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आवरण कथा – श्रृंगार उकेरते हुए भी संस्कार में डूबी लेखनी
'कुरुक्षेत्र' और 'रश्मिरथी' लिखने वाले महाकवि के बारे में यह बात तो थोड़ा इतमीनान से कही ही जा सकती है कि बेशक दिनकर के कवि व्यक्तित्व का पलड़ा उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय काव्यकृति 'उर्वशी' की तरफ झुका हुआ हो, पर महाभारत का कथानक उनके लिए आकर्षण का खास केन्द्र रहा है। इसलिए थोड़ा हैरानी तो होती है यह देखकर कि दिनकर ने उर्वशी को पाण्डुपुत्र अर्जुन के साथ भी क्यों नहीं जोड़ा। पर हमारी परम्परा में कवि को ब्रह्मा और परिभू और स्वयंभू भी कहा गया है। थोड़ा यह भी जोड़ दिया गया है कि एक ब्रह्मदेव ही सदासर्वदा के लिए यथार्थ के सर्वश्रेष्ठ निर्माता हैं, इसलिए दिनकर ने यह क्यों नहीं किया, वह क्यों नहीं किया, ऐसे विराट कवि व्यक्तित्व से ऐसे सवाल पूछने की धृष्टता हम तो कर ही नहीं सकते।
'कुरुक्षेत्र' का कथानक धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अट्ठारह दिनों तक चले महाभारत संग्राम के बाद की मनोव्यथाओं और धर्म-संवेदनाओं को केन्द्र में रखकर रचा गया है। महाभारत के पाठकों के बीच इस बात की चर्चा प्राय: नहीं होती कि युद्ध समाप्त हो जाने के बाद, युद्ध में विजयश्री प्राप्त कर चुकने के बाद महाराज युधिष्ठर को वैराग्य हो गया था। युद्धजन्य विनाश और इसकी विभीषिका से युधिष्ठिर इस कदर हिल गये थे कि उन्होंने न केवल अपना राज्याभिषेक करवाने से मना कर दिया, बल्कि वीतरागी का, वनवासी जीवन का संकल्प जैसा कर लिया। कविवर दिनकर का काव्य 'कुरुक्षेत्र' प्रधानत: उसी घटनाचक्र पर आधारित है।
पर दो बातें स्पष्ट हैं। एक यह कि युधिष्ठिर के इस वैराग्य को काव्य में केन्द्रीय स्थान नहीं दिया गया और दूसरी बात यह है कि कवि दिनकर ने शरशय्या पर पड़े भीष्म और युधिष्ठिर के बीच कई दिनों तक चले संवाद को ही 'कुरुक्षेत्र' के कथानक का परिप्रेक्ष्य बनाया है। हालांकि दिनकर ने अपनी प्रास्ताविक भूमिका में इन दोनों ही परिस्थितियों का विशेष वर्णन नहीं किया है। यह फिर भी स्पष्ट है कि काव्य की आधारभूमि भीष्म-युधिष्ठिर के (कृष्ण प्रेरित) संवाद ने ही बनाई है।
पर 'कुरुक्षेत्र' में कवि दिनकर इस परिप्रेक्ष्य से कहीं, कहीं आगे चले गए हैं। उन्होंने हर मानव और हर मानव समाज को व्यथित करने वाले इस सवाल से काफी संघर्ष किया है कि क्या युद्ध ही हिंसा का या हिंसक मनोवृत्ति का अंतिम उत्तर है? क्या शांति में और सात्विकता में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं ढूंढे जा सकते? इन प्रश्नों के अगर इदमित्थं उत्तर होते तो भी यह शाश्वत संकट ही मनुष्य के मुंहबाए क्यों खड़े होते? दिनकर का प्रश्न है कि- 'हर युद्ध से पहले मनुष्य है सोचता, क्या शस्त्र ही उपचार एक अमोघ है? अन्याय का, अपकर्म का, विष का, गरलमय द्रोह का?
