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भारत में शिक्षा के उद्देश्य या इससे जुड़ी नीतियों का जिक्र भानुमति का पिटारा खोलने जैसी बात है। इसपर महीना भी जून का हो तो कहना ही क्या! कॉलेज दाखिले की दौड़ में आधा-आधा प्रतिशत के अंतराल से हांफते या चैन की सांस लेते, मुरझाते या दमकते चेहरों के बीच शिक्षा की बात! हैरानी यह कि मीडिया में तात्कालिक रूप से शिक्षा मुद्दा तो बनती है लेकिन सारी चिंता और समस्त समाचार सिर्फ कुछ शीर्षकों में सिमट कर रह जाते हैं।
सीबीएसई परिणाम आने के बाद पिछले कई वर्ष से जो एक शीर्षक सब समाचार चैनल और अखबारों में सबसे पहले लहराता है वह है- लड़कियों ने फिर बाजी मारी। ठीक है, बेटियां आगे बढ़ रही हैं। शाबासी बनती है, लेकिन शिक्षा को एक घुड़दौड़ की तरह देखने वाली समझ, और लगी-बंधी 'मीडिया कवरेज' का दायरा क्या नहीं बढ़ना चाहिए? शिक्षा लिंग-भेद का अखाड़ा है या श्रम और निष्ठा का पहाड़ा!
परिणाम की उपरोक्त पहली खबर के बाद आती हैं देश, राज्य, जिले, शहर के 'डपर' छात्रों की खबरें। मेधावी छात्रों को बधाई बनती है, लेकिन प्रतिशत के पहाड़ लांघने को सफलता का पैमाना बताना क्या आधे-पौने या भले ही ज्यादा अंतर से पिछड़ गए छात्रों के साथ अन्याय नहीं है? क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली के बारे में कोई भी यह बात पुख्ता तौर पर कह सकता है कि अंकतालिका व्यक्ति की योग्यता का दर्पण हो सकती है!
इसके बाद आती हैं तीसरी तरह की चर्चाएं और सलाहात्मक आलेख, 'फेल ही तो हुए हैं, निराश न हों।' खास बात यह कि वर्ष भर जिस और जैसी शिक्षा व्यवस्था के अवरोधक छलांगने के लिए छात्रों को पुचकार-फटकार या उलाहनों के घेरे में लिया जाता है सालभर बाद नाकामी से छटपटाते बच्चे के विद्रोही हो उठने या भीतर तक टूट जाने की आशंका से सहमी सोच अधूरे-अधकचरे दिलासे के तौर पर सामने आती है। जिसे सुबकते बच्चों द्वारा आमतौर पर परे झटक दिया जाता है। ऐसे में कुछ सवाल मन में आते हैं। क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी से न्याय कर रहे हैं? क्या हम शिक्षा से न्याय कर रहे हैं? क्या हम उन परंपराओं और संस्कारों से न्याय कर रहे हैं जिन्हें पोसने-सहेजने में हमारे पुरखों ने पूरा जीवन लगा दिया?
शिक्षा के मुद्दे पर पुरखों और परंपराओं की बात कई लोगों को बुरी लग सकती है। लेकिन ठहरिए, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि कंदमूल खाते हुए गुरुकुल में ली गई शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए और कम्प्यूटर व अंग्रेजी को प्रतिबंधित कर देना चाहिए। दरअसल, यह वैयक्तिक और सामाजिक विकास के उस सपने और सूत्रों की बात है जिसके लिए हमारे मनीषियों-महापुरुषों ने जतन किए। गहन-मंथन के बाद कुछ व्याख्या और दर्शन इस समाज के सामने रखे और जो विचार आज पूरे विश्व के मार्गदर्शक हो सकते हैं।
हर पुरानी चीज कबाड़ हो और हर नई चीज ज्यादा उपयोगी हो जरूरी नहीं। शिक्षा की वर्तमान प्रणाली की समीक्षा के लिए यह कथन सटीक हो सकता है। बच्चों में हम भविष्य देखते हैं लेकिन जिस प्रणाली में उपनिवेशवादी शक्तियों ने अपना भविष्य देखा क्या वह राह हमारे बच्चों, हमारे परिवार इस समाज और देश के भले से जुड़ती है? जिस प्रणाली में सीखने की जगह रटने, समझने की जगह सिर हिलाने, नया करने की बजाय लीक पर चलने के सबक हों वह शिक्षा इन बच्चों को भविष्य का सारथी बनाएगी या व्यवस्था का दास?
शिक्षा का भारतीय दर्शन इसे एक अलग ऊंचाई देने की सोच है। ऐसी सोच जहां शिक्षा का व्याप बढ़ता है, वह ज्ञान हो जाती है। समाज के लिए सीख हो जाती है। ज्ञानदीप जब जलता है तो व्यक्ति ही नहीं चमकता बल्कि उससे समाज को एक दिशा और रोशनी मिलती है। शिक्षा स्वार्थ की बजाए परोपकार का आध्यात्मिक आकाश छू लेती है। ड़ॉ. अनंत सदाशिव अल्टेकर की इस बात से कितने लोग असहमत होंगे कि भारत की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परम्परा विश्व में प्राचीनतम है। उनके अनुसार वैदिक युग से अब तक भारतवासियों के लिए शिक्षा का मतलब यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है और जीवन के विभिन्न कायोंर् में यह हमें राह दिखाती है।
सो, आज जून की तपती सुनहरी-दोपहरी में बात करते हैं शिक्षा के भारतीय दर्शन को चरितार्थ करते कुछ ऐसे व्यक्तियों व संस्थाओं की जिन्होंने इसी प्रणाली और इन्ही परिस्थितियों में ज्ञान के वास्तविक उद्देश्य को समझा है, संजोया है। इन संस्थाओं और व्यक्तियों के सबक अनूठे हैं और अज्ञान-असमंजस की मझधार में डोलते मनों को नई राह दिखा सकते हैं।
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