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इस बार मॉरीशस में हूं दिवाली के कुछ दिन पहले! दशहरा और दिवाली जैसे पावन पर्वों पर यहां भी वैसा ही उल्लास है, जैसा भारत में रहता है। बाजार सजे हुए हैं। लोग उत्साहपूर्वक नई-नई वस्तुओं की खरीददारी कर रहे हैं। बाजार इस लघु भारत की सम्पन्नता और यहां के निवासियों के जीवनस्तर की उच्चता का पता दे रहे हैं। यों तो पूरे विश्व में भारतीयों का जाना और जाकर बसना 19 वीं सदी के आरम्भ में शुरू होता है, जिसके मूल में आर्थिक कारण ही हैं। प्राय: कारोबार और अच्छी नौकरी से जुड़कर बेहतर जीवन की तलाश उनको प्रवासी बनाती रही है। वर्तमान में उदारीकरण और सूचना क्रांति ने इस प्रक्रिया को और भी तीव्र किया है। किंतु मॉरीशस की कहानी दूसरी है!
मॉरीशस की राजधानी पोर्टलुई का प्रवासी घाट इस कहानी का मूक कथा वाचक है। हिंद महासागर के तट पर स्थित सोलह सीढ़ियों वाले इस ऐतिहासिक घाट पर 2 नवम्बर, सन् 1834 को ‘एमवी एटलस’ नाम का पहला जहाज भारतीय मजदूरों के पहले जत्थे को लेकर आया था। अकल्पनीय कष्ट, परिवार और अपने देश से बिछुड़ने की वेदना सहते हुए ये मजदूर ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘इस टापू की मिट्टी में सोना है’ ऐसा सपना दिखाकर ‘एग्रीमेंट’ पर लाए गए थे! तब यह निर्जन-सा टापू एक पथरीला और प्राकृतिक आपदाओं वाली भूमि था। जिस पर गुजर-बसर बड़ी कठिनाइयों से हो पाती थी। इसके बाद 1910 तक ‘एग्रीमेंट’ पर लगभग चार लाख लोग लाए गए,जो आगे चलकर ‘गिरिमिटिया मजदूर कहलाए। ये लोग अधिकांशत: उत्तर भारत, विशेष रूप से बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के गांवों से थे। दूर देश में उनकी वेदनाभरी जीवन नैया को खेने में हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति ही एकमात्र अवलम्ब थे। इस ‘मारीच’ देश में रामचरितमानस की चौपाइयां गूंजने लगी थीं, अगौर यानी ईख की सूखी पत्तियों से बने झोंपड़ीनुमा घरों में तुलसी चौरे, हनुमान, राम-सीता, मां काली जैसी देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित होती गर्इं और जीवन चल पड़ा इसी आस्था के सहारे। उन लोगों को इस सोने का सपना अंग्रेजों ने दिखाया था,वह तो किसी पत्थर के नीचे दबा नहीं मिला हां, उन्होंने जिस पत्थर को छुआ उसे ठोस सोने में अवश्य बदल दिया, अपने श्रम से, अपने पसीने से!
हम अपने कविमित्र डॉ. हेमराज सुंदर के घर पर हैं। वे प्रवासी भारतीयों की पांचवीं पीढ़ी हैं। आंगन में बने तुलसी चौरे पर जलाभिषेक कर वे बताते हैं कि आपको हमारे यहां हर हिंदू त्योहार मिलेगा। हम अपनी संस्कृति को आपसे अधिक सहेजे हुए हैं! हमारे देश में यों तो सभी धर्मों के लोग रहते हैं, किंतु हिंदुओं की संख्या अधिक है। सब लोग मिलजुल कर रहते हैं। एक दूसरे के धर्मों का सम्मान करते हैं। सभी पर्व-त्योहार मिलजुल कर मनाते हैं। अब दीपावली आने को है। पूरे देश में उत्साह आप देखेंगे। वैसी ही जगमग रोशनी होगी, वैसी ही आतिशबाजी, वैसा ही पूजा-विधान, सभी मंदिर सजाए जा रहे हैं, नए-नए भारतीय परिधानों में सजी संवरी गृह लक्ष्मियां उछाह के साथ बच्चों और परिजनों के साथ दिवाली पूजन करेंगी। कुछ रुककर सुंदर जी ‘पाञ्चजन्य के कुछ अंक दिखाते हैं। जिनको सितम्बर में वे अपनी हाल की भारत-यात्रा के बाद अपने साथ लेकर आये थे। कहते हैं। पाञ्चजन्य सचमुच भारत की बात करता है! यह हिंदू संस्कृति का शंखनाद है! मैं अक्सर