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कैलाश सत्यार्थी भारत में जन्मे ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिनको 'शांति का नोबल पुरस्कार' मिला है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मानवाधिकार कार्यकर्त्ता की स्थापित छवि से इतर वे दुनिया के कई देशों में भारतीय अध्यात्म और दर्शन पर व्याख्यान भी दे चुके हैं। दिन की शुरुआत हवन से करने वाले सत्यार्थी शायद दुनिया के पहले नोबल पुरस्कार विजेता होंगे जिन्होंने अपना पुरस्कार राष्ट्र को समर्पित कर राष्ट्रपति को सौंप दिया है। वेदपाठी पृष्ठभूमि से वैश्विक ख्याति वाले एनजीओ कार्यकर्ता तक, उनके जीवन और अनुभव के अनेक पक्ष पाञ्चजन्य के साथ एक लंबी बातचीत में उभर कर सामने आए। प्रस्तुत हैं कैलाश सत्यार्थी से विभिन्न मुद्दों पर हुई इस बातचीत के प्रमुख अंश।
नोबल पुरस्कार ग्रहण करते समय आप ने अपने भाषण की शुरुआत वेद मंत्रों से की थी। इसके पीछे क्या प्रेरणा थी?
शांति के नोबल पुरस्कार की घोषणा के बाद जब मुझे पता चला कि भारत की मिट्टी में जन्मे किसी भी पहले व्यक्ति को अब तक यह पुरस्कार नहीं मिल पाया है तो मैं बहुत गर्वान्वित हुआ। अपने देश और महापुरुषों के प्रति नतमस्तक भी। तब मैं सोच रहा था कि यह पहला मौका होगा जब भारत के एक छोटे से शहर में जन्मे एक साधारण सामाजिक कार्यकर्त्ता को इस बड़े मंच से दुनिया को संबोधित करने का मौका मिलेगा। दुनिया में जिन चीजों को टीवी पर सबसे ज्यादा देखा जाता है, उनमें से एक है फीफा वर्ल्ड कप और दूसरा है शांति के नोबल पुरस्कार विजेता का भाषण। करोड़ों लोग इस अवसर का इंतजार करते हैं। मैंने सोचा कि दुनिया के लोगों को शांति और सहिष्णुता का संदेश देने वाली भारतीय संस्कृति और उसके दर्शन से परिचित करवाने का यह उपयुक्त मंच हो सकता है। जब मैं अपने भाषण की तैयारी कर रहा था तो कई लोगों ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्कृत और हिंदी का कोई महत्व नहीं है। इसे कोई समझेगा भी नहीं। मैंने कहा कि महत्त्व तो मेरे बोलने से होगा। मैंने अपना भाषण वेद मंत्र और हिंदी से शुरू किया। बाद में मैंने उसे अंग्रेजी में लोगों को समझाया। मैंने
संगच्छध्वम् संवदध्वम् संवो मनांसि जानताम्
देवा भागम् यथापूर्वे संजानानाम् उपासते!!
का पाठ करते हुए लोगों को बताया कि इस एक मंत्र में ऐसी प्रार्थना, कामना और संकल्प निहित है जो पूरे विश्व को मनुष्य निर्मित त्रासदियों से मुक्ति दिलाने का सामर्थ्य रखती है। इस मंत्र और इसकी व्याख्या को सुनते ही लोगों ने भाषण की शुरुआत में ही खड़े होकर जोरदार तालियों से मेरा स्वागत किया। मैंने इस मंत्र के माध्यम से पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि संसार की आज की समस्याओं का समाधान हमारे ऋषि मुनियों ने हजारों साल पहले खोज लिया था। मैंने नोबल के मंच से सारी दुनिया को उस भारतीयता के बारे में बताने की कोशिश कि जिसमें मानव ही नहीं जगत कल्याण अंतर्निहित है। यह कोई पहला मौका नहीं था, जब मैं किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच से वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहा था। मैंने पहले भी कई बार वेद मंत्रों का पाठ करते हुए वर्तमान सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उसकी व्याख्या भी की है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि मैंने विदेशों में भारतीय संस्कृति और अध्यात्म पर अनेक व्याख्यान भी दिए हैं। केवल इस पर व्याख्यान ही नहीं दिया है, बल्कि मैं इसे जीता भी हूं। मेरे घर में नित्य यज्ञ होता है। पत्नी सुमेधा जी ने भी गुरुकुल में ही पढ़ाई की हुई है।
विदिशा से नोबल पुरस्कार मंच तक की यात्रा में आप ने अलग-अलग सीढि़यां चढ़ीं, इस सीढ़ी में संस्कृत भाषा को आप कहां देखते हैं?
