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छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में महाराष्ट्र में हिन्दू साम्राज्य का उदय लगभग उसी प्रकार का चमत्कार था जैसे सैकड़ों वर्ष पश्चात इस्रायल नामक देश का उदय होना। शिवाजी हिन्दू समाज के उद्धारक के रूप में प्रकट हुए तथा इस आत्मविस्मृत हिन्दू राष्ट्र को अपनी विलक्षण प्रतिभा, अद्भुत संगठन कला तथा पराक्रम से पुन: जगाया। महाकवि भूषण ने उन्हें हिन्दू जाति का रक्षक कहा तथा समकालीन उनके मंत्री रामचन्द्र नीलकंठ ने शिवाजी को साहस तथा पराक्रम की प्रतिमूर्ति कहा। विश्वविख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने लिखा, 'मराठा जाति अपने उदय से पूर्व छोटे-छोटे अणुओं की भांति दक्षिणी रियासतों में बंटी हुई थी, उसने उन्हें एक मजबूत राष्ट्र में बांध दिया… किसी अन्य हिन्दू ने आधुनिक युग में इतनी प्रतिभा का परिचय न दिया था (शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स, पृ. 405) वीर सावरकर ने शिवाजी का उद्देश्य हिन्दू पद पादशाही की स्थापना बतलाया है (देखें, सावरकर की पुस्तक, हिन्दू पद पादशाही, पृ.7-8) महात्मा गांधी ने 1919-17 के अपने लेखों में नाराजगी जताई थी कि हमारे देश के लोग शिवाजी के बारे में अनजान हैं। महाराष्ट्र में महाराज शिवाजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति का उदय एक आश्चर्यजनक घटना थी किन्तु यह कोई आकस्मिक घटना न थी। अंग्रेजों के प्रथम प्रसिद्ध इतिहासकार ग्रांट उफ ने इसे सह्याद्रि पर्वत के वनों से एकाएक प्रकट होने वाली अग्नि की तरह माना है जो कहना पूर्णत: गलत है (देखें, महादेव गोविन्द रानाडे, राईज आफ द मराठा पावर, पृ. 8) वास्तव में इस शक्ति के निर्माण में सैकड़ों वर्षों का धार्मिक तथा सांस्कृतिक जागरण था जिसके परिणामस्वरूप, 1674 ई. में शिवाजी ने हिन्द स्वराज्य की स्थापना की थी।
जीवन दर्शन
शिवाजी का जन्म 1627 ई. में पूना के प्रसिद्ध शिवनेरी किले में हुआ था। किले की अधिष्ठात्री देवी के नाम पर इनका नाम शिवा रखा गया। देशभक्ति तथा राष्ट्र प्रेम उन्हें अपनी माता जीजाबाई से घुट्टी में ही मिला था। पिता शाहजी भोंसले ने उनको बचपन में ही स्वराज्य स्थापना की मूल प्रेरणा दी थी, दादा कोणदेव उनके संरक्षक तथा शिक्षक, संत तुकाराम उनके आध्यात्मिक प्रेरक तथा प्रसिद्ध दासबोध के लेखक समर्थ गुरु रामदास उनके मार्गदर्शक थे। शिवाजी का संपूर्ण जीवन ही एक वीर काव्य की भांति अनेक विजय गाथाओं, प्रेरक प्रसंगों तथा विस्मयकारी घटनाओं से परिपूर्ण है। इस संदर्भ में केवल उनमें से केवल कुछ नामों का स्मरण ही उपयुक्त होगा। शिवाजी की महाराष्ट्र के बाहर पहली यात्रा बेंगलुरू की हुई थी जो बीजापुर के शासक अली आदिलशाह का मुख्य स्थान था। वे 1640-42 तक वहां रहे थे जहां उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से हिन्दुओं की दुर्दशा को देखा था।
