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उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग की लिखित परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक होने और सोशल मीडिया के व्हाट्सअप जैसे माध्यमों से बेचे जाने का मामला गर्म है। परीक्षा के पहले ही प्रश्नपत्र लोगों के हाथ में पहुंच गया। मामला सामने आने के बाद 1937 में गठित उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता दावं पर है। इस पूृरे प्रकरण में उ.प्र. लोकसेवा आयोग के चेयरमैन अनिल यादव पर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे हैं। दरअसल प्रश्नपत्र लीक होने की मूल वजह ये नहीं है कि इसे बेचने के लिए लीक किया गया, बल्कि इस बात की ज्यादा चर्चा है कि इस भर्ती में जाति-विशेष को मदद पहुंचाने की योजना बनाई गयी थी। उस योजना में कहीं कोई चूक हुई और काम न बनता देख इस प्रश्नपत्र को लीक किया गया। इसके पहले उ.प्र. में सिपाहियों की भर्ती भी विवादों में है और राज्य की सपा सरकार पर यह आरोप लग रहा है कि सिपाहियों की भर्ती में भी जातीय स्तर पर पक्षपात और भेदभाव किया गया है। लेकिन इस समय मामला उ.प्र. लोकसेवा आयोग से जुड़े विवाद का है, तो विवाद के केंद्र में अनिल यादव हैं। यहां ये जानना जरूरी होगा कि अनिल यादव हैं कौन और ये सपा को इतने प्रिय क्यों हैं? दरअसल चेयरमैन अनिल यादव पर जातीय भेद-भाव का पहले भी आरोप लगा, जब इन्होंने चेयरमैन रहते त्रिस्तरीय आरक्षण की नई व्यवस्था लागू कर दी थी। इस नए नियम से सामान्य वर्ग के छात्रों का हक मारा जाने लगा था। इस फैसले का पुरजोर विरोध हुआ और बाद में माननीय उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद यह नया नियम वापस लिया गया। इतना ही नहीं तब अनिल यादव की तैनाती के बाद आए पीसीएस के परिणाम में ओबीसी के कुल 86 छात्रों का चयन हुआ। इनमें 50 यादव बिरादरी से थे। आरोप है कि एकाध अपवादों को अगर छोड़ दिया जाय तो साक्षात्कार में यादव बिरादरी से आने वाले छात्रों को 130-140 अंक दिए गए। वहीं ओबीसी से आने वाले अन्य बाकी छात्रों को औसतन 110 अंक,'एससी-एसटी' के छात्रों को औसतन 105 अंक और सामान्य वर्ग के छात्रों को औसतन 115 अंक दिए गए। यानी एक जातिविशेष का ख्याल जीभरकर रखा गया! उ.प्र. लोकसेवा आयोग की परीक्षा का इससे ज्यादा शमिंर्दा करने वाला दौर भला और क्या होगा कि अनिल यादव की तैनाती के बाद पीसीएस जैसी महत्वपूर्ण परीक्षा के केंद्र ऐसे बनाए गए जहां गड़बड़ी की पूरी संभावना थी। मैनपुरी में एक सपा विधायक के अर्धनिर्मित विद्यालय को भी केन्द्र बनाया गया, जहां गड़बडि़यों के भरपूर आरोप लगे। इस बार भी लखनऊ में जिस विद्यालय से पर्चा लीक होने का खुलासा एसटीएफ ने किया है, उस स्कूल को परीक्षा केंद्र बनाए जाने पर लोग हैरान हैं। आरोप है कि इस विद्यालय के मालिक से लेकर कर्मचारी तक ने पैसे लेकर पेपर बेचे। हालांकि इस पूरे प्रकरण को महज अनिल यादव जैसे किसी एक नाम के ईद-गिर्द समेट लेना व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता। प्रथम दृष्ट्या यह मामला राज्य सरकार के इशारों पर किया हुआ प्रतीत होता है। चूंकि इतने बड़े संस्थान में गड़बड़ी करने का जोखिम महज एक अधिकारी नहीं ले सकता। ऐसे में कई सवाल सपा सरकार पर ही उठ रहे हैं ?