जाहिर है कि दिनकर को यह विकल्प अस्वीकार्य है-
'हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ, चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर से।' पर समाधान क्या है? कृष्ण तक के पास कोई समाधान नहीं। 'कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से।'
आत्मधात भी विकल्प नहीं है-
'करूं आत्मघात तो कलंक और घोर होगा, नगर को छोड़ अतएव बन जाऊंगा।'
पितामह पूछते हैं कि, समर निन्द्य है धर्मराज, पर कहो शांति क्या यह है? क्या पापी को, उसके अधर्म को क्षमा कर देना? पर इस विकल्प को तो हमारे इस महाकवि ने पहले ही शर्त में बांध दिया है-
'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।'
इसी तर्क-वितर्क से परास्त कवि अन्तत: वही करने को उद्यत होता है जिसके लिए हमारे देश के ऋषि, दार्शनिक उपदेश करते आए हैं- धर्माचरण। अपने काव्य के 'निवेदन' में महाकवि दिनकर ने स्पष्ट कहा कि, 'बात यों हुई कि पहले मुझे अशोक के निर्वेद ने आकर्षित किया और 'कलिंगविजय' नामक कविता लिखते-लिखते मुझे ऐसा लगा मानो, युद्ध की समस्या मनुष्य की सभी समस्याओं की जड़ है। अपने काव्य के पंचम सर्ग के अंत तक आते-आते कवि को समझ में मानो आ गया कि-
'यह राज-सिंहासन ही जड़ था इस युद्ध की, मैं अब जानता हूं।'
पर छठा सर्ग शुरू होते ही कवि ने स्थापित कर दिया कि- धर्म में ही सभी समस्याओं का समाधान है। पर-
'धर्म का दीपक, दया का दीप, कब जलेगा कब जलेगा, विश्व में भगवान?'
अब कवि की 'अथातो धर्म-जिज्ञासा' शुरू हुई। एक पूरा सर्ग समाजवाद सरीखी की विचारधारा पर टिकी मानव-मानव के बीच समानता के व्यवहार (समाजवाद/साम्यवाद) से धर्म स्थापना की उम्मीद संजोई गई। इसके साथ ही विज्ञान में संकट का हल तलाशने की कोशिश हुई- 'श्रेय वह विज्ञान का वरदान, हो सुलभ सबको सहज जिसका रूचिर अवदान।' पर अगले ही क्षण दिनकर का ऋषित्व अपना विराट रूप लेकर प्रकट हुआ और उन्होंने घोषणा कर दी, 'श्रेय होगा धर्म का आलोक' और अगले ही (अंतिम) सर्ग ने अपना कविमन सुना दिया, 'बंधे धर्म के बंधन में सब लोग जिया करते थे, एक दूसरे का दुख हंसकर बांट लिया करते थे' और इसलिए 'दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ श्रेय नहीं जीवन का, है सद्धर्म दीप्त रख उसको हरना तिमिर भुवन का।' और फिर कविवर दिनकर ने अपना निष्कर्ष सुना दिया, 'इस विविक्त, आहत वसुधा को अमृत पिलाना होगा।'
'कुरुक्षेत्र' की रचना कर चुकने के बाद दिनकर ने जब 'रश्मिरथी' रचा तो उन्होंने इस काव्यकर्म का उद्देश्य, कर्ण चरित पर लिखे गए इन शब्दों में साफ बयान भी कर दिया। दिनकर अपनी भूमिका में कहते हैं- 'यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है। अतएव यह बहुत ही स्वाभाविक है कि राष्ट्रभारती के जागरुक कवियों का ध्यान उस चरित्र की ओर जाए जो हजारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूक प्रतीक बनकर खड़ा है। स्वयं दिनकर के शब्दों में,
मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे।
पूछेगा जग किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे।
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा।
मन में लिए उमंग जिन्हें चिरकाल कलपना होगा।
बेशक महाभारत के अधिक खोजी स्वाध्याय के परिणामस्वरूप अब कर्ण के बारे में कुछ दूसरे निष्कर्ष भी सामने आए हैं। कर्ण को पिता का नाम शुरू से पता था, अधिरथ और इस बारे में कर्ण समेत किसी को कोई शक कभी नहीं रहा। कर्ण को कभी अपनी जाति के कारण कोई नुकसान नहीं हुआ। द्रौपदी ने अगर कर्ण के गले में वरमाला डालने से स्वयं को रोक दिया तो जाहिर है कि अपने स्वयंवर में द्रौपदी को वैसा करने का हक था, क्योंकि वह अर्जुन से प्रेम करने लगी थी (महाभारत, आदिपर्व, 186.23 )। द्यूतक्रीडा के समय कर्ण ने द्रौपदी को बंधकी यानी वेश्या तक कह दिया था (सभापर्व, 68.35)। जब भीष्म ने