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अंक संदर्भ: 26 अप्रैल, 2015
आवरण कथा 'बोस का दोषी कौन' से हकीकत की एक परत खुली है, लेकिन पता नहीं अभी और कितनी परतों का खुलना बाकी है। सुभाष चंद्र बोस के संबंध में अंग्रेजों की जासूसी की बात तो समझ में आती है लेकिन उसके बाद जवाहरलाल नेहरू ने किस कारण उनकी जासूसी करवाई, यह समझ में नहीं आता। लंबे समय से सुभाष चंद्र के अंतिम जीवन में घटित घटनाओं को देश जानना चाहता है। साथ ही यह भी जानना चाहता है कि उनके साथ तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने क्या-क्या हथकंडे अपनाए? वैसे कांग्रेस सदैव जासूसी के लिए बदनाम रही है और उसे जिस भी नेता से कुर्सी जाने का खतरा रहता, वह उसकी जासूसी करवाती रही है।
—कमलेश कुमार ओझा
पुष्पविहार (नई दिल्ली)
ङ्म नेता जी, एक ऐसा देशभक्त, व्यक्तित्व जिसका कद तत्कालीन कांग्रेस के बड़े नेताओं के समान था। इतिहास में इस बात का जिक्र है कि नेहरू सदैव नेताजी को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानते थे, क्योंकि नेहरू जानते थे कि उन्हें अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वह सुभाष चंद्र बोस ही हैं। जहां देश की असंख्य जनता नेताजी में एक देशभक्त का दर्शन करती थी तो नेहरू को उनकी जासूसी से ही फुर्सत नहीं थी। नेहरू की इस ओछी हरकत को कहा जाए? क्या कांग्रेस सदा सत्ता के लिए ही राजनीति करती आई है। कुछ भी हो देश और देश की जनता कांग्रेस परिवार और उसकी कारगुजारियों से पूरी तरह अवगत है। वह यह भी जानती है कि यह परिवार सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।
—हरिओम जोशी
चतुर्वेदी नगर, भिण्ड (म.प्र.)
हिन्दुओं के दुख पर मौन क्यों?
'हाशिमपुरा से उघड़े सेकुलर' से ज्ञात हुआ अदालत का फैसला देश में न्यायालय के प्रति विश्वास को बढ़ाने वाला है। ऐसे निर्णय साबित करते हैं कि अधिकांश सांप्रदायिक दंगों में दंगाई मजहबी उन्मादी ही होते हैं, लेकिन सेकुलर आरोप हिन्दुओं पर ही मढ़ते हैं। जब भी कोई इस प्रकार का निर्णय आता है तो वही सेकुलर चीख-पुकार करने लगते हैं और ऐसा माहौल तैयार कर देते हैं जैसे निर्णय गलत हो। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि अपने को सेकुलर कहने वाले नेता और कथित समाजसेवी हिन्दुओं के दुख-दर्द पर अपना मुंह सिल लेते हैं और ऐसा माहौल बनाते हैं कि मानो हिन्दुओं के दर्द से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। वर्ष 2002 में गुजरात, 1990 में कश्मीर में व 2013 में किश्तवाड़ (जम्मू-कश्मीर) के दंगों में हिन्दुओं का कत्लेआम हुआ, लेकिन सेकुलर कभी इन पर क्यों बात नहीं करते? क्यों वे इन पर खामोश रहते हैं?
—बी.एल.सचदेवा
आईएनए बाजार (नई दिल्ली)
भारतीय समाज की रीढ़ है हिन्दी!
लेख 'पढ़ाई से लड़ाई बन्द' में पाञ्चजन्य ने हिन्दी के पक्ष में वैज्ञानिक तथ्य उपलब्ध करवाए हैं। हिन्दी करोड़ों लोगों द्वारा बोले जाने वाली भाषा है। वास्तव में देखा जाए तो हिन्दी हम बचपन से बोलते आ रहे हैं, इसी भाषा में हम सोचते और कार्य करते हैं। लेकिन कुछ लोगों द्वारा हिन्दी को नष्ट करने का प्रयास आज भी जारी है। हम और हमारे समाज पर अंगे्रजी को थोपा जा रहा है, जिससे समाज को बहुत ही नुकसान हुआ है और हो रहा है। केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह हिन्दी को उचित स्थान दिलाए क्योंकि हिन्दी सभी प्रदेशों व पूरे देश को एकसूत्र में बांधने की भाषा है।
—संजीव सिंह ठाकुर
भिवाड़ी, जिला-अलवर (राज़)
परंपरागत खेती पर हो जोर
ङ्म लेख 'संकल्प में बड़ी शक्ति' उन लोगों के लिए प्रेरणास्पद है जो साधन संपन्न होने के बाद भी अनेक प्रकार की निरर्थक बातें करते हैं। लेकिन मूल बात यह है कि संकल्प ही तय करता है कि आप सफल होंगे या नहीं।
—राममोहन चन्द्रवंशी
टिमरनी-हरदा(म.प्र.)
न्याय बना तमाशा
पैसे वालों के लिए, नहीं बनी है जेल
इसीलिए सलमान को, मिली फटाफट बेल।
मिली फटाफट बेल, जान से गया बिचारा
उसके घर वालों का कोई नहीं सहारा।
कह 'प्रशांत' निर्धन के लिए नहीं है आशा
न्याय बना भारत का मानो एक तमाशा॥
-प्रशान्त
गणतंत्र न हो परतंत्र
देश स्वतंत्र होते ही उसे द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर विभाजन का दंश झेलना पड़ा। दशकों तक सत्ता के केन्द्र में रही कांग्रेस ने 'पंथनिरपेक्षता' शब्द जोड़कर एक नई राजनीति को जन्म दे दिया। इसी राजनीति ने सम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा भाषावाद को भी उत्पन्न किया। यहीं से तुष्टीकरण की राजनीति ने देश में जन्म लिया, जिसका परिणाम आज हम सभी के सामने है। नेता छद्म राजनीति करके तुष्टीकरण का जहर समाज में घोल रहे हैं। समाज में एक ऐसी खाईं खोद रहे कि उसे भरा जाना आज के समय असंभव सा लगने लगा है। जब भी देश में हिन्दुओं के धार्मिक मानबिन्दु की बात आती है तो सेकुलर दल और उसके पैरोकार कहते हैं कि भारत एक सेकुलर देश है। यहां सभी को समान अधिकार है। सभी मत-पंथ और मजहब बराबर हैं। लेकिन सवाल है कि फिर क्यों अल्पसंख्यकों को मत और मजहब के नाम पर नौकरियां, हज यात्रा, मजहबी शिक्षा के नाम पर सरकारी अनुदान दिया जाता है? छद्म सेकुलरवादी राजनेता मजहबी-उन्माद को निरंतर बढ़ावा दे रहे हैं। वर्तमान में लोकतंत्र में संवैधानिक मर्यादा एवं नैतिकता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि शरीर को सजीव रखने के लिए प्राण। यदि गणतंत्र में मर्यादा व नैतिकता रूपी आत्मा का हस होने लगे तो यह गणतंत्र की सजीवता के लिए एक गंभीर खतरे की घंटी है। देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए क्षुद्र-राजनीति का शुद्धिकरण आवश्यक है।
—रामसहाय जोशी
28, अहलूवालिया बिल्डिंग
अंबाला छावनी (हरियाणा)
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