मुझे आध्यात्मिक गहराई तक ले जाने में संस्कृत का बहुत बड़ा योगदान है। संस्कृत की बाकायदा मैंने पढ़ाई की है। मैंने संस्कृत भाषा में प्रथमा, द्वितीया और उत्तर मध्यमा पाठ्यक्रम को पास करने के बाद संस्कृत भाषा कोविद की भी उपाधि हासिल की थी। बचपन से ही मुझे धार्मिक अनुष्ठानों में गहरी रुचि थी। बहुत कम लोग विश्वास कर पाते हैं कि 12-13 वर्ष की उम्र में ही मुझे रामचरितमानस कंठस्थ हो गई थी। मैं एक ही बैठकी में इसका पाठ कर लेता था। लोग मुझे इसके पाठ के लिए अपने घर बुलाते। मुझे तो अक्षरों को लिखना ही पिताजी ने सुंदरकांड रटवा कर सिखाया। जैसे कि जामवंत के वचन सुहाए़.़ तो 'ज' से 'जामवंत' बनेगा। 'र' से राम और 'ह' से हनुमान बनेगा। रामचरितमानस के पाठ के दौरान मुझे समझ में आया कि रामचरितमानस में बहुत से संस्कृतनिष्ठ शब्द हैं और उनके बहुअर्थ और व्यापक अर्थ हैं। तब मुझे आभास हुआ कि अगर मैं अध्यात्म में इतनी दिलचस्पी ले ही रहा हूं तो क्यों न मैं उस भाषा को ही सीख लूं, जिससे ये शब्द निकले हैं। इससे मुझे गूढ़ भाव को समझने में ज्यादा आसानी होगी। उसके बाद मैंने उपनिषदों को पढ़ना शुरू किया। बाद में मैं आर्य समाज से जुड़ गया तो अध्यात्म में और दिलचस्पी बढ़ गई। इसके लिए मेरा संस्कृत सीखना जरूरी था। जिस भाषा में मूल रचनाएं होती हैं और जो गहरा भाव उनमें होता है, अनुवाद की भाषा में वह भाव उतनी गहराई से नहीं आ पाता। संस्कृत की विशेषता यह है कि उसमें कोई भी अक्षर बेकार नही होता है। कोई भी मात्रा बेकार नहीं होती है। जैसे 'शव' और 'शिव' दोनों को बोलने में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों में बस 'इ' की मात्रा का फर्क है। लेकिन 'शव' और 'शिव' में जो 'इ' कि मात्रा का फर्क है वही जीवन की निरंतरता है। इसी तरह समज का अर्थ पशुओं का झुंड होता है लेकिन इसी के बीच में आ की मात्रा लग जाने पर यह समाज बन जाता है। आ की मात्रा अनुशासन और परस्पर सहायता का बोध कराती है। मैं तो किशोरावस्था में ही अध्यात्म में इतने गहरे उतर गया था कि 15-16 साल की उम्र में संन्यास लेना चाह रहा था।
तो फिर संन्यासी क्यों नहीं बने?
जैसा कि मैंने आप को बताया कि बचपन में मैं बहुत ही धार्मिक था। मेरे किशोर मन में ईश्वर को जानने की बड़ी इच्छा थी। मैं उसके दर्शन करना चाहता था। मैं ईश्वर की तलाश में बेतवा नदी के घाटों पर घंटों ध्यान लगाकर बैठा रहता। मंदिरों और साधु-संन्यासियों के चक्कर लगाता। यहां तक कि ईश्वर और आत्मा की तलाश में मैंने आधी रात में श्मशान घाट के भी चक्कर लगाए। बचपन में मैं स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित था। उनको न केवल खूब पढ़ा बल्कि उनके जैसे बनने का सोचने भी लगा। मैंने पढ़ा कि उन्हें ईश्वर के दर्शन हुए थे। बस इसी से मेरे मन में संन्यास की भावना पैदा हुई। मैं संन्यास की तरफ अग्रसर हो रहा था कि इसी दौरान मेरा संपर्क आर्य समाज से हुआ। यह घटना तब की है जब मैं बीई के प्रथम वर्ष में था। आर्य समाज के द्वारा आयोजित एक भाषण प्रतियोगिता के दौरान मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे इतना प्रभावित हुआ कि इंजीनियरिंग की किताबों के साथ-साथ मैंने आर्य समाज के साहित्य को पढ़ना शुरू कर दिया। बाद में मैंने सत्यार्थ प्रकाश की हिंदी में संक्षिप्त टीका भी की। स्वामी दयानंद के जीवन ने मुझे बहुत प्रभावित किया। स्वामी दयानंद ने बताया कि समाज के हाशिए पर खड़े व्यक्ति की सेवा में ही ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। मैंने संन्यास और मोक्ष का विचार छोड़ दिया और अपने को समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की सेवा में लगा दिया। मुझे समझ आया कि गरीब और वंचित बच्चा ही समाज के हाशिए पर खड़ा वह अंतिम असहाय व्यक्ति है, जिसकी सेवा से ईश्वर प्रसन्न होंगे। आज बाल मजदूरी और बाल दासता से मुक्त किए गए हर मुस्कुराते बच्चे में मुझे ईश्वर के दर्शन होते हैं। और उनकी मुक्ति के लिए किया गया मेरा कर्म ही मुझे मोक्ष का एहसास दिलाता है।
आपके आदर्श कौन रहे हैं या कहें कि आप को किस से ऊर्जा मिलती है?
बचपन में तो स्वामी विवेकानंद ही थे। बाद में किशोरावस्था में मुझे लगा कि महर्षि दयानंद जी को हमारे वेदों और उपनिषदों की गहरी समझ थी। उन्होंने जिस तरह से वेदों की वैज्ञानिक व्याख्या की है, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। बहुत से लोगों को हो सकता है कि ईश्वर की निराकारता की उनकी व्याख्या स्वीकार न हो। लेकिन, मुझे निराकार ईश्वर ज्यादा वैज्ञानिक नजर आता है। अगर ईश्वर जैसी शक्ति है और वह सर्वव्यापी है, तो वह आकार नहीं ले सकती। इस तरह की शक्तियां निराकार ही होंगी। लोग कहते हैं कि केवल ईसा-मसीह ही ऐसे थे जिन्होंने अपने हत्यारों को माफ कर दिया था। जबकि महर्षि दयानंद वह व्यक्ति थे जिन्होंने जहर देने वाले अपने रसोइए को माफ ही नहीं किया, बल्कि जितना पैसा उनके पास था वह भी उसे दे दिया। ताकि वह दूर जाकर सुरक्षित जीवन जी सके। भारत की आध्यात्मिक ऊंचाई का इससे बड़ा उदाहरण मैंने आज तक नहीं देखा।
बचपन में मैं महापुरुषों की खूब जीवनियां पढ़ता था। आजादी के नायकों और क्रांतिकारियों की जीवनियों ने ही मुझे सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरित किया। मैं हिंसा में कतई विश्वास नहीं करता। फिर भी मेरे आदर्श भगत सिंह हैं, क्योंकि वह देश के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर लटक गए थे। लेकिन अपने नायकों की सामाजिक उपेक्षा से मुझे बहुत दु:ख भी है। चंद्रशेखर आजाद का परिवार इतनी गरीबी में जिया कि उनकी मां भीख मांगते हुए मरीं। मैं रामप्रसाद बिस्मिल की सगी बहन को जानता था। अब उनका स्वर्गवास हो गया है। वह और उनका बेटा उत्तम नगर में चाय की दुकान चलाते थे। समाज के इस व्यवहार को देखकर मुझे बहुत दु:ख होता है। हम लोग समाज में अच्छे लोगों की पहचान कब करेंगे? आखिर कब तक हम नकली लोगों के भरोसे चलेंगे और कब तक हम दिखावें में जिएंगे? मैं जब कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देता हूं तो युवाओं से कहता हूं कि तुम सबके अंदर भी एक हीरो है। अपने सद्कायोंर् से उसे पहचान दो। मैं युवाओं से कहता हूं कि अगर तुम अपने मां-बाप की सुबह सेवा करते और नि:स्वार्थ भाव से देश व समाज के लिए काम करते हो तो असली हीरो तो तुम हो। वैसे, मेरी असली ऊर्जा का स्रोत तो मुक्त हुए बच्चों के चेहरे पर खिलखिलाती मुस्कुराहट है। मैं युवाओं से भी कहता हूं कि वे बदलाव और समाज के हाशिए पर पड़े व्यक्ति के उत्थान में अपनी ऊर्जा तलाशें।
तो क्या आपने अपना उपनाम सत्यार्थी आर्य समाज यानी स्वामी दयानंद से प्रभावित होकर ही रखा है?
