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साहित्यकार का कार्य साहित्य सृजन होता है, सियासत करना नही। लेकिन हाल के 'सम्मान वापसी' प्रकरण के बाद अब यह सवाल उठने लगा है कि कम संख्या में ही सही, लेकिन एक खास विचारधारा का बाना ओढ़े कुछ कथित साहित्यकार सियासत कर रहे हैं। यानी साहित्य को साहित्यकारों द्वारा ही सियासत के दलदल में धकेला जा चुका है। हालांकि इन साहित्यकारों का सियासी चेहरा बेनकाब होते देर न लगी और समाज के हर बौद्धिक क्षेत्र से 'सम्मान वापसी' का विरोध शुरू हो गया। सबसे पहले 23 अक्तूबर को साहित्य अकादमी के अहाते में सैकड़ों की संख्या में साहित्यकार, कलाकार, संस्कृतिकर्मी, पत्रकार और छात्र जुटे तथा उन्होंने 'सम्मान वापसी' के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करवाया। उस विरोध प्रदर्शन में प्रख्यात साहित्यकार नरेंद्र कोहली, कमल किशोर गोयनका, बलदेव वंशी सहित साहित्य जगत की तमाम हस्तियां मौजूद थीं तो वहीं कला के क्षेत्र से मालिनी अवस्थी आदि ने प्रदर्शन में उपस्थित होकर अपना विरोध दर्ज कराया। मामला इतने तक नही रुका। गत 29 अक्तूबर को दिल्ली के हिंदी भवन स्थित सभागार में प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'सम्मान वापसी: प्रतिरोध या पाखंड' विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमे बतौर वक्ता नरेंद्र कोहली, कमल किशोर गोयनका, बलदेव वंशी, राहुल देव, अच्युतानन्द मिश्र, दयाप्रकाश सिन्हा, मालिनी अवस्थी सहित तमाम लोगों ने अपनी बात रखी। वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने मध्यमार्गी रुख अपनाया। उन्होंने कहा, 'मैं ये मानता हूं कि कोई भी राष्ट्रीय पुरस्कार कोई राजनीतिक दल नहीं देता बल्कि एक चयन प्रक्रिया के बाद देश अथवा संस्थान के द्वारा दिया जाता है। ऐसे में यह पुरस्कार लौटाना उचित नहीं है। लेकिन आज जो कुछ भी हो रहा है उसको सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है। सहिष्णुता के सवाल की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। मगर आज विरोध की बजाय संवाद की जरूरत है। अब हमको पूरी सावधानी के साथ षड्यंत्रों और असहमतियों को समझना होगा।' हालांकि राहुल देव के इस वक्तव्य पर दर्शकों में से कई लोगों ने यह सवाल उठाया कि क्या वह वाम धड़ों से 'संवाद' कायम करने की दिशा में कुछ प्रयास करेंगे? राहुल देव का जवाब देते हुए वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने कहा, 'जिनसे संवाद की बात राहुल जी कर रहे हैं, उनसे गांधी भी संवाद नही कर पाए। और भी कई लोगों की कोशिश नाकाम रही। पुरस्कार लौटाने की तात्कालिक उत्तेजना क्या थी, यह समझ से परे है! ये जिस चिंतनधारा से निकले हुए लोग हैं उनका अपना इतिहास रहा है कि वे महात्मा गांधी को भी 'अंग्रेजों का एजेंट' कहा करते थे। पुरस्कार लौटाने की तात्कालिक उत्तेजना के रूप में केवल और केवल 2014 के लोकसभा चुनाव में आया परिणाम दिखाई देता है।'
वक्तव्य के क्रम में प्रख्यात लोकगायिका मालिनी अवस्थी ने कहा कि साहित्यकारों का आदर इसलिए होता है क्योंकि वे समाज में समरसता घोलते हैं, लेकिन आज वही भय का वातावरण बना रहे हैं। ऐसे में क्यों न हम इसको एक साजिश के तौर पर देखें? ख्यातिलब्ध साहित्यकार कमलकिशोर गोयनका ने इन साहित्यकारों की वैचारिक प्रतिबद्धता पर करार प्रहार करते हुए कहा, 'मैं 40 वर्ष से उस विचारधारा वर्ग से संवाद कायम करने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन वे संवाद के लिए तैयार नहीं हैं। वे स्वयं को ही श्रेष्ठ विचार वाले बताते हैं। उदय प्रकाश छह महीने पहले वक्तव्य देते हैं कि 'अकादमी सम्मान उनके चेहरे पर लगे दाग के समान है', तो ऐसे लोगों से हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं? कुछ लोगों को अपने एनजीओ में घट रहे विदेशी चंदों की फिक्र सता रही है। ऐसे में यह केंद्र सरकार को बदनाम करने की साजिश के अलावा कुछ भी नहीं है।' संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात साहित्यकार नरेंद्र कोहली ने