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मोरेश्वर जोशी
इराक में यजीदी समुदाय के करीब 300 लोगों की हत्या का समाचार पिछले सप्ताह विश्व भर के अग्रणी मीडिया ने दिया है। पिछले दिनों ही इस समुदाय की 100-125 महिलाओं का अपहरण होने का समाचार पूरे विश्व में प्रमुखता से आया था। इससे गत फरवरी में मैसूर (भारत) में हुए विश्व की प्राचीन सभ्यताओं के सम्मेलन में यजीदी प्रतिनिधियों के वक्तव्यों की एकाएक याद आ गई। उस समय उन्होंने कहा था कि हमें विश्व की पुरानी सभ्यताओं के लोगों से संवाद करते हुए खुशी हो रही है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि और कितने दिन आपको हमारे सैकड़ों लोगों के मारे जाने अथवा हमारी लड़कियों एवं महिलाओं को भगाकर ले जाने के समाचार सुनने को मिलेंगे। उन्होंने जो कहा था उसकी अनुभूति केवल तीन महीनों में ही हो गई। उनको तो इस तरह के समाचार सुनने की जैसे आदत ही हो चुकी है। पिछले 150 वर्ष में हमारी पीढि़यां इसी दुर्भाग्य के साथ जी रही हैं। 'हमारे कुछ लाख भाई-बहन पिछले कुछ वषोंर् में नरसंहार में मारे गए हैं एवं महिलाओं का आए दिन अपहरण जारी है'- उन प्रतिनिधियों के इन आर्त शब्दों को सुनने के लिए 1000 से ज्यादा प्रतिनिधि उपस्थित थे। उनमें दक्षिण भारत के मीडिया के प्रतिनिधि भी थे। सैकड़ों का नरसंहार और महिलाओं के अपहरण का समाचार चौंकाने वाला था। 'हर दिन नरसंहार की घटनाएं, हर दिन अपने बचाव के लिए नए उपाय, मां-बहनों के रक्षण का विचार और सभी उपाय समाप्त होने के बाद इराक से भागने का विचार,' ये बातें जब मैसूर सम्मेलन में सुनाई दीं तो उस वक्त वहां मौजूद सभी लोगों का मन आहत हो गया था।
उन्होंने कहा, 'हम जब अपनी मातृभूमि में होते हैं तब हमारे युवाओं का ध्यान न ठीक से रोजी-रोटी कमाने में लगता है, न शिक्षा में। रात-दिन दहशत, रात-दिन मां-बहनों की रक्षा के लिए पहरा- ऐसे ही हमारा दिन शुरू होता है और ऐसे ही समाप्त होता है। विश्वभर में हम इस खोज में घूम रहे हैं कि हमें 'अपना' कहने वाली कोई भूमि है या नहीं। हमारे हृदय में भारत को लेकर असीम आशाएं हैं। यहां आपसे बात करने का मतलब यह नहीं है कि आप हमारी मदद करें। लेकिन यह विनती है कि हमें केवल समझ लें। विश्व के सभी देशों में इस तरह भटकने के बाद हम भारत में आए हैं। विश्व ने जिन्हें दुत्कारा, भारत ने सदा उन्हें शरण दी है। हमें भी इस तरह कोई मार्ग मिलता है कि नहीं, यही देखने के लिए हम यहां आए हैं।' मैसूर का यह सम्मेलन ग्लोबल काउंसिल ऑफ एल्डर्स संस्था की ओर से आयोजित किया गया था। मैसूर में यह इस संस्था का यह पांचवां अधिवेशन था। रा. स्व. संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने इसका उद्घाटन किया था। 