यह समाज में व्याप्त छुआछूत के खिलाफ मेरे विद्रोह की परिणति हैं। मैं बचपन से ही जाति व्यवस्था और छुआछूत का विरोधी था। पखाना उठाने वाली मेहतरानियां जब हमारा पखाना साफ करने के बाद शाम को टोकरी लेकर खाना लेने आती थीं तो लोग दूर से उनकी टोकरी में रोटियां और खाना फेंक देते थे। इससे मेरा मन बड़ा ही दु:खी होता था। जब मैं ग्यारहवीं में रहा होऊंगा तो देश में गांधी जी की जन्मशताब्दी मनाई जा रही थी। हमारे विदिशा में भी धूमधाम से यह आयोजन किया जा रहा था। शहर के बीच में गांधी जी की एक मूर्ति भी स्थापित की गई थी। मेरे मन में एक विचार आया कि क्यों न गांधी जी की प्रतिमा के नीचे लोग मेहतरानियों का बनाया खाना खाकर गांधी के सपनों को साकार करते हुए छुआछूत दूर करने की एक मिशाल कायम करें। मैंने शहर के कुछ संभ्रांत लोगों और नेताओं से बात की। उन्होंने भी मेरी हौसला अफजाई की। मैंने बड़ी मुश्किल से खाना बनाने के लिए कुछ मेहतरानियों को तैयार किया। मैंने अपने कुछ साथियों के साथ अपना जेब खर्च बचाकर सहभोज का आयोजन किया। हमने शहर के प्रमुख नेताओं को भोज में बुलाया था। नई लगी गांधी जी की प्रतिमा के पास भोजन बनाया गया। लेकिन कोई नेता खाना खाने नहीं आया। आखिरकार हम चार- पांच दोस्तों ने मेहतरानियों का बना खाना खाया। मेरे सामने नेताओं की असलियत खुल चुकी थी और उसी दिन मैंने प्रण किया कि मैं कभी नेता नहीं बनूंगा। जब मैं रात में घर लौटा तो वहां समाज का एक और वीभत्स दृश्य देखने को मिला। घर के आंगन में परिवार के साथ पड़ोसी और कुछ रिश्तेदार जमा हुए थे। परिवार और रिश्तेदार मेरे इस आयोजन से नाराज थे। उनका कहना था कि मैंने ऐसा आयोजन कर कुल खानदान के साथ शहर के संभ्रांत नेताओं का भी मजाक उड़ाया है। रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने फरमान सुना दिया कि मेहतरानियों के हाथ का खाना खाने से मैं अशुद्घ हो चुका हूं। लिहाजा शुद्घ होने के लिए मुझे गंगा स्नान के बाद ब्राह्मणों को भोजन करवाने के साथ-साथ उनके चरण धोकर भी पीने पड़ेंगे। मैंने इससे साफ इनकार कर दिया। इसके बाद मुझे कई वषोंर् तक अपने घर में ही निर्वासित जीवन जीना पड़ा। मैं घर के बिलकुल बाहर बने एक कमरे में रहता था और घर के अंदर प्रवेश करने की मुझे अनुमति नहीं थी। कमरे में ही रखे घड़े का पानी पीता था और वहीं बाहर ही मुझे खाना दे दिया जाता था। उस समय मैंने सोचा कि मैं अपने नाम से जाति सूचक शब्द हटा दूंगा। तब कई उपनामों पर चर्चा हुई। किसी दोस्त ने कहा कि तुम हमेशा सामाजिक बुराइयों के खिलाफ विद्रोह करते रहते हो इसलिए उपनाम में विद्रोही जोड़ लो, तो किसी ने कहा कि हमेशा सच बोलते हो और सच के लिए लड़ते हो, इसलिए सत्यार्थी जोड़ लो। किसी ने कहा संस्कृत में कोविद हो, इसलिए कोविद लगा लो। मैं भी सत्यार्थ प्रकाश से बहुत प्रभावित था इसलिए उपनाम में सत्यार्थी ही जोड़ लिया। इस तरह से मैं कैलाश नारायण शर्मा से कैलाश सत्यार्थी बन गया।
आप भी जेपी आंदोलन का हिस्सा रहे हैं। जेपी आंदोलन से निकले ज्यादातर लोग राजनीति में चले गए और कुछ नौजवान वनवासी और ग्रामीण इलाकों में जाकर काम करने लगे। बच्चों के सवाल पर ही काम करना चाहिए, यह विचार कैसे आया?
मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। सत्तर के दशक में यह एक बेहतरीन करियर माना जाता था। मेरे पास इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर की अच्छी नौकरी थी। मेरी शादी भी हो चुकी थी और मेरा एक बेटा भी हो गया था। परिवार चलाने के लिए मुझे नौकरी की जरूरत भी थी। फिर भी मैंने अपनी नौकरी, अपना इंजीनियरिंग का करियर छोड़ दिया था तो इसलिए कि मैं समाज के लिए कुछ करना चाहता था। और मैं यह कठोर फैसला इसलिए ले सका, क्योंकि मेरा जीवन दर्शन अध्यात्म से ही प्रेरित रहा है। हमारी भारतीय परंपरा से आध्यात्मिकता की जो समझ पैदा होती है वह ज्यादा वैज्ञानिक और सुलझी हुई होती है। भारतीय अध्यात्म दुनिया को देखने की, खुद को देखने की, समाज और व्यक्ति के सबंधों को देखने की, करुणा की, अधिकारों की और ईश्वर को समझने की एक अनोखी दृष्टि देता है। जब मैंने एक नई समाज रचना के लिए इंजीनियर बनने का सपना छोड़ा था तब मैं एनजीओ जैसे किसी शब्द को जानता तक नहीं था। बस यह तो मेरे लिए एक आध्यात्मिक मिशन की तरह था। रही बात बच्चों के सवाल पर काम करने की तो बच्चों के लिए काम करना मेरे लिए हमेशा से प्रेरणा की तरह रहा है। बचपन में मैं अपनी कापी किताबें गरीब बच्चों को दे देता था और घर पर इसके लिए डांट भी पड़ती थी। 7 वीं में पढ़ता था तभी से गरीब बच्चों के लिए किताबें इकट्ठी करके उन्हें बांटता था। बाद में अपने मोहल्ले के धर्माचार्य की मदद से मैंने गरीब बच्चों के लिए 'बुक बैंक' भी स्थापित किया। कॉलेज के दिनों में जब हमारे विदिशा में दशहरा का मेला लगता था तो मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ उस मेले में चाय और समोसे की दुकान लगाकर गरीब बच्चों की फीस का पैसा इकट्ठा करता था। इस दौरान मुझे लगा कि बहुत सारे बच्चें गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं। मुझे उनकी आजादी के लिए कुछ काम करना है। मैं जब बच्चों को स्कूल की बजाय काम करते देखता तो बेचैन हो जाता। लगता कि बचपन गुलाम है। शुरू में हम दोस्त मिलकर आपस में ही 50-100 रुपये इकट्ठा करके बच्चों की मदद करते थे। अस्सी के दशक में हमने कानूनी जरूरतों और पारदर्शिता के चलते संस्थागत रूप में काम करना शुरू कर दिया।
आपने कहा कि आप आध्यात्मिक हैं और मानने में कम और जानने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। एनजीओ क्षेत्र को लेकर सवाल उठते रहते हैं। यह बताइए कि इस काम में दूध कितना है और पानी कितना? और आपने इसे कैसे जाना है?
देखिए, सत्तर और अस्सी के दशक में बाल श्रम और बच्चों के अधिकारों को लेकर कोई भी संस्था या सरकार कुछ सोचती तक नहीं थी। साल 1989 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बाल अधिकार घोषणापत्र जारी करने से पहले बच्चों के अधिकारों और सवालों को लेकर कोई आवाज तक नहीं थी। जब बाल अधिकार घोषणापत्र जारी हुआ और कई देशों ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसमें भारत भी शामिल था, उसके बाद तो बच्चों के लिए काम करने वालों की बाढ़ ही आ गई। नब्बे के दशक में बाल श्रम और बाल मजदूरी के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए कई संस्थाएं खड़ी हो गईं। हालांकि इनमें से ज्यादातर संस्थाएं पहले ग्रामीण विकास, महिला सशक्तीकरण और स्वास्थ्य आदि पर काम करती थीं। इनमें कई गांधीवादी संस्थाए भी थीं। लेकिन, जब संस्थाओं को विदेशी धन और सरकारी पैसा मिलने लगा तो लोग संस्था बनाकर लाभ कमाने लगे। सरकारी अधिकारियों और नेताओं की पत्नियों व बच्चों ने भी संस्थाएं बना लीं। अब 'सोशलाइट' और 'फैशनेबल' सिविल सोसायटी भी तैयार हो गई हैं। मैंने अपने 40 साल के सार्वजनिक जीवन में सब तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। इसमें समाज में जनचेतना का ज्वार भी देखा है तो आंदोलनों में क्रांतिकारी विचारों से ओत-प्रोत युवा शक्ति का जोश भी। वैचारिक प्रदूषण फैला रहे और बुद्घि विलासिता कर रहे उन एनजीओ को भी देखा है जिन्होंने सामाजिक बदलाव और समाज कल्याण को कारोबार बना दिया है। फाइव स्टार होटलों में मीटिंग और पार्टियां करने वाले और शराब, पैसे व ताकत के नशे में चूर इन लोगों को भूख और गरीबी का न तो संज्ञान है और न ही सरोकार। इनमें से अधिकांश लोग समाज के हाशिए पर खड़े जिस व्यक्ति के नाम पर करोड़ों रुपये का चंदा ले रहे हैं और बढि़या रपट बना रहे हैं, उस गांव के गरीब को तो उन्होंने देखा तक नहीं है। पिछले करीब दो दशकों में एनजीओ का एक वर्ग सामाजिक बदलाव का नहीं बल्कि करियर बनाने का जरिया बन गया है।
लोग एनजीओ को करियर, दुकानदारी और मुनाफे का माध्यम समझते हैं। मैं देखता हूं कि जो दानदात्री संस्थाए हैं उनका अपना भी एक एजेंडा है। मेरा इन संस्थाओं से हमेशा से झगड़ा रहा है। दुनिया में हर जगह भले लोग हैं और वह भले लोग चाहते हैं कि समाज का कुछ भला हो। उनके पास पैसा भी है और वे दान भी देते हैं। वह लोग जिन संस्थाओं को पैसा देते हैं उनसे कुछ उम्मीद भी नहीं करते, सिवाय इसके कि पैसा ईमानदारी से उस उद्देश्य के लिए खर्च हो जिसके लिए दिया जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ कई बड़ी संस्थाए हैं जिनके अपने एजेंडे हैं। जिनकी पहचान कर पाना अब मुश्किल नहीं है, जो पहले इंटरनेट के न होने से मुश्किल था। हमारे संगठन का पूरे साल का उतना खर्च नहीं होता, जितना ऐसी किसी दानदात्री संस्था के सीईओ की सैलरी होती है। जबकि हम सैकडों बच्चों को छुड़वा रहे हैं। उन्हें पुनर्वासित करके शिक्षा दिलवा रहे हैं।
अभी आप ने जैसा बताया कि दानदात्री संस्थाओं का अपना एक एजेंडा होता है। भारत के संदर्भ में वह एजेंडा क्या हो सकता है?