महाभारत युद्ध के रथियों, महारथियों, अतिरथियों के नाम गिनवाने शुरू किए तो भीष्म ने कर्ण को उसके सामने ही अर्द्धरथी कह दिया क्योंकि कर्ण हर वक्त खुद ही अपनी तारीफ के पुल बांधता रहता था (उद्योग पर्व, 168.3-9)। पर कर्ण के दिव्य गुणों का वर्णन करने में भी महाभारतकार ने कोई कंजूसी नहीं दिखाई। कर्ण जैसा महाज्ञानी दूसरा शायद ही कोई उस समय रहा था। कर्ण का शौर्य और धनुर्विद्या का बल इस हद तक शत्रुओं को आतंकित रखता था कि जैसे पाण्डवों ने कृष्ण और अर्जुन के दम पर युद्ध की घोषणा की, वैसे ही दुर्योधन ने भीष्म और कर्ण के दम पर ही युद्ध में जाने का साहस बटोरा था। वह सदैव अंगदेश का राजा रहा। अपनी शक्ति से पहली बार, युद्ध की वेला में मिलने का जब अवसर उसे मिला तो अपनी मां से अपने मन की व्यथा कहे बिना वह नहीं रह पाया, 'अकरोद् मयि यत् पापं भवती सुमहत्तमम्, अपकीर्णास्मि यन्मात: तद् यश: कीर्तिनाशनम्' मां आपने मेरे प्रति जो पाप किया, उससे मुझे कितनी तकलीफ हुई है। तुमने मुझे पानी में क्या फेंका, मुझे अपकीर्ति के विनाश में ही धकेल दिया (उद्योग पर्व, 146.5) कर्ण का यही संताप आगे चलकर उसकी अधिरथ जाति से जोड़ दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप उसे मिली सतत्व्यथा की ओर मानो संकेत करते हुए महाकवि दिनकर का मानना है कि 'कर्ण चरित का उद्धार एक तरह से नई मानवता की स्थापना का प्रयास है, और मुझे संतोष है कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं।' (भूमिका रश्मिरथी पृ.10) कर्ण की व्यथा गाथा को महाकवि दिनकर जैसा परम संवेदनशील महाकवि ही इस भावुक ऊंचाई पर लाकर महाकाव्य में शब्दरूप दे सकता था। महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की इस राष्ट्रीय वेदना की अभिव्यक्ति के कारण पूरे भारत और विशेषकर देश का समस्त वंचित समाज ह्रदय से राष्ट्रीय समभावना और बड़प्पन का अनुभव करता रहा है।
पर जैसे 'कुरुक्षेत्र' के कवि को जीवन का मर्म जानने के लिए धर्म का ही आशय लेना उचित और समीचीन लगा, ठीक वैसे ही 'रश्मिरथी' के नायक राधेय कर्ण को भी कवि ने अंतत: धर्म की संवेदनाओं से एकाकार होने का संदेश सरीखा दे दिया है। कर्ण के जीवन से जुड़े निर्णायक निषेधात्मक संदर्भों को क्षमा न करते हुए महाकवि ने कुछ स्पष्टोक्तियां करते हुए उसे धर्म का ही संदेश अंतत: दिया है। पहले स्पष्टोक्ति, कर्ण के ही शब्दों में, 'बधुजन को नहीं रक्षण दिया क्यों?' समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों? न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं, लिए यह रार मन में जा रहा हूं।' (सप्तम सर्ग)। और भी- 'चले वनवास को जब धर्म था वह। शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह। अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे। असल में धर्म से ही वे गिरे थे।' (सप्तम सर्ग) फिर धर्म के संस्थापक कृष्ण ने युधिष्ठिर को कर्ण का सत्चरित बताया, 'उदासी में भरे भगवान बोले, न भूलें आप केवल जीत को लें नहीं पूरुषार्थ केवल जीत में है, विभाकासार शील पुनीत में है।' (सप्तम सर्ग)
महाकवि कैसे युग की भावनाओं से समवेत् रहते हैं, और वैसे रहते हुए ही कैसे वे युग को नेतृत्व देते हैं, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण देखना हो तो कृपया 'उर्वशी' काव्य में देखिए। 'रश्मिरथी' की भूमिका में दिनकर का यह कथन महत्वपूर्ण है। दिनकर कहते हैं, 'मुझे (यह भी) पता है कि जिन देशों अथवा दिशाओं से आज हिन्दी काव्य की प्रेरणा पार्सल से, मोल या उधार, मंगाई जा रही है, वहां कथाकाव्य की परंपरा नि:शेष हो चुकी है और जो काम पहले प्रबंध काव्य करते थे, वही काम आज बड़े मजे में उपन्यास कर रहे हैं।' दिनकर का संकेत शायद आधुनिक हिन्दी काव्य की उन छायावादी और तप्तसरीखी काव्य प्रवृत्तियों की ओर था, जो व्यक्तिवादी होने के कारण देश और समाज से कटी हुई थी। इस संदर्भ में यही कहना समीचीन होगा कि राष्ट्रकवि दिनकर ने मानो एक राष्ट्रीय घोषणा कर दी कि 'परंपरा केवल वही मुख्य नहीं है जिसकी रचना बाहर हो रही है, कुछ वह भी प्रधान है जो हमें पुरखों से विरासत में मिली है, जो लिखिल भूमंडल के बीच हमारे अपने साहित्य की विशेषता है।'