शिवाजी ने बीजापुर के सुल्तान की विलासिता, कामुकता, जबरन कन्वर्जन तथा नरसंहार के बारे में पहले से सुना था। वे उससे प्रत्यक्ष मिलने के लिए पहली बार अपने पिता शाह जी के साथ गए थे। परंतु उन्होंने बीजापुर के दरबार में भूमि पर माथ टेककर प्रणाम नहीं किया था। मोटे रूप से यह भारत के किसी भी मुस्लिम शासक को उनकी पहली चुनौती थी। उन्होंने बेंगलुरू में ही एक मुस्लिम कसाई द्वारा गाय की हत्या देखी थी। उन्होंने बाजार में ही उसका वध कर दिया। वापस पूना लौटने पर दादा कोणदेव ने उन्हें शिक्षा दी। जागीर की देखभाल करते हुए उन्होंने आसपास की 12 मावल घाटियों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। घाटियों का निर्माण करते समय ही उन्होंने स्वराज्य स्थापना का प्रयास किया। निकट ही राजकेश्वर महादेव मंदिर में अपने अनेक साथियों के साथ देश-धर्म के लिए तन-मन-धन से पूर्ण समर्पण करने की प्रतिज्ञा ली। यह घटना 1645 ई. की है।
और तभी से उनका लंबा संघर्षमय विजय अभियान प्रारंभ हुआ था। उल्लेखनीय है कि उस समय भारत में आठ प्रमुख राजनीतिक शक्तियां थीं। संपूर्ण उत्तर भारत में मुगल शासक दक्षिण भारत में बीजापुर की आदिलशाही, गोलकुण्डा की कुतुबशाही तथा जंगीरा का सिद्धी प्रमुख शक्तियां थीं। इसी भांति चार यूरोपीय शक्तियां- पुर्तगाली, अंग्रेज, डच तथा फ्रांसीसी- भी भारत में अपने पांव पसार चुकी थीं। इतनी बड़ी शक्तियों से अकेले टकराकर स्वराज्य की स्थापना का विचार भारत क्या, विश्व की किसी भी शक्ति के लिए सरल न था। 19 वर्ष की आयु में शिवाजी ने विजय अभियान प्रारंभ किया। पहले उन्होंने बीजापुर के आसपास के सभी प्रमुख किलों कोण्डाना, पुरंदर, चाकन तथा सूपा आदि को जीता, साथ ही प्रतापगढ़ जैसे किलों का निर्माण किया। स्वाभाविक है कि इससे बीजापुर के आदिलशाह की नींद हराम हो गई। शिवाजी के विरुद्ध जो भी जाता उसकी मौत का ही समाचार आता था। आखिर में बीजापुर के सेनापति अफजल खां को अनेक लालच देकर शिवाजी का वध करने को भेजा गया था। इसका अनेक इतिहासकारों ने विस्तार से वर्णन किया है। अफजल खां भी पूरी तैयारी से गया था। प्रतापगढ़ के नीचे अफजल खां का वध एक विश्वव्यापी महत्व की घटना थी। (देखें, श्रीगुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड छह, पृ. 77) अभी तक शिवाजी का नाम भारत के कुछ लोग ही जानते थे किन्तु इस घटना से उनका नाम अंतरराष्ट्रीय जगत में फैल गया। उनकी गणना विश्व के श्रेष्ठ सेनापतियों से की जाने लगी। इतिहासकार सर7देसाई ने शिवाजी द्वारा आत्मरक्षा के लिए अफजल खां के वध को पूर्णत: उचित बतलाया है। उसके अनुसार शिवाजी यदि नि:शस्त्र होकर अफजल से भेंट करते तो यह मूर्खता की पराकाष्ठा होती। (मराठों का नवीन इतिहास, पृ. 156) बीजापुर के बाद बारी आई क्रूर तथा अत्याचारी मुगल बादशाह औरंगजेब की। औरंगजेब ने शिवाजी के विरुद्ध अनेक अभियान चलाए, षड्यंत्र किए पर सभी असफल रहे। मामा शाइस्ता खां को भेजा, पूना जीता पर उसे अपनी अंगुलियां कटवाकर भागना पड़ा। मिर्जा राजा जयसिंह को भेजा, पुरंदर जीता, सन्धि की तथा शिवाजी को आगरा भी ले आया। शिवाजी अपनी योजना से उत्तर भारत की स्थिति का प्रत्यक्ष अवलोकन करना चाहते थे। दो महीने बाद अपनी योजना से वापस महाराष्ट्र भी लौटे थे, बाद में गोलकुण्डा के कुतुबशाह ने हैदराबाद में शिवाजी का स्वागत ही नहीं किया, बल्कि उनके घोड़े को भी