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ज्यादा समय नहीं हुआ जब दुनिया दो खेमों में बंटी थी। साम्यवाद और पूंजीवाद। परिभाषाओं की इस पालेबंदी में किस तरफ समझ ज्यादा थी और किस ओर अकड़ कम, कहना मुश्किल है। लेकिन, परिपूर्ण दर्शन की तरह प्रचारित की जा रही अधूरी-अधकचरी परिभाषाओं को एक दिन घूरे पर जाना ही था। किले एक न एक दिन ढहने थे, ढह गए।
भारत इसमें पक्ष नहीं था। गुटनिरपेक्ष था। सो, झटके दोनों ओर के खाने थे। खाए भी। फिर आया वैश्विक कही जाने वाली एक नई परिभाषा का अगला दौर। 1992 में अलगाव की दीवार गिराकर दो जर्मनी एक हो रहे थे। भारत एक सांस्कृतिक उठान से गुजर रहा था। इस वक्त, जब सैमुअल पी. हंटिंग्टन दुनिया को बता रहे थे कि शीत युद्ध का दौर खत्म होने के बाद दुनिया की अगली टकराहट परस्पर विरोधी मजहबी सभ्यताओं के बीच होगी, तब भी भारत की 'परिभाषा निरपेक्षता' वैसी ही बनी रही।
सोचने की बात यह है कि वैश्विक विचार-विमर्श में, उथल-पुथल के हर दौर में क्या भारत की भूमिका सिर्फ निरपेक्ष और बार-बार झटका खाने की रह सकती है? क्या दुनिया के प्राचीनतम विचार की भूमि रहे इस देश ने सोचना छोड़ दिया? या फिर, अपने प्राचीन दर्शन की पोटली उठाकर ताक पर रख दी? वैसे, विश्व ने जब-जब परिभाषाओं के साथ अपने इन प्रयोगों से चोट खाई है तो भारत की ओर बड़ी आशा से देखा है। भारत की राजनीतिक ऊंघ ने भले अपने शाश्वत अनुभवों की सनातन परंपरा को दुबकाने-दबाने की कोशिश की हो, पर समाज की सज्जन शक्ति के जरिए वैश्विकता का दुनिया में फैलता भारतीय विचार उसे आकर्षित करता रहा।
दुनियाभर से लोग आते रहे…भारतीय मिट्टी से उपजे 'एकात्म' के उस दर्शन को समझने के लिए जिसमें वैश्विक समस्याओं से मुक्ति का मार्ग है। साम्यवाद की खूनी क्रांति, पूंजी के प्रभुत्व की धमक और सभ्यताओं की टकराहट को टालने का दम है। सनातनधर्मी समाज के मन में, दीनदयाल जी द्वारा प्रवर्तित दर्शन में, दत्तोपंत ठेंगड़ी जी जैसे मनीषियों के कथन में लगातार टिमटिमाती रही ज्ञान की यह लौ भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया को और तेजी से अपनी ओर खींच रही है। असल में यह भारतीय ज्ञान और दर्शन के परागण का दौर है। असल में इस प्राचीन देश की सांस्कृतिक सुगंध से खिंचे चले आते लोग भारतीय दर्शन के हरकारे हैं। विश्व में भारतीयता के दीपस्तंभ।
सो, इस दीपावली पाञ्चजन्य का विशेष संयुक्तांक इन्हीं दीपस्तंभों के नाम। नागरिकता की भौगोलिक सीमाओं से परे भारतीय संस्कृति के ये नक्षत्र प्रेम, साम्य और सौहार्द के उस प्राचीन दर्शन का प्रसार कर रहे हैं जिसमें पूर्णता है, समग्रता है, टकराहटों को टालने की क्षमता है। भारत से प्रेरणा पाकर ये लोग अपने जीवन में शांति और परिवर्तन तो पा ही रहे हैं, अपने इस अनुभव का प्रसार भी कर रहे हैं।
कला, योग, ध्यान, यज्ञ, कीर्तन, आयुर्वेद, मंत्र अभ्यास, गीता अनुवाद, संगीत या फिर सहज-सरल साधना…भारतीय संस्कृति के भांति-भांति के सूत्रों को इन्होंने अपने जीवन का ध्येय अथवा आधार बनाया है। जरूरी है कि भारतीयता के इन दीयों की जगमगाहट को अलग-अलग न देखा जाए। इसमें वैयक्तिता का नहीं वैश्विकता का भाव है। इनकी जगमग पूरे जग के लिए है।
वैसे भी, दिवाली से एक रोज पहले घूरे पर दीया जलाने की परंपरा है। ध्वस्त-धराशायी परिभाषाओं का मलबा आज जब विश्व में जगह-जगह घूरे पर है तब वहां भारतीय दर्शन के दीए जल रहे हैं।
पाञ्चजन्य के सभी पाठकों, अभिकर्त्ताओं, विज्ञापनदाताओं और शुभचिंतकों को दीपोत्सव की हार्दिक मंगलकामनाएं।
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