अपने पुरखों से मिली अपनी विरासत में देश और देशवासियों के मन में बसे इसी महाभाव को व्यक्त करते हुए ही मानव दिनकर कह रहे हैं- 'मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं
उर्वशी, अपने समय का सूर्य हूं मैं।'
सूर्य के प्रकाश की इसी तेजस्विता का ही यह परिणाम माना जाना चाहिए कि छायावाद की इस घनघोर व्याप्ति में ही दिनकर ने प्रणय को, स्त्री और पुरुष के प्रणय को, उर्वशी और पुरुरवा के प्रणय को, उसके पौराणिक गाथा आधार को संपूर्ण सम्मान देते हुए 'उर्वशी' जैसा एक बड़ा काव्य लिख दिया जिसके बारे में दिनकर ने निस्संकोच, बल्कि कहना चाहिए कि सम्मानपूर्वक कहा- उर्वशी-पुरुरवा की प्रणय गाथा को ध्यान में रखकर कहा, उर्वशी के बारे में, 'शायद अपने से अलग कर मैं उसे देख नहीं सकता; शायद वह अलिखित रह गई; शायद वह इस पुस्तक में व्याप्त है।'(भूमिका पृ. 13)
पुरुरवा-उर्वशी के पौराणिक प्रणय गान को, कविवर दिनकर ने जिन आध्यात्मिक श्रेष्ठताओं वे ऊंचाइयों तक पहुंचाया है, वह बताने के लिए क्यों दिनकर के ही शब्दों का आशय लिया जाए जो निश्छल स्वीकारोक्ति के विशिष्ट अद्वैतभाव में बता रहे हैं, 'उस प्रेरणा पर तो मैंने कुछ कहा ही नहीं, जिसने आठ वर्षों तक ग्रसित रखकर यह काव्य मुझसे लिखवा लिया।' (उर्वशी भूमिका, पृ. 15) और महाकवि ने जो 'लिखवा लिया', उसे दिनकर के शब्दों में दोहरा देना ही इस काव्य की, इस प्रणय कथा की स्वभाविक और श्रेष्ठ प्रस्तुति होगी। दिनकर के शब्दों में, 'नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इंद्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, उसे वह प्रेम की दुर्गम समाप्ति में पहुंचाकर निष्पंद हो जाती है। और पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुंचना चाहती है।' (भूमिका पृ. 9)
अपने इस प्रणयदर्शन में महाकवि दिनकर फिर से एक बार धर्म के निष्कर्ष पर हमें ले आते हैं। पद्मपुराण का आश्रय लेकर कवि कह रहे हैं कि 'धर्म से अर्थ और अर्थ से काम की प्राप्ति होती है किन्तु काम में फिर हमें धर्म के ही फल प्राप्त होते हैं।… हीन केवल वह नहीं है जिसने धर्म और काम को छोड़कर केवल अर्थ को पकड़ा है; न्यायत:, उकठाकाठ तो उस साधक को भी कहना चाहिए, जो धर्मसिद्धि के प्रयास में अर्थ और काम दोनों से प्राप्ति कर रहा है।' (भूमिका पृ.12)
डॉक्टर रामधारी सिंह दिनकर की काव्य कृतियां अनेक हैं, करीब बीस, छोटी-बड़ी सब मिलाकर। पर जिस विशिष्टतम कविकर्म के कारण दिनकर भारत के जनसामान्य की आवाज बन गए, भारत के धर्म का स्वर बन गए, राष्ट्रकवि बन गए उनमें से कुछ ही कृतियों का संदर्भ उठाना हमारे लेख को सीमाओं में बांध देता है। इसलिए दिनकर की प्रिय पुस्तक, जिसे उनके निबंधों में गिना जाता है, उनका एक विशालकाय निबंध, 'संस्कृति के चार अध्याय' है। जिसपर विमर्श के लिए हम किसी श्रेष्ठ अवसर की प्रतीक्षा कर सकते हैं। पर इतना तो समझ में आ ही जाता है कि रामधारी सिंह दिनकर कोई सामान्य कवि नहीं थे। वे स्वभावत: महाकवि ही थे। कोई पाठक-जननायक देखा है आपने? जी हां, दिनकर पाठक-जननायक कवि ही सदा रहे। यानी वे सच्चे और समूचे अर्थों में राष्ट्रकवि हैं और रहेंगे। मां भारती के राष्ट्रकवि के सिंहासन पर दिनकर सादर और अपनी संपूर्ण तेजस्विता के साथ विराजमान हैं, भास्वर हैं। देश के कर्णधारों के पास गुरुवर दिनकर का धर्मदर्शन दशकों से उपलब्ध है। अब गुरुवर दिनकर को श्रेष्ठ गुरुदक्षिणा देने का समय आ गया है। -सूर्यकान्त बाली
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