हीरों का हार पहनाया था। सभी यूरोपी शक्तियां उनसे भयभीत हो गई थीं। मुस्लिम तथा यूरोपीय इतिहासकारों ने इनमें से अनेक घटनाओं को तोड़-मोड़ कर मनमाना वर्णन भी किया है। संक्षिप्त में शिवाजी के राष्ट्रव्यापी विजय अभियानों ने औरंगजेब तथा अन्य सभी शक्तियों को विचलित कर दिया था। वास्तव में हर समय घोड़े की पीठ पर रहने वाले शिवाजी तथा पालकी में बैठकर युद्ध में जाने वाले औरंगजेब की कोई तुलना नहीं की जा सकता।
राज्याभिषेक
1674 ई. में शिवाजी का राज्याभिषेकोत्सव 17वीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की सबसे महान, अभूतपूर्व तथा सर्वाधिक प्रभावी घटना थी। इस अपूर्व घटना से शाह जी के स्वराज्य स्थापना के स्वप्न, मां जीजाबाई की आकांक्षा, गुरु समर्थ रामदास की इच्छा तथा शिवाजी के अदम्य प्रयास को सफलता मिली। इतिहासकार सरदेसाई के अनुसार शिवाजी का यह अपूर्व प्रयोग जनसाधारण का ध्यान आकृष्ट करने और भारतीय ढंग से अपने आदर्श की पुष्टि करने के लिए सर्वोत्तम उपाय था (मराठों का नवीन इतिहास, पृ. 255-56) उन्होंने धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना की तथा इसे छत्रपति की उपाधि से विभूषित किया। अब दिल्ली की बजाय रायगढ़ को श्रद्धा का केन्द्र बनाया। केन्द्र के अभाव में बड़े-बड़े लोग भी उस समय दिल्लीश्वरों को जगदीश्वर मानते थे। उन्होंने भारतीय पद्धति से अपने राज्याभिषेक के लिए काशी से गागाभट जैसे विद्वान को बुलाया। राज्याभिषेक पर सभी दुर्गों से निश्चित समय पर तोपें दागी गईं। वास्तव में ये हिन्द स्वराज्य के जन्म की घोषणा कर रही थी। अष्ट प्रधानों की नियुक्तियां की गईं। फारसी नामों की जगह संस्कृत नामों से सुशोभित किया। राज्याभिषेक शक संवत् चलाया। उन्हें अनेक भेंटें दी गईं। अंग्रेज दूत हेनरी आक्सिडेन ने शिवाजी के सम्मुख सिर झुकाकर अनेक उपहार भेंट किए। वैभव का प्रतीक जरी पटका व राष्ट्रीय झण्डा भगवाध्वज लहराया गया। शोभा यात्रा निकली। मुगलों के विपरीत, योग्यता के आधार पर हिन्दुओं तथा मुसलमानों को उच्च सेवाओं में स्थान दिया। उदाहरण के लिए उनके नवसेनानायक दौलत खां व सिद्धी मसरीरी थे। गो, ब्राह्मण, महिलाओं तथा धर्म गं्रथों को, चाहे किसी पंथ के हों, पूर्ण सम्मान दिया।
विदेशी लेखक
शिवाजी के अभूतपूर्व सफल सैनिक अभियानों तथा हिन्द स्वराज्य की स्थापना की सफल योजना तत्कालीन क्रूर तथा विदेशी शासकों के विरुद्ध स्वतंत्रता का सफल आंदोलन थी। प्राप्त साहित्य से उनके शिवाजी के विरुद्ध क्रिया-कलापों की मानसिकता का प्रकटीकरण होता है। शिवाजी के जीवन काल में तथा अगली शताब्दी में शिवाजी पर अनेक ग्रंथ लिखे गये। ये ग्रंथ शिवाजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हैं, साथ ही विदेशियों में व्याप्त भय तथा चिंता को भी व्यक्त करते हैं।
1695 ई. में अर्थात शिवाजी की मृत्यु के 15 वर्ष पश्चात पुर्तगाली भाषा में शिवाजी पर एक ग्रंथ- श्र्रिू ंूूङ्मील्ल२ ाीेङ्म-ंू-ाी'्रू्र२२्र५ी २ं५ंॅ८- लिखा गया। यह पुस्तक 168 पृष्ठों की है। पुस्तक अधिकतर तथ्यात्मक नहीं है। भारत स्थित पुर्तगाली बस्तियों के एक प्रमुख व्यक्ति सेनोर द गार्दा ने शिवाजी के साहसिक कायार्ें का वर्णन इस प्रकार किया, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया कि शिवाजी अपनी जगह पर किसी दूसरे व्यक्ति को बैठा देते हैं या वह जादूगर है या कोई राक्षस? लिस्बन स्थित पुर्तगाली अभिलेखागार में शिवाजी पर कोई भी सरकारी परिपत्र नहीं है।
