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प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा के परिणामों को लेकर हमारे यहां रहने वाले यानी दिल्ली में बसे चीनी भी बहुत उत्साहित हैं। हमारे यहां रहने वाले चीनियों से मतलब उन चीनी मूल के भारतीय नागरिकों से जो भारत में बस चुके हैं। जो हमारी-आपकी तरह से ही हैं। हां, उनके पुरखे 100-125 साल पहले भारत आ गए थे। ये मानते हैं कि दोनों देशों को आपसी सहयोग और सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने होंगे। चीन को भारत की 1962 की जंग में हड़पी जमीन वापस करनी चाहिए। इससे दोनों के संबंधों और मजबूती आएगी।
आमतौर पर चीनियों के लिए कहा जाता है कि ये जिधर भी जाते हैं, वहां पर 'चाइना टाउन' बना-बसा लेते हैं। हालांकि कोलकाता की तरह से दिल्ली में कोई चाइना टाउन नहीं है। हां,दिल्ली में चीनी मूल के नागरिकों की आबादी करीब 5 हजार है। इनकी कनॉट प्लेस से लेकर जोरबाग जैसे खास इलाकों में जनरल स्टोर की दुकानें हैं। कुछ चीनी यहां पर दांतों के अस्पताल भी चला रहे हैं।
पिछली सदी के शुरुआती दौर में चीनियों का पहला जत्था कोलकाता से लगभग 65 किलोमीटर दूर डायमंड हार्बर के पार उतरा था। उसके बाद रोजगार की तलाश में धीरे-धीरे और लोग कोलकाता आए और फिर देश के दूसरे भागों में भी गए। कनॉट प्लेस में एक जूते के 'शो-रूम' के मालिक चीनी मूल के जार्ज च्यू कहते हैं, दिल्ली में सबसे पहले डॉक्टर चेन नाम के एक चीनी दांतों के डॉक्टर ने अपना अस्पताल पहाड़गंज के प्रमुख बाजार में खोला था। उनके पुत्र डॉ़ चेन नाम से अब भी उसे चला रहे हैं।
डा़ॅ चेन पहाड़गंज का बेहद जाना पहचाना नाम हैं। उनके डेंटल क्लीनिक का रास्ता आपको कोई भी बता सकता है। वे फख्र के साथ कहते हैं कि वे 100 फीसद भारतीय हैं। उनके भाई का डेंटल क्लीनिक दक्षिणी दिल्ली में है। चीनियों का कहना है कि उनके लिए भारत उसी तरह से है, जैसे किसी अन्य भारतीय के लिए। हां, पर ये सच है कि हम चीन से संबंध तो रखते हैं। वे बताते, हमें यहां पर किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है। भारत में कभी हमारे साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ। हालांकि 1962 में चीन के साथ जंग के दौरान चीनियों पर नजर रखी जा रही थी।
दिल्ली में चीनी दक्षिणी दिल्ली और नोएडा में रहते हैं। ये सभी भारत के नागरिक हैं। एक जमाने में एस.एस.ली नाम का चीनी मूल का खिलाड़ी तो दिल्ली की रणजी ट्राफी क्रिकेट टीम में था। दिल्ली आईआईटी के पूर्व छात्र एडवर्ड कहते हैं, हम तो अब हिन्दी और पंजाबी भी बोलते हैं। पर अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचाए रखना जरूरी है। इसके बिना तो हमारा वजूद ही खत्म हो जाएगा। उन्होंने बताया कि उनके दादा 1920 में दिल्ली में आए थे। मेरे पिताजी की शादी भी यहीं हुई। एडवर्ड की शादी चीन की एक कन्या से हुई है। वे साफ कहते हैं कि मैं तो पूरी तरह से भारतीय हूं।
एडवर्ड मानते हैं कि दोनों मुल्कों को पड़ोसी की तरह से प्रेम के साथ रहना चाहिए। हालांकि वे यह भी बताते हैं, चीन में कहा जाता है कि पड़ोसियों में कभी भाईचारा नहीं हो सकता।
नई दिल्ली का कनॉट प्लेस गुलजार है। फिजाओं में बेफिक्री और आनंद को महसूस कर सकते हैं। जार्ज च्यू, 64, अपने शो-रूम में बैठकर अखबारों की सुर्खियों पर भी नजर डालते हैं। घर में भी अखबार पढ़कर आए थे। जार्ज च्यू कहते हैं कि भारत-चीन को अपने व्यापारिक संबंधों को और गति देनी होगी। चीन को भारत से अपने सीमा विवाद को हल करना चाहिए। हालांकि उन्होंने ये नहीं बताया कि उन्होंने बीते लोकसभा चुनाव में किस पार्टी को वोट दिया। उन्हें इस बात का गिला भी नहीं है कि वे या उनका चीनी समाज वोट बैंक नहीं माना-समझा जाता। उनसे कोई नेता या राजनीतिक दल वोट भी नहीं मांगता। च्यू दूसरी पीढ़ी के भारतीय मूल के चीनी हैं। उनके पिता 1930 के आसपास चीन के कैंटोन प्रांत से स्टीमर से कोलकाता पहुंचे थे। उसके बाद दिल्ली आ गए। उन्होंने यहां पर जूते का
शो-रूम खोला।
जार्ज बताते हैं कि वे मूलत: और अंतत: गैर-राजनीतिक इंसान हैं। अपने कारोबार से ही जुड़े रहते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत में बस गए चीनी मूल के लोग अब खुद को भारतीय ही मानते हैं। हां, चीनी युवकों के अपनी भाषा भूलने के खुलासे ने यहां चीनी आबादी के वजूद पर ही संकट खड़ा कर दिया है। जार्ज च्यू कहते हैं कि यहां चीनी समुदाय अजीब त्रासदी का शिकार है। वह सवाल करते हैं कि यह कैसी विडंबना है कि 70 फीसदी लोग अपनी मातृभाषा लिख या पढ़ नहीं सकते हैं। हां, बोल जरूर लेते हैं।
बहरहाल, भारतीय चीनियों को अब अपने को भारतीय होने पर फख्र होता है। उनके भी वे ही मसले हैं, जो बाकी के हैं। जहां तक भारत-चीन संबंधों का सवाल है, तो वे कहते हैं कि चीन को दोस्ती का हाथ बढ़ाना होगा। उसे भारत के साथ सीमा विवाद को ईमानदारी से सुलझाना होगा। – विवेक शुक्ला
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