इसे एक राजनीतिक साजिश करार देते हुए कहा कि कांग्रेस की 'इंटलेक्चुअल लॉबी' में वामपंथी ही रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि साठ वर्ष से एक ही विचार पक्ष को पुरस्कृत किया जाता रहा है। जो लोग असहिष्णुता की बात कर रहे हैं वे एक विशेष किस्म की असहिष्णुता की बात कर रहे हंै। ये कश्मीरी हिन्दुओं पर नहीं बोलते हैं बल्कि इनका सारा बल एक विशेष प्रकार की असहिष्णुता पर है। वे अन्य प्रकार की असहिष्णुता पर बात नहीं करते लेकिन आज ऐसा क्या बदला कि उन्हें पुरस्कार लौटाने पड़ रहे हैं? देश में उठा ये नियोजित विरोध माहौल बदलने की वजह से नहीं, केंद्र की सरकार बदलने की वजह से है।
सोशल मीडिया पर 'किताब वापसी अभियान'
'सम्मान वापसी' के विरोध का सिलसिला समाज के विविध मंचों से होते हुए सोशल मीडिया पर भी खूब चला है। सोशल मीडिया पर 'किताब वापसी अभियान' नाम से बना एक फेसबुक पेज बनने के शुरुआती कुछ घंटों में ही तेजी से चल पड़ा है। इस पेज की शुरुआत में ही 5 हजार से ज्यादा लोग जुड़ गये। इस पेज पर उन लेखकों के किताब वापस करने की अपील पाठकों से की गयी थी जिन्होंने 'सम्मान वापसी' की है। अपील के बाद देश के अलग-अलग हिस्सों से किताब वापसी के पत्र अभियान को मिलने शुरू हो गये। पहला पत्र रायपुर से पत्रकार पंकज झा ने भेजा जिसमें उन्होंने उदय प्रकाश की किताब वापस करने की बात की। फिर गुजरात से संजय बेंगानी ने पत्र लिखकर इस अभियान को अपना समर्थन दिया। पंजाब से लेखक सुरेन्द्र सिंह चीमा ने भुल्लर की किताब 'अग्नि कलश' लौटाने का हस्तलिखित पत्र किताब वापसी अभियान को लिखा। इसके अलावा दिल्ली से अनुराग सिंह बेबाकी ने मुन्नवर राणा की किताब 'मुजाहिरनामा' वापस करने का पत्र किताब वापसी अभियान को भेजा। साथ ही, बहुत सारे लोगों ने यह लिखकर भेजा कि उन्होंने पुरस्कार लौटाने वाले लोगों की कोई किताब नहीं खरीदी है, इसलिए वे लौटा तो नहीं सकते, लेकिन इस अभियान को अपना समर्थन पत्र के माध्यम से दे रहे हैं। खंडवा से एक छात्र आदर्श ने पत्र में लिखा कि उसने प्रेमचंद से लेकर महादेवी वर्मा तक की किताबें पढ़ी हैं, लेकिन सम्मान लौटाने वाले किसी भी साहित्यकार की कोई किताब नहीं पढ़ी। इसके अलावा आशुतोष मित्रा, कल्पेश पटेल सहित तमाम आम पाठकों ने किताब वापसी का समर्थन कर अभियान को हस्तलिखित पत्र लिखा है। सोशल मीडिया पर #ङ्र३ंुहंस्र२्रअुँ्र८ंल्ल का 'हैश टैग' चला है।
किताब वापसी अभियान की शुरुआत से जुड़े रहने वालों में आशीष कुमार अंशु, शिवानन्द द्विवेदी सहर, संजीव सिन्हा, सुरेश चिपलूणकर, पश्यंती शुक्ल, अनिल पाण्डेय आदि नाम हैं। हालांकि अभियान की तरफ से कहा गया है कि यह किसी एक का नहीं बल्कि हर एक व्यक्ति का अभियान है। यह पाठकों का अभियान है। यह साहित्यकारों के नहीं बल्कि 'सम्मान वापसी' के खिलाफ है। किताब वापसी अभियान के पेज पर कहा गया है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार अब तक 1,110 लोगों को दिया गया है, जिसमें से 536 लोग आज जीवित हैं। इनमें 26 साहित्यकारों ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाये हैं। बाल साहित्य की श्रेणी में 144 लेखकों को पुरस्कृत किया गया, जिनमें से 128 लेखक जीवित हैं। इसमें से सिर्फ एक लेखक ने अपना पुरस्कार लौटाया है।
अनुवाद वर्ग में 500 लेखकों को सम्मानित किया गया है। सभी अनुवादक जीवित हैं। तीन लेखकों ने पुरस्कार लौटाया है। युवा पुरस्कार 111 लेखकों दिया गया है। उनमें सिर्फ एक लेखक ने पुरस्कार लौटाने की सूचना ई-मेल के माध्यम से अकादमी को दी है, पुरस्कार लौटाया नहीं है। यदि दो दर्जन लेखकों को लगता है कि देश में सहिष्णुता कम हुई है तो दो सौ चालीस लेखक ऐसे भी हैं, जिन्हें लगता है कि साल 2014 से पहले के मुकाबले देश में प्रेम और स्नेह बढ़ा है। यदि दस वैज्ञानिकों को लगता है कि सम्मान लौटाना चाहिए तो सौ ऐसे वैज्ञानिक भी हैं जिन्हें लगता है कि इस पुरस्कार को अपनी जिन्दगी से भी अधिक कीमती मानना चाहिए। -पाञ्चजन्य ब्यूरो
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