शिवाजी के काल तक अंग्रेजों ने कंपनी की ओर से कई स्थानों पर अपनी व्यापारिक कोठियां स्थापित कर ली थीं। शिवाजी का अंग्रेजों से पहला परिचय 1667 ई. में आया था। तभी से शिवाजी ने उनको पाठ सिखाना प्रारंभ कर दिया था। कभी कैद कर, कभी लूटमार कर। समय-समय पर अंग्रेज उन्हें अनेक बहुमूल्य वस्त्र, तलवारें आदि भेंट कर उनकी कृपा प्राप्त करने के इच्छुक रहते थे। 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में शिवाजी पर किसी अंग्रेज द्वारा महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना नहीं हुई थी, परंतु उस काल के कंपनी रिकार्डों से शिवाजी के जीवन पर बहुत प्रकाश पड़ता है। इतिहासकार यदुनाथ सरकार सरदेसाई तथा नरसिंह चिंतामणि केलकर आदि विद्वानों ने इस पर काफी खोज की। 1663 ई. में शाइस्ता खां के पूना से भागने पर एक अंग्रेज प्रतिनिधि ने लिखा, 'ऐसी खबर मिली है कि शिवाजी हवा में उड़ता रहता है और उसके पंख भी हैं। अन्यथा उसके लिए असंभव है कि एक समय में वह कई स्थानों पर मौजूद रहे। उसके अनोखे करतबों के कारण उसकी चर्चा समाज के हर क्षेत्र में हुआ करती है।' 1664 ई. में सूरत के एक अंग्रेज एन्थोनी स्मिथ ने, जो तीन दिन शिवाजी की कैद में रहा, शिवाजी के व्यक्तित्व का बहुत सुन्दर वर्णन किया। सूरत के एक अन्य अंग्रेज व्यापारी ने लिखा, 'शिवाजी सच्चा मित्र है, श्रेष्ठ शत्रु है और अत्यंत चतुर राजा है।'
1680 ई. में शिवाजी के देहावसान पर मुम्बई के व्यापारी कंपनी के अध्यक्ष ने कोलकाता के अध्यक्ष को लिखा, 'शिवाजी इतनी बार मर चुका है कि उसके मरने का विश्वास ही नहीं होता, उसे लोग अमर ही समझते हैं। उसके मरने के समाचार पर विश्वास न होने का कारण यह है कि उसे जहां-तहां विजय ही मिली। अब हम उसे मरा हुआ तब समझेंगे, जब तक कि उसके समान साहसपूर्ण काम करने वाला मराठों में कोई नहीं होगा और हमें मराठों के पंजों से छुटकारा मिलेगा।' चिन्सुरा के डचों द्वारा शिवाजी का कोई वर्णन नहीं मिलता। परंतु इटालियन तथा फ्रांसीसी यात्रियों के वर्णन शिवाजी के जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। मनूची नामक एक इटालियन ने अपने संस्मरणों में शिवाजी का वर्णन किया है। 1670 ई. में फ्रांसीसी यात्री बरनियर ने, जो 1656-68 तक भारत में रहा, अपनी पुस्तक में 1664 ई. की सूरत की लूट तथा शिवाजी के बीजापुर तथा अंग्रेजों के साथ संबंध की विशेष वर्णन किया है। 1676 ई. में एक पादरी टेवरनियर ने अपने यात्रा वर्णन में शिवाजी के पिता शाहजी की बीजापुर दरबार में स्थिति तथा शिवाजी के बीजापुर के साथ संबंधों का सटीक वर्णन किया है। शिवाजी के बारे में फ्रांसीसी मार्टिन ने उनके कर्नाटक अभियान के बारे में, उनकी सादगी के बारे में लिखा-शिवाजी के शिविर में कोई सजावट नहीं है, न ही कोई समान है। केवल दो तंबू हैं जो बहुत साधारण तथा छोटे हैं, जिनमें एक शिवाजी के लिए तथा दूसरा पेशवा के लिए है।'
