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बगलूरु के एक उद्यमी ने बताया कि उनके यहां अक्षम (अकुशल) आवेदकों की भरमार है। इनके पास आईटीआई अथवा पॉलीटेक्निक के प्रमाण पत्र तो हैंं, लेकिन काम एक धेले का नहीं आता है। मसलन कम्प्यूटर विभाग के आवेदक को ‘वर्ड’ की ‘फाइल’ खोल कर ‘प्रिंट’ लेना भी नहीं आता है। देश के तमाम युवकों की पहली पसंद सरकारी नौकरी है। इसे हासिल करने के लिये ‘पहुंच’ और प्रमाण पत्र की जरूरत होती है कौशल की नहीं। ये युवक शुल्क देकर प्रमाण पत्र लेते हैंं। सरकारी नौकरी न मिलने पर बेरोजगार भटकते रहते हैंं। ये अपनी कम्प्यूटर अथवा बिजली मरम्मत की दुकान तक नहीं खोल पाते हैं क्योंकि इन्हें इन कामों की व्यावहारिक जानकारी ही नहीं होती। देश में ऐसे कर्मियों की कमी है जो वास्तव में कुशल हों। मौजूदा हालात में इस समस्या से निपटने के लिये सरकार ने ‘स्किल डेवलपमेंट’ यानी कौशल विकास मंत्रालय खोलने का नेक कदम उठाया है।
आज सरकार के लगभग 20 मंत्रालयों के 73 विभागोंं द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जैसे कृषि मंत्रालय द्वारा जैविक खेती तथा महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय द्वारा ‘ब्यूटीशियन’ का प्रशिक्षण दिया जाता है। कौशल विकास मंत्रालय की योजना है कि इन तमाम बिखरे हुये कार्यक्रमों के बीच समन्वय स्थापित किया जाये। यह कदम सही दिशा में तो है, लेकिन समन्वय से प्रशिक्षण का चरित्र नहीं बदलेगा। प्रमाण पत्र की होड़ मात्र का समन्वय हो सकेगा। जरूरत इस ‘प्रमाण पत्र उद्योग’ को जड़ से उखाड़ फेंकने की है। जमीनी स्थिति काफी दुष्कर है। उत्तर प्रदेश फैजाबाद जिले के 50 आईटीआई संस्थानों में किसी में भी न तो कक्षाएं हैं, न ही लेथ मशीन अथवा कम्प्यूटर। केवल एक दफ्तर खोलकर पंजीकरण होता है और प्रमाण पत्र बेचे जाते हैंं। इन फर्जी धंधा करने वालों को असली आईटीआई से खतरा दिखने लगता है। ऐसा ही अनुभव पुणे की एक संस्था का रहा है। इस संस्था ने युवाओं को विशुद्ध प्रशिक्षण देने का संकल्प लिया। छात्र-छात्राओं को स्पष्ट बता दिया गया कि न कोई पमाण पत्र मिलेगा और न ही कोई डिग्री। छात्रों को आधे से अधिक समय उद्योगों में प्रशिक्षण के लिये भेज दिया गया। देखने में आया कि अधिकतर छात्रों को पाठ्यक्रम पूरा होने के पहले ही नौकरी मिल जाती, क्योंकि वे मशीनों के जानकार हो चुके होते थे। ‘प्रमाण पत्र उद्योग’ को यह प्रयोग स्वीकार न हुआ। उन्होंने अदालत में वाद खड़ा किया कि वह संस्था बिना पंजीकरण कराये फर्जी प्रशिक्षण दे रही है। संस्था के सामने संकट पैदा हो गया। बताया गया कि सरकार द्वारा किसी प्रशिक्षण के 6 घंटा प्रतिदिन के पाठ्यक्रम के लिये सरकार से 75,000 का अनुदान दिया गया था। इस पूरी रकम को ‘प्रमाण पत्र उद्योग’ ने हजम कर लिया। केवल रजिस्टर में छात्र और अध्यापक उपस्थित हुये। दरअसल समस्या तंत्र में है। छात्रों को सरकारी नौकरी के लिये केवल प्रमाण पत्र चाहिये, असली-फर्जी से उनको कुछ लेना-देना नहीं है। ‘प्रमाण पत्र उद्योग’ को भी प्रशिक्षण में रुचि नहीं है। उनका अन्तिम उद्देश्य रकम को हजम करना मात्र है। मध्यधारा विद्वानों का सुझाव है कि उपलब्ध तथा आवश्यक कौशल में तालमेल नहीं है। दूसरा सुझाव है कि सरकार के 73 विभागों के द्वारा दिए जा रहे प्रशिक्षण के बीच समन्वय किया जायेगा। अच्छी बात है। परन्तु पहले असली प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करनी चाहिये तब समन्वय की। विद्वानों का तीसरा सुझाव है कि उद्योगों को प्रलोभन देना चाहिये कि वे युवाओं को प्रशिक्षण दें। देश को आगे ले जाने के लिये कौशल विकास नितांत आवश्यक है। पर इसमें सबसे बड़ी बाधा नौकरशाही है। सरकारी कर्मियों के ऊंचे वेतन और ‘ऊपरी आमदनी’ से प्रभावित होकर युवाओें की लालसा मात्र सरकारी नौकरी हासिल करने की है। वे नहीं चाहते कि कौशल हासिल करके स्वरोजगार करें। इसी नौकरशाही द्वारा दलाली खाकर फर्जी प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैंं। अत: युवाओं के रुझान को बदलने के लिये पहली जरूरत है कि सरकारी कर्मियों के वेतन को सही से आंका जाए, बाहरी ‘आॅडिट’ कराए जाएं ताकि फर्जीवाड़े पर नियंत्रण हो। दूसरे, प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की 25 प्रतिशत रकम प्रशिक्षण के दौरान दी जाये। शेष 75 प्रतिशत छात्रों को नौकरी मिलने के बाद दी जाये। ऐसा करने से आईटीआई के लिये प्रशिक्षण देना लाभप्रद हो जायेगा। तीसरा कदम है कि हाईस्कूल के पाठ्यक्रम में ‘वोकेशनल ट्रेनिंग’ का हिस्सा बढ़ा दिया जाये। चौथा, आईटीआई द्वारा दिए जा रहे प्रशिक्षण में तिहाई प्रयोग आधारित, तिहाई बाहरी तथा तिहाई लिखित कर दिया जाये। वर्तमान में 98 प्रतिशत लिखित और दो प्रतिशत प्रशिक्षण है। दूसरे देशों में प्रशिक्षण का हिस्सा 60-90 प्रतिशत रहता है। कौशल विकास मंत्रालय को इन मूल समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये। डा. भरत झुनझुनवाला
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