दरअसल इस पूरे मामले को महज एक अधिकारी द्वारा किये गये भ्रष्टाचार तक सीमित रखने की बजाय इसका राजनीतिक मापदंडों पर विश्लेषण जरूरी है। यही वेे बिंदु हैं, जहां से यह सवाल जोर पकड़ता है कि सामाजिक न्याय के नाम पर सियासत के पैंतरे चलाने वाली उ.प्र. की मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी एवं बिहार की लालू यादव की राजद का आंतरिक चेहरा कितना जातिवादी, साम्प्रदायिक एवं छिछले तुष्टीकरण की राजनीति से स्याह पड़ चुका है। आपातकाल के बाद राजनीतिक विकास के क्रम में उ.प्र., बिहार सहित तमाम क्षेत्रीय दलों के विस्तार एवं उनकी आंतरिक राजनीति की सचाई इन्हीं घटनाओं से खुलकर सामने आती है। मुलायम सिंह यादव हों, लालू यादव या फिर मायावती, ये सभी अपनी राजनीति जाति के गिर्द ही चलाना जानते हैं और देश में जातिवादी राजनीति के प्रतीक बन गए हैं। दरअसल सामाजिक न्याय को समाज में प्रतिष्ठित कराने के नाम पर समाजवाद के इन कथित पहरेदारों ने हिंसा, उत्पात, पक्षपात सहित तमाम असंवैधानिक कृत्यों को अपना हथियार बनाया जबकि इनके दलों का सामाजिक न्याय घोर जातिवाद का एक लक्षण है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर रहा कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सभी वगोंर्, सभी जातियों का न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व हो। मगर सवाल है कि क्या इस लक्ष्य को हासिल करने का यही संविधान-सम्मत तरीका है? भारतीय लोकतंत्र का संविधान ये तो नहीं कहता कि आप परीक्षा में धांधली करके, हिंसा का सहारा लेकर सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को हासिल करें! संविधान में आरक्षण की व्यवस्था है। पचास के दशक से ही पिछड़ी जातियों में आरक्षण की व्यवस्था रखी गयी, जिसका लाभ समग्र रूप से दिखाई भी दे रहा है। पिछलग्गू दलों द्वारा भाजपा को वंचित-विरोधी, पिछड़ा-विरोधी एवं संविधान-सम्मत आरक्षण विरोधी कहा जाता है, तो ऐसा लगता है मानो कोई मजाक और झूठ की प्रतिस्पर्द्धा चल रही हो! चूंकि भाजपा ने संविधान की प्रक्रियाओं के तहत वंचित, पिछड़ों के हितों का काम किया है जबकि कांग्रेस सहित तमाम दल सिर्फ गाल बजाते रहे।
आज जब उत्तर प्रदेश की सवार्ेच्च परीक्षा में फर्जीवाड़ा सामने आया है तो भला इस बात को कैसे खारिज किया जा सकता है कि सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाली समाजवादी पार्टी का चेहरा घोर जातिवादी है। वे केवल और केवल जातिवाद का जहर घोलने और साम्प्रदायिक तुष्टीकरण की सियासत करने में ही महारत हासिल किये हुए हैं। अनिल यादव को चेहरा बनाकर सूबे की समाजवादी पार्टी सरकार अपना वही जातिवादी हित साध रही थी। इस प्रकरण के खुलासे ने अनिल यादव को ही नहीं बल्कि पूरी सरकार व समाजवादी पार्टी के जातिवादी चेहरे को बेनकाब किया है। अगर कहा जाय तो गलत नहीं होगा कि संविधान की प्रक्रियाओं में यकीन न रखने वाली इस सरकार के लिए उ.प्र. का यह फर्जीवाड़ा प्रकरण उनके 'समाजिक न्याय का शार्टकट' है। -शिवानन्द द्विवेदी
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