'मिताकुए ओयासिन' यानी 'हम सब एक ही हंै', यह सम्मेलन का नारा था। मिताकुए ओयासिन अमरीका की कुछ संस्कृतियों में प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं। वैश्विक सभ्यता की पहली मांग है दूसरे का सम्मान। पिछले 2000 वषोंर् में विश्व में ऐसी भी कुछ सभ्यताएं हुई हैं, जिन्होंने अपने विस्तार के लिए पूरे विश्व में नरसंहार का मार्ग अपनाया। आज भी सौ से अधिक सभ्यताएं ऐसी हैं जिन पर उन भीषण नरसंहारों का असर पड़ा है। उन्होंने बेहद वीभत्स अत्याचार झेले हैं। वे केवल इसी आशा के सहारे टिके हैं कि विश्व में शीघ्र ही 'सहिष्णुता का सूयार्ेदय' होगा। इसके लिए ही विश्व की 30 प्राचीन सभ्यताओं के प्रतिनिधिमंडल मैसूर सम्मेलन में आए थे। इसमें यजीदी लोगों का प्रतिनिधिमंडल खास था, क्योंकि उनका यह कहना था कि हमारी कुछ रीतियां हिंदू हैं, कुछ मुस्लिम हैं, कुछ पारसी और कुछ ईसाई भी हैं। पिछले 1000 वर्ष उनके लिए सतत् संघर्ष के रहे हंैं। सम्मेलन में यजीदी प्रतिनिधि ने कहा, 'आपको लगेगा जैसे यह कोई मायाजाल है अथवा लगेगा कि चूंकि इस समय हमारे देश में युद्ध जैसी परिस्थिति है इसलिए विश्व की सहानुभूति पाने के लिए हम ऐसा कह रहे हैं कि हम हिंदू भी हैं, ईसाई भी और मुसलमान भी हैं, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। आपमें से जिन्होंने विश्वविद्यालय में इतिहास विषय का अध्ययन किया है उन्हें हमारा यह कथन अतिशयोक्ति नहीं प्रतीत होगा क्योंकि पिछली अनेक पीढि़यों से हम इन तीनों परंपराओं का पालन कर रहे हैं।' इराक के यजीदियों का यह विषय पिछले दो-तीन वषोंर् से मीडिया में है। इराक में उन पर आएदिन हमले हो रहे हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि उनकी कुछ परंपराएं हिंदू पद्धति से जुड़ी हैं। भारत के विशेषज्ञों और इतिहास का अध्ययन करने वालों को शायद यह बात मालूम भी हो लेकिन आम पाठक शायद इन बातों को न जानते हों। यजीदी लोगों के संदर्भ में विश्व के अलग अलग ज्ञानकोशों में भी उल्लेख है कि उनकी आध्यात्मिक परंपराएं हिंदू आस्था से जुड़ी हैं, उनमें खासकर सूयार्ेपासना का महत्व है। उनके साहित्य में अनेक स्थानों पर पुनर्जन्म का उल्लेख है। उनके इलाके यानी उत्तरी इराक में 'मिथ्रीजम' नामक एक परंपरा है। अध्ययनकर्ताओं का मत है कि उन परंपराओं का कुछ हिस्सा वैदिक सभ्यता से जुड़ा है। यद्यपि इराक में 'मिथ्रीजम' शब्द प्रयुक्त होता है, पर उसका उद्गम संस्कृत के 'मित्र' शब्द में है। मित्र का वेद अथवा गीता में अर्थ सूर्य है। सूर्यनमस्कार में पहला शब्द ही 'मित्राय नम:' है। उस इलाके में जो शब्द प्रचलित है उसमें 'मित्रता' का अर्थ है-पालन करने वाला सूर्य। मैसूर सम्मेलन में विश्व की जिन सभ्यताओं के प्रतिनिधि आए थे उनमें से 40 से अधिक का मानना था कि उनकी जड़ें भारत से जुड़ी हैं। हर एक के पास इसके लिए कुछ प्रमाण थे और हर कोई यह भी कह रहा था कि आज तक हमें अपनी जड़ें भारतीय बताने में हमें शर्म आती थी क्योंकि