देखिए, कई तरह के लोग हैं। कापार्ेरेट जगत और राजनीति के लोग भी अब अपने मकसद के लिए एनजीओ बना रहे हैं। धर्म परिवर्तन के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। एनजीओ गरीबी के नाम पर पैसा बनाने की मशीन बन रहे हैं। ऐसे में सबका अपना अलग-अलग एजेंडा है। जैसे कि दिल्ली राज्य बाल कल्याण समिति ने बचपन बचाओ आंदोलन के सहयोग से पिछले साल दिल्ली में कुछ संस्थाओं द्वारा गैर-कानूनी तरीके से चलाए जा रहे बाल गृह से करीब 140 बच्चे छुडाए थे। पुलिस ने जांच में पाया कि इन गरीब बच्चों को कन्वर्जन के लिए दूसरे राज्यों से बहला-फुसला कर लाया गया था। कोई स्वेच्छा से मत परिवर्तन करे तो ठीक लेकिन, किसी प्रकार के लालच, जोर जबरदस्ती या फिर बहला-फुसला कर कन्वर्जन करवाना गलत है। मैं इसके खिलाफ हूं। दूसरी कई संस्थाएं नक्सलवाद से प्रभावित हैं। जो कहीं न कहीं हिंसा को बढ़ावा देती हैं। यह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। इनको पैसा उन संस्थाओं से मिलता है जो कहने को तो समाजिक विकास के लिए कार्य कर रही हैं, लेकिन असल में उनका चरित्र ऐसा है नहीं। मेरा यह निजी अनुभव है कि मोटे अनुदान, सुविधाओं और विदेशी यात्राओं का लालच देकर अंतर्राष्ट्रीय संगठन भारत के एनजीओ समुदाय को तोड़ते और एक दूसरे से लड़वाते भी है।
क्या मानवाधिकार भी ऐसा ही मुद्दा है?
नहीं। समाज कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, महिला सशक्तीकरण और पर्यावरण रक्षा के लिए उठाए गए कदम से वास्तव में मानवाधिकारों की रक्षा होती है। लेकिन मानवाधिकार की आड़ में छद्म एजेंडा बढ़ाना गलत है। मैं अच्छा काम करने वाले ढेर सारे मानवाधिकार संगठनों को जानता हूं और उनके साथ काम भी करता हूं।
कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाए हैं जो एजेंडे के साथ दानदात्री संस्थाओं को चला रही हैं। इसके पीछे आपको क्या ताकत नजर आती है? क्या ये अपने आप में संगठित तौर पर बहुत मजबूत हैं या पीछे से कोई और समर्थन भी मिलता है?
अब पर्दे के पीछे क्या चल रहा है, यह तो मुझे भी नहीं पता। लेकिन, जहां तक हमारे संगठन का सवाल है, उसकी दिशा और काम को लेकर हम बिल्कुल स्पष्ट हैं। हमारा साफ मानना है कि किसी भी उद्योग को नुकसान पहुंचाने से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। हमारी दुश्मनी उद्योग से नहीं बल्कि उस बुराई से है, जो उस उद्योग में नहीं होनी चाहिए। इनको दूर करने के लिए संविधान, कानून और अंतरराष्ट्रीय मापदंड हैं।
मैं देखता हूं कि कई नामीगिरामी और बड़े संगठन मंच पर खड़े होकर तो बाल मजदूरी खत्म करने का दम भरते हैं, लेकिन वे ऐसे उद्योगों से चंदा लेते हैं जो बाल मजदूरी करवाने में लिप्त हैं। यही संगठन ऐसी संस्थाओं की आर्थिक मदद करते हैं जो परोक्ष रूप से हमारे कामों का विरोध करते हैं। मेरे जीवन में अंतर्राष्ट्रीय दानदात्री संगठनों के साथ जितने रिश्ते रहे हैं उसमें ज्यादातर संघर्ष के ही रहे हैं। बच्चों के सवाल को लेकर जो दो बड़े अंतरराष्ट्रीय आंदोलन शुरू किए गए वे मेरे दिमाग की ही उपज थे। पहला था बाल मजदूरी के खिलाफ 'ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर' और दूसरा था शिक्षा के अधिकार के लिए 'ग्लोबल कैंपेन ऑन एजुकेशन'। इन दोनों आंदोलनों का मैं संस्थापक और अध्यक्ष था। लेकिन कुछ संस्थाएं हमारे संगठन के साथ इसलिए शामिल हुईं कि वह हम पर अपने तरीके से नियंत्रण कर सकें। पश्चिम के ये संगठन यह पचा नहीं पाते कि भारत का कोई साधारण व्यक्ति जो कि एक साधारण संगठन चलाता है, वह हम सबका नेता बन जाएं। हमने आजतक किसी के एजेंडे का समर्थन नहीं किया। सिर्फ अपनी शर्तों पर ही संगठन को चलाया। अगर आप को ईमानदारी से बच्चों की भलाई के लिए पैसा देना है तो ठीक है, वरना जय राम जी की। शायद, यही कारण है कि बचपन बचाओ आंदोलन कभी भी आर्थिक रूप से सुदृढ़ नहीं रहा। भारत में बच्चों की शिक्षा और सुरक्षा के लिए सबसे ज्यादा काम करने के बावजूद भी आप को देश में ऐसे बहुत से संगठन मिल जाएंगे जिनके जिले का बजट भी हमारे संगठन के राष्ट्रीय बजट से कहीं बहुत ज्यादा है।
यह देश 'सेकुलर' है और जय राम जी करके आप इतने आगे आ गए?
