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आदित्य भारद्वाज
हाशिमपुरा मामले में न्यायालय का फैसला आने के बाद निर्दोष साबित हुए पीएसी के जवानों के चेहरे पर 28 बरस की मानसिक प्रताड़ना साफ दिखाई दे रही थी। बूढ़े हो चुके इन जवानों के चेहरे पर निर्दोष साबित होने की चमक तो थी लेकिन इतने अरसे तक जो उन्होंने झेला उसका दर्द भी उनके चेहरे से साफ झलक रहा था। झूठे आरोप के चलते बरसों तक न तो उन्हें सम्मान मिला न ही पदोन्नति जिसके वे हकदार थे। उनके बाद भर्ती हुए जवान तरक्की पाकर सबइंस्पेक्टर और इंस्पेक्टर तक हो गए लेकिन वे वहीं रहे जहां थे। न्यूनतम वेतन पर वे इसी आस में देश की सेवा में तत्पर रहे कि एक दिन वे निर्दोष साबित होंगे और ऐसा हुआ भी लेकिन जो समय बीत जाता है उसे वापस नहीं लाया जा सकता। इसी बात का दर्द उन्हें रह-रहकर पीड़ा देता है।
वर्ष 1987 में मेरठ में भड़के हिंदू मुस्लिम दंगों के दौरान इन जवानोंे पर आरोप लगा कि उन्होंने हाशिमपुरा के करीब 50 लोगों को अगवा किया और उनमें से 42 की गोली मारकर हत्या करने के बाद शवों को गंगनहर में फेंक दिया। जुल्फिकार, बाबूद्दीन, मुजीबुर्रहमान, मोहम्मद उस्मान और नईम नाम के युवकों ने आरोप लगाया कि वे गोली लगने के बाद बच गए। बाबूद्दीन ने गाजियाबाद के लिंक रोड थाने पहुंचकर रपट दर्ज कराई। कथित सेकुलरों के हल्ला मचाने के बाद मामला उछला और इसके बाद ये निर्दोष जवान कानूनी पचड़े में फंसते चले गए। उत्तर प्रदेश पुलिस की सीबीसीआईडी ने मामले की जांच की जिसके बाद कुल 19 लोगों ने सुरेन्द्र पाल सिंह, पीएसी कंपनी कमांडर, सुरेश चंद्र शर्मा, निरंजन लाल, कमल सिंह, बुद्धि सिंह, कुश कुमार, वसंत वल्लभ, कुंवर पाल सिंह, बुद्धा सिंह, रामवीर सिंह, लीलाधर, रामबीर सिंह, मोहकम सिंह, शमीउल्लाह, श्रवण कुमार, जयपाल सिंह, ओमप्रकाश और रामध्यान को आरोपी बनाया गया।
वर्षों तक चली मामले की लंबी सुनवाई के दौरान तीन लोगों सुरेंद्रपाल सिंह, कुश कुमार और ओमप्रकाश की मौत हो गई। चार लोग सेवानिवृत्त हो गए। एक जवान को बर्खास्त कर दिया गया। जबकि एक ने मानसिक प्रताड़ना से तंग आकर नौकरी से इस्तीफा दे दिया। बाकी के 10 जवान अभी भी सेवा में हैं लेकिन उसी पद पर जिस पर 1987 में थे।
शांति से जीना चाहता हूं शेष जीवन
मैं वर्ष 1971 में पीएसी में बतौर सिपाही भर्ती हुआ था। दंगों और कफ्यूंर् के दौरान कई जगह तैनाती रही कितने ही लोगों की मदद की और उन्हें बचाया। वर्ष 1987 में मेरी पोस्टिंग 41वीं पीएसी बटालियन गाजियाबाद में थी। मेरठ के हालात बिगड़े तो हमें मेरठ पुलिस लाइन भेजा गया। वहां से हमारी रोजाना अलग-अलग जगहों पर ड्यूटी लगाई जाती थी। 