विकृत सोच
जहां एक ओर भारत तथा उसके उच्चकोटि के लेखकों ने शिवाजी को विभिन्न गुणों से विभूषित किया है, उन्हें अद्वितीय सैनिक, प्रतिभा से युक्त, उच्चकोटि का शासन प्रबंधक, हिन्दू धर्म का प्राण, महान कूटनीतिज्ञ, रचनात्मक, प्रतिभाशाली आदि कहा है, वहीं कुछ राजनीति प्रेरित मुस्लिम लेखकों तथा यूरोपीय लेखकों ने उनके प्रति विकृत टिप्पणियां भी की हैं। वी.ए. स्मिथ ने शिवाजी को 'डाकू' और उनके राज्य को 'डाकू राज्य' कहा। ग्रांट डफ ने शिवाजी को 'विश्वासघाती' कहा। स्वयं औरंगजेब ने परेशान होकर उन्हें 'पहाड़ी चूहा' तथा खफी खां ने उन्हें 'शैतान का पुत्र' 'धोखेबाज का बाप', 'धूर्त' तथा 'लुटेरा' कहा। वर्तमान काल में भी भारतीय कम्युनिस्टों तथा छद्म सेकुलरवादियों ने जहां मुगल शासन को 'आदर्श राज्य' मुगल शासकों को 'महान' तथा उनके राज्य को 'राष्ट्रीय शासन' बतलाया, औरंगजेब को 'जिंदा पीर' कहा, वहीं वीर शिवाजी के जीवन का विकृत, वीभत्स तथा अप्रमाणिक रूप से वर्णन किया है। भारत के संपूर्ण इतिहास में अपने को शिवाजी जैसा बनाने की आतुरता दिखी है। असम के लाचित बड़फूकन तथा महाराष्ट्र के वासुदेव बलवन्त फडके को दूसरा शिवाजी कहकर सम्मान प्रदर्शित किया जाता है वहीं स्वतंत्र भारत में एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में महाराणा प्रताप की भांति शिवाजी का नाम पुस्तकों से निकाल दिया गया। कक्षा छह से बारहवीं कक्षा तक की पुस्तकों में उन पर केवल डेढ़ लाइन दी गई है। आखिर इतिहास से खिलवाड़ की भी कोई सीमा होती है।
प्रासंगिकता
दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद पाश्चात्य मॉडल पर बनी भारत की शासन व्यवस्था से न 'स्व' की स्थापना हुई, न ही इसका बोध हुआ। न गांधीजी का रामराज्य बना, न लोकमान्य तिलक का स्वराज्य और न ही सुभाष के स्वप्नों का भारत बना। 'इंडिया दैट इज भारत' बना। उनका बस चलता तो वे इसे 'इंडिया दैट इज मुस्लिम' बना देते। परंतु यह भी कटु सत्य है कि शिवाजी की हिन्द स्वराज्य की कल्पना तथा उत्तम शासक व्यवस्था समूचे राष्ट्र के लिए अब भी पथ-प्रदर्शक हो सकती है। शिवाजी का हिन्द स्वराज्य का स्वरूप प्रांतीय, महाराष्ट्रीय, जातीय या परिवारवाद पर आधारित न था। यह पूर्णत: सर्वपंथ समभाव पर आधारित था। यह समूचे भारत के लिए था। सही न्याय, योग्यता तथा अवसर की समानता पर टिका था। विभिन्न वगार्ें के लोगों को उच्च पद दिये गये थे। युद्ध अभियानों के दौरान रास्ते में आई मस्जिदों, कब्रों तथा पवित्र ग्रंथों को पूरा सम्मान दिया जाता था। मुस्लिम संतों का सम्मान था। विरोधी पक्ष महिलाओं को पूर्णत: सम्मान से वापस भेजा गया था। सही अर्थों में उनके हिन्द स्वराज्य में समानता, स्वतंत्रता, भातृत्व तथा पूरी धार्मिक स्वतंत्रता थी। न भ्रष्टाचार था, न चापलूसी और न ही किसी का तुष्टीकरण। नि:संदेह आज भी शिवाजी के हिन्द स्वराज्य का स्वरूप भारतीयों के लिए मार्गदर्शक तथा आदर्श बन सकता है। -डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल
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