(हंसते हुए) जी, हमने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। मैं शुद्घ शाकाहारी हूं और शराब व मांसाहार का घोर विरोधी हूं। कभी किसी दानदात्री संस्था के व्यक्ति के लिए हमारी संस्था ने शराब और मांस की व्यवस्था नहीं की। जबकि लोग कहते हैं यह तो छोटी सी बात है। आप छोटी-छोटी बातों पर क्यों अड़े रहते हैं। संस्थाएं मुद्दे उठाती रहती हैं। कई ऐसे मुद्दे भारत में भी हमारे साथी संगठनों ने उठाए। लेकिन बाद में हमें पता लगा वह यह मुद्दे इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि जिनसे उन्हें पैसा मिल रहा है, वह लोग यह सब उनसे करवा रहे हैं। यानी पैसा देने वाला इस शर्त पर पैसा दे रहा है कि तुम यह सवाल उठाओगे।
जब समाज की समस्याओं और उसका समाधान जनता से पूछे बगैर पैसा देने वाला निर्धारित करेगा तो फिर बदलाव कैसे आएगा? हमने कभी भी सत्य, करुणा, धर्म और कर्म का मार्ग नहीं छोड़ा मैंने न तो कभी भारतीयता, राष्ट्रीय गौरव और अपनी महान संस्कृति के साथ समझौता किया है और न ही कभी करूंगा।
गुजरात दंगों में गैर-सरकारी संगठनों की बहुत किरकरी हुई थी। एक संगठन पर तो वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप भी लगे। जांच में पता चला कि उस संगठन को दान में जो पैसा मिला था उसमें से एक बड़ी रकम से सजने-संवरने का सामान खरीदा गया था। ऐसे कामों को आप किस तरह से देखते हैं?
देखिए, जिन मुद्दों के लिए और जिन कामों के लिए हमें लोगों से पैसा मिलता है, हमारी नैतिक जवाबदेही उन्हीं के लिए सबसे ज्यादा होनी चाहिए। मैं स्वयं मानता हूं कि मेरी जिम्मेदारी सबसे पहले समाज के उन बच्चों के प्रति बनती है, जिनके लिए मैं काम करता हूं। इसके बाद मेरे साथी हैं, जिन्हें मैं अपने परिवार का हिस्सा मानता हूं। फिर जाकर कहीं मेरे परिवार का नंबर आता है। जहां तक गुजरात दंगों के संबंध में कुछ गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका की बात है तो इस बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन, अखबारों से पता चला है कि इस मामले की अभी न्यायिक जांच चल रही है। मैं देखता हूं कि आज गैर-सरकारी संगठनों में नैतिक जवाबदेही का बहुत अभाव है। बल्कि नैतिकता की कमी दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। अगर आप किसी सामाजिक मुद्दे के साथ चल रहे हैं तो आपकी नैतिक जवाबदेही तो बनती ही है। अगर आपको बेहतर भारत और बेहतर समाज बनाना है तो यह जवाबदेही अनिवार्य है।
आपने जो बातें बताईं, वह नक्सलवाद और कन्वर्जन पर साफ दिखाई देती हैं। आप को कहीं लगता है कि सेकुलरवाद का लबादा ओढ़कर कोई एक लॉबी है जो काम कर रही है?
देखिए, हमारा जो दर्शन है वह सर्वधर्म समभाव का दर्शन है। यह दुनिया का महानतम दर्शन है। इस दर्शन में दुनिया की सभी समस्याओं का हल और सभी प्रश्नों का उत्तर है। लेकिन, यह दु:ख की बात है कि लोगों ने जाति, पाखंड और कर्मकांड के नाम पर उसका सत्यानाश कर दिया है। हमारा जो मूल दर्शन है वह सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुम्बकम् के आधार पर है।
अयं निज: परोवेति, गणनां लघु चेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुम्बकम्।
हमारा वेद तो वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करता है। हमारी संस्कृति हमारा देश इन्हीं मूल्यों पर तो खड़ा है। इन मूल्यों में किसी भी तरह की हिंसा और धोखाधड़ी का स्थान नहीं है। मैं अंहिसा में विश्वास रखता हूं। मैं चाहता हूं कि दुनिया में हर समस्या का समाधान अहिंसा से ही हो। हम जिन बातों में उलझे हुए हैं, वे बहुत ही सतही और उथली बातें हैं। हम शांति की बात करते हैं। पूरे ब्राह्मांड की शांति की बात करते हैं। हम दुनिया में शांति के लिए शांति पाठ करते हैं। ॐ द्यौ: शांति: अंतरिक्ष शांति: पृथ्वी: शांति़.़ आप: शांति़.़ यह जो पूरा का पूरा शांति पाठ है यह दुनिया को शांति का संदेश देता है।
ल्ल पूरी दुनिया में हिंसा फैली हुई है। ऐसे में विश्व शांति में आप भारत की क्या भूमिका देखते हैं।
हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने समाज में ही नहीं, जल-वायु, पेड़-पौधे, वनस्पति और औषधि तक में शांति स्थापना की बात की है। आज इतने सालों बाद समुद्र को शांत और सुरक्षित रखने की बात को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने स्वीकार किया है। भारत में एक तरफ जहां आर्थिक रूप से संपन्न राष्ट्र बनने की संभावना है, हमारे आध्यात्मिक दर्शन की जो गहराई है, उस गहराई में से वर्तमान समस्याओं का समाधान निकालकर हम दुनिया के सामने रखें। मैं दुनिया में जगह-जगह वेद मंत्रों को कई बार बोलता हूं। लोग सुनते हैं, समझते हैं और आत्मसात करने की बात करते हैं। लेकिन, मेरा मानना है कि हमारी जो आध्यात्मिक बुनियाद है और वह जिन मूल्यों पर खड़ी है, उन मूल्यों की सही ढंग से व्याख्या, पालन और लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रचार का काम नगण्य हुआ है। कई देशों में नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा है। भारत भी उनमें से एक है। हमारे पास जो आध्यात्मिक ज्ञान है उस पर ज्यादा गर्व होना चाहिए, क्योंकि यह ज्ञान दुनिया में सिर्फ हमारे पास है। मैं संप्रदायों, मतों और पंथों को धर्म नहीं मानता। धर्म एक ही है संसार में। मनुस्मृति में कहा गया है धार्यते इति धर्म:। यानि मनुष्य के लिए धारण करने वाले जो गुण होते हैं वही धर्म हैं। मनुस्मृति में ही इसकी व्याख्या है-
धृति: क्षमा दमोस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रह।
धीर्विद्या सत्यमक्रोध:, दशैकं धर्म लक्षणं।
क्षमा, सत्य, अक्रोध, करुणा, आत्म नियंत्रण आदि दस मानवीय गुणों का जो पालन करता है वही धार्मिक है। इसके अलावा कोई धर्म नहीं है।
बाकी चीजें जो हैं वह तो पहचान भर हैं। जो कि हिंदू, मुसलमान, सिख ईसाई के रूप में होती हैं। यह पहचान भी इतिहास के अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में बदलती रही है। भारत में अध्यात्म का जो आधार है वह इन्हीं बुनियादी लक्षणों पर आधारित है। अगर सही मायनों में धर्म के इन मूल्यों का कोई पालन कर रहा है तो उसका सम्मान सबको करना चाहिए। मेरा धर्म किसी भी इंसान में बंटवारा नहीं कर सकता। वह किसी भी इंसान में पहचान के आधार पर बंटवारा नहीं कर सकता। जिस धर्म पर मेरी आस्था है जो इन ऋषि-मुनियों ने हमें हजारों वर्षों से सिखाया है उसमें मुझे नही लगता कि इंसान-इंसान के बीच में भेदभाव है। हम दुनिया के लोगों को यह समझा पाएं तो संसार में जो धार्मिक उन्माद और असहिष्णुता बढ़ रही है, वह अपने आप रुक जाएगी। मैं मानता हूं कि भारत को विश्व में आध्यात्मिक एवं नैतिक गुरु बनने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।
आप ने कहा कि बच्चों के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के बाद बहुत सारी गांधीवादी संस्थाएं चोला बदलकर बच्चों के काम में लग गईं। आपको लगता है कि गांधी जी के मूल विचार और उनके नाम पर जो देश में चल रहा है, उसमें बहुत बडा फर्क है?
लोहिया जी कहते थे कि तीन तरह के गांधीवादी होते हैं। एक सरकारी गांधीवादी जो सत्ता में बैठ गए हैं। दूसरे मठी गांधीवादी जो इस तरह की संस्थाएं चला रहे हैं और तीसरे कुजात गांधीवादी। लोहिया जी खुद की तुलना करते हुए कहते थे कि वे गांधीवादी तो हैं लेकिन कुजात गांधीवादी। मुझे लोहिया जी की इन बातों ने बहुत प्रभावित किया। लोगों का मानना है कि कैलाश जी पर गांधीवाद का प्रभाव है। मैं यह मानता हूं कि गांधी जी ने एक महान काम किया जो कोई भी नहीं कर पाया। मेरा मानना है कि दुनिया में जितने भी क्रांतिकारी हैं वह सब राष्ट्र की सेवा के अपने जुनून की वजह से क्रांतिकारी बने। लेकिन गांधी जी मेरी नजर में एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों को जन-आंदोलन में परिवर्तित किया। सत्य और अहिंसा की बात हम लोग मंदिरों में ही समझते थे। लेकिन जो सत्य है वह ईश्वर का ही एक प्रतिबिंब है। जिन बातों को हम मंदिर, मस्जिद और चर्च में पढ़ा और सुना करते थे, गांधी जी ने उन्हीं बातों को आधार बनाकर शांति, अहिंसा और सत्य के माध्यम से कई जन-आंदोलन खड़े किए। वह सब हमारे आध्यात्मिक मूल्यों से जुड़ी हुई बातें थीं तो जनता भी उनसे जुड़ने लगी। हम भारतीयों के खून में ही शांति है। गांधी जी ने इन मूल्यों को भारत की धरती से पकड़ा और उसके माध्यम से जन-आंदोलन खड़ा कर दिया। सामाजिक आंदोलन में इस्तेमाल करके उसे जन-आंदोलनो में बदला जा सकता है। परिवर्तन की प्रक्रिया में संकल्प की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यही संकल्प बाद में विचार बनता है और विचार बाद में प्रक्रिया बन जाता है। फिर कई लोग मिलकर उस काम को करने लगते हैं तो वह संगठन बन जाता है। संगठन फिर संस्था बनता है। उसके बाद वह संस्था एक आकार ले लेती है। उस संस्था के अंदर विकृतियां भी पैदा होती हैं। गांधीवादी संस्थाओं के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। मेरा मानना है कि संकल्प और प्रेरणा विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है।
ये मौका भुनाने से ज्यादा भाव जगाने वाले हैं या मौका भुनाने के लिए लोग खड़े हो जाते हैं?