22 मई, जिस दिन का हवाला देकर हमें आरोपी बनाया गया उस दिन सुबह आठ बजे मुझे पुलिस लाइन से मेरठ के लिसाड़ीगेट थाना क्षेत्र में स्थित पिलोखरी में ड्यूटी पर भेजा गया था। इस बारे में बाकायदा रजिस्टर में एंट्री भी की गई। जिस हाशिमपुरा कांड का मुझ पर आरोप है न तो मैं वहां गया, न ही मेरे साथ के बाकी लोग। इसके बाद भी न जाने कैसे मुझ पर इतनी हत्याओं का झूठा आरोप लगा दिया गया? 28 बरस तक इस झूठे आरोप के साथ कैसे नौकरी की, यह बता पाना मुश्किल है। वर्ष 2011 में नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद तक मैं हवलदार ही रहा। 40 बरस की नौकरी में सिपाही से सिर्फ हवलदार तक पहुंच पाया जबकि मेरे बाद के लोग इंस्पेक्टर रैंक तक पहुंचने के बाद सेवानिवृत्त हुए। न्यायालय ने मुझे निर्दोष माना मेरे लिए बस यही बहुत है, अब मैं बाकी की बची जिंदगी शांति से ईश्वर का नाम लेकर जीना चाहता हूं बस मेरी यही एकमात्र इच्छा है।
—सुरेशचंद शर्मा, हाशिमपुरा प्रकरण में आरोपमुक्त हुए पीएसी कर्मी
मैं तो 'डीडी लेखक' था फील्ड की ड्यूटी पर ही नहीं गया
उन दिनों मेरी ड्यूटी 'डीडी लेखक' (डेली डायरी लेखक) की थी। मेरा काम कंपनी कहां जा रही है, कितने बजे जा रही है, कितना और कौन सा असलहा जवानों को दिया गया यही था। ड्यूटी पर निकलने और आने का समय रजिस्टर में लिखना ये सब काम मेरा था। 22 मई को हुई जिस घटना का आरोप मुझ पर लगाया जा रहा है उस दिन मैं कार्यालय में ड्यूटी पर था। उस दिन सुबह मैंने वरिष्ठ अधिकारियों के निर्देश अनुसार रजिस्टर में एंट्री करके एक सबइंस्पेक्टर, चार हवलदार, 12 सिपाहियों और एक ड्राइवर समेत कुल 19 लोगों को सुबह आठ बजे पिलोखरी में ड्यूटी के लिए रवाना किया था। रात आठ बजे सभी लोग वापस पुलिस लाइन लौट आए। इसके बाद कहीं उनकी ड्यूटी नहीं लगाई गई। फिर भी हम सभी को आरोपी बना दिया गया। मैं तो पूरे दिन पुलिस लाइन में ही था। 1965 से लेकर 2007 तक 42 बरस की नौकरी में यह 28 वर्ष का जो समय बीता उसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता। जिस वेतन और भत्ते का मैं और मेरे साथी हकदार थे वह भी हमें नहीं मिला। पदोन्नति नहीं मिली। सेवानिवृत्त होनेे तक हवलदार के न्यूनतम वेतन पर ही नौकरी करनी पड़ी। माननीय न्यायालय ने जो फैसला दिया वह सत्य की विजय है।
—बुद्धिसिंह
सेवानिवृत्त हवलदार पीएसी
'न्यायालय भावनाओं से नहीं साक्ष्यों पर फैसला देता है'
हाशिमपुरा मामले का फैसला आने के बाद कथित सेकुलरों ने फिर से शोर मचाना शुरू कर दिया। न्यायालय के फैसले तक पर सवाल उठाए जा रहे हैं। इन तमाम बातों को लेकर हमने हाशिमपुरा मामले में निर्दोष साबित हुए आरोपियों में से 11 जवानों के वकील श्री एलडी मौल से बातचीत की। प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश :-
ल्ल न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले को लेकर आपका क्या कहना है ?