इसे इंटरनेट पर पढ़ लेता हूं। उनका 14-15 वर्ष का दौहित्र आया हुआ है। उससे जब मैंने पूछा कि दिवाली क्यों मनाते हैं? तो उसने बताया कि ये दीपों का त्योहार है। बुराई को मिटाकर भलाई की जीत होती है। मां ने बताया था कि श्रीरामचंद्र जी चौदह साल बाद प्रवास पूरा करके अपने राज्य अयोध्या लौट रहे थे, दिवाली इसी की श्रद्घांजलि है! श्री रामचन्द्र जी ने विजय होकर अयोध्या लौट रहे थे क्योकि उन्होंने प्रवास के समय ही रावण को हराया था। फिर वह रुक कर कुछ साचते हुए कुछ कहते है। मां ने एक कथा यह भी बताई है कि इसी दिन लक्ष्मी मां क्षीर सागर से प्रकट हुई थीं। वेमानव जाति के लिए धन सम्पति और यश साथ लार्इं थीं इसलिए इस दिन लक्ष्मी को सम्मानित करने के लिए उनकी पूजा हुई। हर साल दिवाली के रूप में हम उनकी पूजा करते है।
भारतीय मूल के ही मित्र और शिष्य अरविंद बसेसर के घर जाता हूं। वे भोजपुरी के अध्येता हैं। उनके भाई प्रफुल्ल मन से मिलते हैं और श्री गणेश एवं मां लक्ष्मी जी की मिट्टी की प्रतिमाएं दिखाते हुए कहते हैं ‘इनको हम कल ही बाजार से खरीदकर लाए हैं। दुकानदार इनको भारत से मंगवाते हैं। हमारे लिए भारत की मिट्टी पूजनीय है। ये मूर्तियां बनारस की बनी हैं। बनारस की मिट्टी तो हमारे लिए और भी पवित्र है! घर-आंगन में दिवाली पर्व की तैयारियां दिखाई दे रही हैं। समूचा मॉरीशस समृद्घि के इस पर्व की अगवानी के लिए तत्पर है। और भला क्यों न हो? इन्हीं लोगों ने तो इस देश को समृद्घ बनाया है! आज कितने ही प्रवासी भारतीय हैं जिनका सामाजिक सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक आदि क्षेत्रों में किया हुआ योगदान भुलाया नहीं जा सकता।
अनाम गिरिमिटिया मजदूरों से लेकर, महात्मा गांधी, मणिलाल डॉक्टर, आर्यसमाज के संस्थापक ड़ॉ भारद्वाज जैसे कई नाम हैं। इसके साथ सर्वप्रथम सर शिवसागर राम गुलाम जैसे कालजयी राजनेता, जो समूचे मॉरीशस के हृदय में सम्मानपूर्वक विराजमान हैं और जिनको जनता ‘चाचा’ कहती है’ वे यहां की मुद्रा पर उसी तरह अंकित हैं, जिस तरह भारतीय मुद्रा पर महात्मा गांधी जी। 1968 में स्वतंत्र हुए सागर के इस सुंदर मोती जैसे देश को सर शिवसागर राम गुलाम जैसे प्रतिभाशाली और लोकप्रिय प्रवासी भारतीय प्रधानमंत्री मिले। बाद में चलकर उनके सुपुत्र डॉ. नवीन रामगुलाम हुए। वर्तमान में सर अनिरुद्घ जगन्नाथ जी प्रधानमंत्री हैं, जो भारी बहुमत से सत्ता में लौटे हैं। मॉरीशस को नयी आर्थिक ऊंचाइयां देने में जिन प्रवासी भारतीयों का उल्लेखनीय योगदान है उनमें कुछ नाम हैं गजाधर परिवार, करमजी जीवन जी, वासुदेव विष्णुदयाल, सर सतकाम बुलेल, कसाम युतीम और रावत परिवार आदि-आदि। ये नाम आज अंतरराष्टÑीय स्तर पर पहचाने जाते हैं। इस वर्ष 11-12 मार्च में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की मॉरीशस यात्रा में कई मुद्दों पर सहमति बनी है और महत्वपूर्ण करार हुए हैं। इनसे दोनों देशों के आर्थिक सम्बंधों को और भी मजबूती मिलेगी।
लौटते हुए हम मॉरीशस के सुप्रसिद्घ गंगा तालाब में एक नन्हा-सा दीप प्रवाहित करते हैं, शिवजी की विशाल प्रतिमा के सम्मुख नतमस्तक होते हैं और सभी की सुख-समृद्घि की कामना करते हुए इस दिवाली पर शुभ कामनाएं देते हैं।
प्रो. हरि मोहन
(लेखक क.मुं हिंदी विद्यापीठ आगरा के पूर्व निदेशक तथा जे़ एस़ विश्वविद्यालय, शिकोहाबाद (उ़ प्ऱ) के कुलपति हैं।)
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