की शुरुआत। एक राजनीतिक उद्देश्य में तो सोनिया को सफलता मिल गई। उनकी कल्पना से परे कांग्रेस को 27 सीटें मिल गईं। अब वे दूसरे उद्देश्य पर काम करेंगी। केन्द्र में कांग्रेस ने सरकार को काम न करने देने के लिए एकदम अलोकतांत्रिक अड़ियल रवैया अपनाया हुआ है। उसके आचरण में कोई तार्किकता नहीं, बस हर हाल में संसद को ठप करना है, गतिरोध पैदा करना है। इस रवैये में नीतीश की जदयू का उनको साथ मिलेगा।
यहीं से नीतीश की कमजोरियां, उनके लिए खतरे और उनकी चुनौतियां बढ़ जाती हैं। अगर वे केन्द्र सरकार की हर अवसर पर गला दबाने की कोशिश करेंगे कांग्रेस की राजनीति को पूरा करने के लिए, तो फिर बिहार में उनको भाजपा का सहयोग कैसे मिलेगा? यहां नीतीश कुमार को तय करना है कि उनको कांग्रेस के राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करना है या फिर बिहार की जनता से किए गए वायदे पूरे करने हैं। उनको यदि प्रदेश में भाजपा एवं केन्द्र में मोदी सरकार का सहयोग चाहिए तो फिर सतत गतिरोध पैदा करने तथा सरकार को काम न करने देने का अड़ियल रवैया बदलना पड़ेगा। भाजपा की संख्या भी विधानसभा में 53 है। अगर लोकसभा के 544 में कांग्रेस के 44 सांसद लोकसभा का ‘अपहरण’ कर सकते हैं तो 243 में 53 विधायक ऐसा क्यों नहीं कर सकते? तो टकराव का यह खतरा कांग्रेस के साथ और उसकी रणनीति से बना हुआ है। ऐसा होने के बाद नीतीश की जितनी शक्तियां और अनुकूल आधारों की हमने चर्चा की, सब व्यर्थ हो जाएंगे। क्या नीतीश बिहार के भले के लिए केन्द्र और भाजपा से सहयोग की नीति अपनाने को तैयार रहेंगे?
अब आइए, इनके दूसरे और गठबंधन के सबसे बड़े साथी राजद की ओर। लालू के साथ आने का चुनाव में नीतीश को लाभ यह हुआ कि वे तो अपने भाषण को उग्र जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से दूर रख रहे थे, लालू ने वह कमी पूरी कर दी। पहले यादवों को खुलेआम नाम लेकर गोलबंद किया तो बाद में अगड़ों-पिछड़ों, फिर मुसलमानों के अस्तित्व की लड़ाई बनाने की रणनीति अपना ली। प्रश्न है कि एक बार जातीय गोलबंदी करने के बाद लालू सर्वजाति समूहों की राजनीति के लिए तैयार होंगे? 101 में से 48 टिकट उन्होंने यादव प्रत्याशियों को दिए थे। अपनी इस नीति पर वे मुखर हैं। क्या नीतीश कुमार सत्ता में आने के बाद भी एक जाति को प्रश्रय और दूसरे को हेय बनाए रखने की नीति अपना सकते हैं? केवल यादव जाति के 64 विधायक चुनकर आए हैं। नीतीश इसे कैसे संभालेंगे? वे गठबंधन को कैसे बनाए रखेंगे? इनके दबाव से कैसे उबर पाएंगे? ये ऐसे प्रश्न हैं जो एक साथ उनकी कमजोरियों और उनके सामने खतरों, दोनों को रेखांकित करते हैं।
यहां यह भी देखना है कि जितने सुसंगत तरीके से भाजपा एवं जदयू का गठजोड़ 17 वर्ष से ज्यादा समय चला, जितने मेल-मिलाप से सरकार में इनका गठजोड़ रहा वैसा ही वर्तमान गठजोड़ रह पाएगा क्या? उपमुख्यमंत्री के रूप में सुशील मोदी उनके पूरक सहयोगी के तौर पर काम कर रहे थे। यह स्थिति लालू के स्वभाव के विपरीत है। इस बार चुनाव में बराबर उम्मीदवार उतारने के बावजूद जदयू राजद से पिछड़ गयी है। उसके पास 71 विधायक हैं जबकि राजद के पास 80। नीतीश की सरकार पूरी तरह लालू की कृपा पर निर्भर रहेगी। लालू को1990 में निचले तबके से साथ मिला था, लेकिन वह बाद में नकारात्मक ज्यादा बन गया। समानता और मेल-मिलाप की जगह जातीय संघर्ष का माहौल ज्यादा बना। प्रतिक्रिया में जातीय सेनाएं भी बनने लगीं। यह भय फिर से पैदा हो रहा