न्यायालय कोई भी निर्णय साक्ष्यों के आधार पर देता है। वादी और प्रतिवादी दोनों की तरफ से वकील न्यायालय में मामले की पैरवी करते हैं। साक्ष्यों के आधार पर दलीलें देते हैं। न्यायालय के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं। न्यायालय इन तमाम पहलुओं को ध्यान में रखकर मामले की बारीकी से सुनवाई करता है। इसके बाद जब न्यायालय पूरी तरह संतुष्ट हो जाता है तभी अपना फैसला सुनाता है। इसलिए न्यायालय के फैसले को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती। इसलिए इस मामले में भी यही कहा जा सकता है कि न्यायालय ने जो फैसला दिया वह साक्ष्यों के आधार पर दिया।
ल्ल सुनवाई के दौरान किन-किन बातों को आधार बनाकर आपने मामले की पैरवी की?
देखिए जब भी कोई मामला न्यायालय में पहुंचता है तो उसके हर पहलू का अध्ययन करना पड़ता है। अभियोजन पक्ष के आरोप क्या हैं और आरोपी क्या कहते हैं? ऐसे कौन से साक्ष्य हैं जो आरोपी को निर्दोष साबित कर सकते हैं। जहां तक इस मामले की बात है तो जिन पर भी हत्याकांड का आरोप लगा वे वहां ड्यूटी पर तैनात ही नहीं थे। अन्य भी बहुत से ऐसे साक्ष्य थे जिनसे स्पष्ट हो रहा था कि निर्दोष जवानों को इस मामले में फंसाया गया है। इन तमाम पहलुओं को ध्यान में रखकर हमने तैयारी की और न्यायालय के सामने पैरवी की। जिसके आधार पर न्यायालय ने मामले का फैसला सुनाया।
ल्ल जैसा आपने कहा कि जिन जवानों को आरोपी बनाया गया वे घटना वाले दिन हाशिमपुरा में ड्यूटी पर ही नहीं थे तो क्या आपको पूरी तरह इस बात का भरोसा था कि फैसला आपके पक्ष में ही आएगा?
देखिए एक वकील होने के नाते मेरे पास इस सवाल का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है और होना भी नहीं चाहिए। मैं एक वकील हूं मेरा काम अपने 'क्लाइंट' की न्यायालय के समक्ष पैरवी करना है। यदि कोई वकील किसी मामले की पैरवी करते हुए पहले से यह कहे कि फैसला उसके 'क्लाइंट' के पक्ष में ही होगा तो यह सही बात नहीं है। न्यायालय किसी भी मामले का निर्णय भावना के आधार पर नहीं बल्कि साक्ष्यों के आधार पर करता है। जहां तक हमारे मामले की बात थी तो इसमें हमारे पास बचाव के लिए बहुत सी चीजें थीं। स्वयं चश्मदीद भी आरोपियों को पहचानने में असफल रहे। इसलिए हमें उम्मीद थी कि फैसला हमारे पक्ष में ही होगा और ऐसा हुआ भी।
ल्ल यदि अभियोजन पक्ष मामले को उच्च न्यायालय में आगे लेकर जाता है तो आपका अगला कदम क्या होगा?
यह अभियोजन पक्ष का अधिकार होता है। वह मामले को आगे ले जाना चाहे तो ले जा सकता है। अभी जो फैसला आया है उसमें जो साक्ष्य न्यायालय के सामने प्रस्तुत किए गए उसके अनुसार फैसला आया है। यदि अभियोजन पक्ष मामले को लेकर आगे उच्च न्यायालय में जाता है तो हम इसके लिए तैयार हैं। उस समय के अनुसार जो उचित होगा हम उस आधार पर मामले की पैरवी करेंगे।
ल्ल जो जवान निर्दोष साबित हुए हैं उन्हें नौकरी के दौरान न तो पदोन्नति मिली न ही उनका वेतन बढ़ाया गया। क्या आप उनको उनका अधिकार दिलाने के लिए भी कार्रवाई करेंगे?
देखिए मैं इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। दरअसल यह कानून और नियमों की बात है इसलिए व्यक्तिगत आधार पर इस बारे में मेरा कुछ कहना ठीक नहीं है। हां यदि वे लोग अपने अधिकार मांगते हैं और मुझे अधिवक्ता के रूप में लेते हैं तो निश्चित ही उनकी पैरवी की जाएगी।
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