हमारे आंदोलन के शुरू में जो लोग जुड़े थे वे आज की पीढ़ी से बहुत अलग थे। अब तो इनमें से कई लोगों का स्वर्गवास भी हो चुका है। लेकिन, कुछ लोग अभी भी संगठन से जुड़े हुए हैं। जो नई पीढ़ी के लोग आते हैं अगर उन्हें कहीं थोड़ा ज्यादा पैसा मिलता है तो वह वहां दौड़े चले जाते हैं। मेरे शुरुआती साथियों और वरिष्ठ सहयोगियों ने सामाजिक कार्य में बेहतर नौकरी और पैसे का लालच कभी नहीं किया। हिंदुस्तान समाचार के संस्थापक और रा.स्व.संघ के प्रचारक बालेश्वर अग्रवाल जी हमारे पिता समान थे। मेरी पत्नी उनकी दत्तक पुत्री समान थीं। वह हमारी सगाई करवाने विदिशा भी आए थे। मेरे उनके संबंध बहुत अच्छे थे। वह मुझे दामाद मानते थे। एक बार शादी के बाद दिल्ली में हमारे घर आए। तब हम लोगों के पास बिस्तर नहीं थे, अखबार के बंडल के ऊपर दरी बिछाकर हम सोते थे। घर की हालत देखकर उन्होंने मुझे नौकरी का ऑफर दिया। लेकिन, मैंने मनाकर दिया। एक बार मेरे कॉलेज के प्राचार्य, जो मुझसे बड़ा स्नेह करते थे, मेरे घर आए। उन्होंने भी मेरी हालत देखी तो दिल्ली के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में मेरे लिए अध्यापन की व्यवस्था कर दी। मैंने उसे भी ठुकरा दिया। मैंने कहा जिसका संकल्प लिया है वही करूंगा। एक तरफ हमारे बेटे के लिए दूध और फल जरूरी था तो दूसरी तरफ गुलाम बच्चों को आजाद करना था। मैंने दूसरा विकल्प चुना। हम तब एनजीओ जानते भी नहीं थे। मित्रों की आर्थिक मदद से ही सामाजिक बदलाव में जुटे हुए थे।
बाजार का तेजी से विस्तार हो रहा है। दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियां सरकारें तक बना और बिगाड़ रही हैं। क्या वह दुनिया और खासकर एनजीओ के एजेंडे को भी प्रभावित कर रही हैं।
जिस तरह कापार्ेरेट जगत का दबदबा दुनिया में बढ़ा है, उससे सरकारों का दायरा सिमट रहा है। दो क्षेत्रों के दायरे बढ़ रहे हैं। जिसमें पहला है कापार्ेरेट और दूसरा है सिविल सोसायटी। अब दुनिया में कोई भी बडे़ फैसले इन दोनों की मर्जी के बिना नहीं होते। 20 साल पहले दुनिया में विकास को लेकर संयुक्त राष्ट्र की जो प्रक्रिया थी, अब वैसी नहीं है। हालांकि विश्व बैंक जरूर कापार्ेरेट को बुलाता रहता था। लेकिन, वहां सिविल सोसायटी की जगह नहीं थी। अब विश्व बैंक से लेकर सभी जगह सिविल सोसायटी का दबदबा है। पहला सरकार, दूसरा सिविल सोसायटी और तीसरा है विश्व बैंक। अब इनके बीच में सामंजस्य और आपसी विश्वास कैसे जगाया जाय, यह चुनौती सबके सामने है। चाहे विदेशी कापार्ेरेट हों या फिर भारतीय कापार्ेरेट, सभी का उद्देश्य पैसा कमाना ही है। संपूर्ण कापार्ेरेट जगत विज्ञापनबाजी से ही चल रहा है। कापार्ेरेट को भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत देखना चाहिए कि वह कौन सा पक्ष है जिससे गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दों को दूर किया जा सकता है। उन्हें उस पक्ष को बढ़ावा देना चाहिए। कुछ लोगों ने सिविल सोसायटी में अपना करियर बना लिया है। उनको पता भी नहीं है कि जो वह कर रहे हैं उससे समाज को कितना फायदा है और कितना नुकसान है? उनको बस कापार्ेरेट से पैसे मिल रहे हैं। उनको दान मिल रहा है। कुछ लोग यह जान-बूझकर करते हैं। उन्हें लगता है कि इससे उनको नाम, इज्जत और पैसा मिल रहा है। दूसरी तरफ मैं दुनिया के तमाम गांवों के ऐसे छोटे-छोटे संगठनों और सिविल सोसायटी को जानता हूं जो बहुत ईमानदार हैं और अच्छा काम भी कर रहे हैं। जिनको किसी चीज का लालच नहीं है। वह सिर्फ यह चाहते हैं कि समाज में महिलाओं, जनजातियों और पिछड़े वगोंर् के लिए कुछ अच्छा हो जाए। वह लड़ रहे हैं, मर रहे हैं, पर ईमानदारी से अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं।
भारत में ऐसा एक बहुत बडा वर्ग है, जिसकी हमें पहचान करनी चाहिए और उसे बढ़ावा देना चाहिए। एक तरफ पांचसितारा एनजीओ हैं तो दूसरी तरफ जमीनी स्तर पर काम करने वाले एनजीओ। हमें उन दोनांे को मिलाकर के नहीं देखना चाहिए। जैसे हम कापार्ेरेट को एक साथ मिलाकर नहीं देख सकते, जैसे हम सरकारों को मिलाकर नहीं देख सकते। इसमें सभी तरह के तत्व हैं, लेकिन दुनिया तो इन सभी तत्वों को साथ लेकर चल रही है। हमें भी इसे समावेशी तरीके से देखना चाहिए कि हम कैसे अच्छे लोगांे की पहचान कर सकते हैं और साथ ही कैसे उनकी आवाज को सामने ला सकते हैं। कुछ संगठनों का तो जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं है। लेकिन इन्हें चलाने वाले लोग उच्चवर्गीय हैं। वे बडे लोगों से मिलते हैं। सरकार के बड़े अधिकारियों के पास बैठकर गप्पें मारते हैं और उनके साथ शाम को शराब भी पीते हैं। इन सब चीजों से कुछ नहीं होगा। ऐसे लोगों को हमें कभी बढ़ावा नहीं देना चाहिए। हमें जमीनी स्तर पर काम करने वाले छोटे-छोटे संगठनों और कार्यकर्त्ताओं को बढ़ावा देना चाहिए, जिनका कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं होता है। भले ही वह किसी भी जाति समुदाय से हों। अगर वह भारत के प्रति सेवा के लिए समर्पित हैं तो ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए।
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