है। वस्तुत: लालू अपने बाद के काल में अविकास, कुविकास, अशासन, कुशासन और भ्रष्टाचार के प्रतीक हो चुके हैं। न्यायालय भी उनके भ्रष्ट होेने पर मुहर लगा चुका है। जब तक ऊपर का न्यायालय उन्हें मुक्त नहीं कर देता, वे भ्रष्ट ही कहलाएंगे। इस प्रकार का साझेदार आखिर सरकार को क्या मार्गदर्शन दे सकता है? उनके पुत्र तेजस्वी ने कहा है कि लालू यादव सरकार के अभिभावक की तरह रहेंगे। तो ऐसा अभिभावक कौन सी दिशा दे सकता है? उनके अभिभावकत्व का अर्थ क्या होगा, यह भी नीतीश को समझना होगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि नीतीश के लिए इस समय सबसे बड़ा खतरा तो लालू और कांग्रेस दोनों का गठबंधन ही दिख रहा है। कांग्रेस को यदि अपने को फिर से खड़ा करने की छटपटाहट भटका रही है और वह राष्टीय राजनीति में भाजपा और मोदी का अंध-विरोध करने को इसका एकमेव रास्ता मान चुकी है तो लालू इस जनादेश का अर्थ यह निकाल रहे हैं कि उनको केन्द्र की मोदी सरकार को कमजोर करने का मत मिल गया है। उन्होंने साफ कहा है कि नीतीश कुमार यहां सरकार चलाएंगे और हम केन्द्र से मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए देश भर की यात्रा करेंगे। हालांकि बिहार के बाहर लालू की कहीं कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है। किंतु अभी न वे किसी सदन में हैं, न न्यायालाय की कृपा से वहां जाने की स्थिति में हैं। पर वे चुपचाप बैठे नहीं रह नहीं सकते। साफ है कि वे भाजपा के ही खिलाफ कुछ करने की कोशिश करेंगे और जितना वे ऐसा करेंगे उतना बिहार सरकार एवं भाजपा में टकराव होगा। आखिर वे सरकार के सबसे बड़े घटक हैं। अगर टकराव होगा तो फिर उसमें नीतीश शांति से सरकार कैसे चला पाएंगे? इस प्रकार लालू यदि जातीय गोलबंदी करके चुनाव में विजय के कारक बने हैं, इस समय सबसे ज्यादा सीटें लेकर सरकार को बहुमत का आधार दे रहे हैं तो उनके किए घोटाले तथा वर्तमान के वक्तव्य नीतीश कुमार के लिए एक बड़ी कमजोरी के रूप में उपस्थित हैं। शायद उनको सबसे बड़ा खतरा भी इस समय लालू ही नजर आ रहे हैं। वैसे भी इनका गठबंधन कोई दिलों का मिलन तो है नहीं! वर्षों एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे नेता केवल मोदी और भाजपा के भय से ही एकत्रित हुए हैं। भाजपा से अलग होने के बाद नीतीश कुमार ने लालू की पार्टी को तोड़कर ही बहुमत पुख्ता करने की कोशिश की थी, जिसके खिलाफ लालू सड़कों पर उतरे थे। लालू नीतीश की सफलता के लिए अपनी राजनीतिक शैली का परित्याग कर देंगे या उनको जिसमें अपना राजनीतिक भविष्य लगता है उसे तिलांजलि दे देंगे, ऐसा मानने का कम से कम अभी कोई कारण नहीं है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि कांग्रेस की राष्टीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं तथा लालू के राजनीतिक लक्ष्यों की कलाबाजियों के साये में नीतीश कुमार के फंस जाने की संभावना इस समय सबसे ज्यादा दिख रही है। उनके लिए इससे बड़ी चुनौती, इससे बड़ा खतरा और उनकी इससे बड़ी दुर्बलता और क्या हो सकती है? तो नीतीश कुमार के लिए सारी समस्या की जड़ उनके गठबंधन के दो साथियों के इर्द-गिर्द ही है। हम कामना करेंगे कि ऐसा न हो। बिहार के हित में यही होगा। लेकिन जो कुछ सामने दिख रहा है और जैसी संभावनाएं हैं उनको हम कैसे नकार सकते हैं! अवधेश कुमार (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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