यहां की पिछली सरकार को ही यह मंजूर नहीं था। हम भी भारत से अपने संबंधों का उल्लेख करना टाल जाते थे अथवा उल्लेख करने में डरते थे। लेकिन अब तो 125 करोड़ के इस विशाल देश में हर कोई हमारा स्वागत करने के लिए तैयार है, ऐसा दिखता है। इसलिए हमें भी आज लग रहा है कि हम भारत से अपने सारे नाते-रिश्ते बताएं। उन सब प्रतिनिधियों में यजीदियों की स्थिति सबसे अलग दिख रही थी क्योंकि मैसूर सम्मेलन में भी वे अपना डर नहीं छुपा सके थे। आज नरसंहार और महिलाओं को अपहृत करने का जो समाचार विश्व के मीडिया ने दिया है, उसमें कहा है कि इराक में आईएसआईएस के हत्यारों ने 300 यजीदियों का सर कलम किया है। इराक में पिछले 50-60 वर्ष से आएदिन इस तरह का हिंसक वातावरण रहा है। 12 वर्ष पहले तक वहां सद्दाम हुसैन का राज था। उस समय यजीदी समुदाय हमेशा उनके निशाने पर रहा था। सद्दाम का समय पूरा होने के बाद कुछ वर्ष वहां अलग वातावरण था। उससे यजीदियों को 'स्वायत्तता' का दर्जा मिला। यह समुदाय अनेक प्राचीन परंपराओं को संजोकर रखने वाला है, पर तब भी उनका स्वतंत्र अस्तित्व 12वीं सदी से सामने आया। सूफी परंपरा में आदि इब्ज मुसाफिर यजीदियों का देवदूत बताया जाता है। ईश्वर से इस देवदूत का संवाद हुआ एवं आदि इब्ज मुसाफिर ने वह सब ज्ञान यजीदियों को दिया। पहले 500-600 वर्ष वहां के सभी समुदाय मिल-जुलकर रहते थे। लेकिन 16वीं सदी में यजीदियों पर 'शैतान के पुजारी' होने का आरोप लगने लगा। तब से उनका बहिष्कार करना शुरू हुआ। इराक में यजीदियों की संख्या पांच लाख है। उसके बाहर उनकी संख्या तीन लाख है। पिछले 20 वर्ष के दौरान उन्हें शहर से विस्थापित होकर सिंजर पहाड़ों में आसरा लेना पड़ा है। उत्तरी इराक के मोसुल और दोहुक जिलों में उनकी बस्तियां हैं। इराक के अलावा जर्मनी एवं तुर्किस्तान में उनकी बस्तियां हैं। साथ ही विश्व के अनेक देशों में वे थोड़ी बहुत संख्या में रह रहे हैं। आईएसआईएस के प्रभाव क्षेत्र और यजीदियों के निवास के क्षेत्र में 65 किमी. का अंतर है। फिलहाल इन यजीदियों के प्रतिनिधि पूरी दुनिया में अपने लिए समर्थन जुटाने हेतु घूम रहे हैं। इनमें से एक बात की ओर यजीदी प्रतिनिधियों और भारत के विद्वानों ने आम भारतीयों का ध्यान आकर्षित किया है और वह यह है कि आज जो स्थिति इराक के यजीदियों की है वही स्थिति 800 वर्ष तक भारतीयों की थी। 11वीं सदी में पहली बार यह आक्रमण शुरू हुआ था, जिसके बाद वह 800 वर्ष तक चला।
यजीदियों ने आज तक 72 नरसंहार झेले हैं, लेकिन भारत पर 800 वर्ष राज करने वाले मुगलों ने यहां जितने नरसंहार किए उनकी संख्या आज तक कोई नहीं जानता। पिछले सप्ताह अमरीका की 'पीयू' संस्था ने आने वाले 50 वर्ष की घटनाओं का जो चित्र खींचा है उसे देखते हुए पूरी दुनिया को इस बारे में सचेत रहना ही होगा।
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