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आजकल दो मामले सुर्खियों में हैं। दोनों के केन्द्र में महिलाएं हैं। एक है तीस्ता सीतलवाड़ और दूसरी मुंबई से निकलने वाले उर्दू अखबार 'अवधनामा' की संपादक शीरीन दलवी। दोनों के ऊपर गंभीर आरोप हैं। सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और उनके पति जावेद आनंद पर आरोप है कि उन्होंने अमदाबाद की गुलबर्ग सोसाइटी फंड में हेराफेरी की। गुजरात उच्च न्यायालय ने इनकी गिरफ्तारी के आदेश भी दिए। पर सर्वोच्च न्यायालय ने इनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। गुजरात पुलिस का आरोप है कि सीतलवाड़ ने अपने एनजीओ के माध्यम से साल 2008 से लेकर 2012 तक 9़ 75 करोड़ रुपये एकत्र किए। उसमें से 3़ 75 करोड़ रुपये उन्होंने महंगे कपड़ों, जूतों, विदेश यात्राओं वगैरह पर खर्च किए।
उधर, शीरीन दलवी पर आरोप है कि उन्होंने 'अवधनामा' के मुंबई संस्करण में फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो का मुखपृष्ठ छापा। वे अपनी 'गुस्ताखी' के लिए माफी मांग रही हैं। उनके ऊपर करीब आधा दर्जन मामले दर्ज हो चुके हैं। पर बहुत से मुस्लिम कट्टरपंथी उनकी जान के प्यासे भी हो गए हैं। वे अपनी जान बचाने के लिए कहीं छिपी हुई हैं।
हैरानी की बात है कि इन दोनों मामलों पर देश की सेकुलर बिरादरी और मानवाधिकारों के लिए लंबे-चौड़े सेमिनार करने वाले संगठनों और 'एक्टिविस्टों' का आचरण और रुख एक जैसा नहीं है। यह बिरादरी तीस्ता सीतलवाड़ और उनके पति के साथ तो खुलकर सामने आ गई है, पर शीरीन का साथ देने के लिए तैयार नहीं है। क्यों? इस सवाल का जवाब भी ये नहीं देते। अगर अपने सेकुलर होने की वे लंबी-चौड़ी मुनादी करते हैं तो क्यों नहीं वे उसी आग्रह के साथ शीरीन के हक में खड़े होते?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने वाले इस वर्ग को लगता है कि शीरीन के साथ कुछ भी गलत नहीं हो रहा है। शायद इसीलिए इन्होंने शीरीन के मामले से एक तरह से पल्ला झाड़ लिया है। उधर, जालसाजी और घोटाले के आरोप झेल रही तीस्ता-जावेद की जोड़ी को लेकर ये टपाटप आंसू बहा रहे हैं। फिल्मकार आनंद पटवर्धन इन दोनों पति-पत्नी के पक्ष में खुलकर सामने आने वाले बड़े सेकुलरवादियों में हैं। वे कह रहे हैं कि इनके साथ नाइंसाफी हो रही है। गुजरात सरकार इन्हें घेरने की कोशिश कर रही है। क्या कहने! अपने को जनता की नब्ज समझने वाला फिल्मकार बताने वाले पटवर्धन को शीरीन दलवी की वेदना नहीं दिखती।
ध्यान रहे, पटवर्धन ये सब तब कह रहे थे जब घोटाले के आरोपी इन दोनों की जमानत याचिका गुजरात उच्च न्यायालय ने खारिज कर दी थी। इन सेकुलरवादियों में गांधी जी के प्रपौत्र तुषार गांधी भी हैं। तुषार गांधी तीस्ता-जावेद की सुरक्षा को लेकर भी परेशान हैं और उनकी सुरक्षा की मांग कर रहे हैं।
पर शीरीन के मामले में इन्हीं आनंद पटवर्धन और तुषार गांधी सरीखे लोगों की जुबान सिली हुई है। उनकी सुरक्षा के लिए इनकी आवाज बिल्कुल नहीं निकली। जिस 46 साल की महिला ने जीवन में कभी बुर्का नहीं पहना, अब अपनी जान की हिफाजत करते हुए उसे बुर्का पहनना पड़ रहा है, ताकि उसे कोई पहचान न सके। उनका जीना दूभर कर दिया गया है। शीरीन की नौकरी जा चुकी है। उनका भविष्य अधर में अटक गया है। कहीं से कोई उम्मीद नहीं दिखती। उनके खिलाफ मुंबई, ठाणे, मालेगांव में मजहबी भावनाएं आहत करने के आरोप में आधा दर्जन मुकदमे दर्ज करवाए गए हैं। शीरीन इस कदर हिल गई हैं कि उनमें अपनी गुजर-बसर को लेकर आशंका घर कर गई है। उन्हें गिरफ्तार भी किया गया था, पर अब जमानत मिल चुकी है।
उधर तीस्ता के पक्ष में एक ऑनलाइन अभियान भी चलाया जा रहा है, जिसकी पहल वरिष्ठ पत्रकार सीमा मुस्तफा, पामेला फिलिपोस, राजनीति विज्ञानी अचिन विनायक, कमल मित्र चिनोय, अनुराधा चिनोय आदि ने संभाल रखी है। इस मुहिम में भी बड़ी संख्या में देश-विदेश के सेकुलर बुद्धिजीवी और 'ऐक्टिविस्ट' हिस्सेदारी कर रहे हैं। आनंद पटवर्धन और उनकी जमात वाले किसके हक में खडें हों या ना हों, ये उनका निजी मामला है लेकिन अगर वे खुद को सेकुलर कहते-कहलाते हैं तो फिर उनसे ये सवाल तो पूछा ही जाएगा कि इन्होंने कभी शीरीन दलवी की सुध क्यों नहीं ली? सीमा मुस्तफा और पामेला फिलिपोस पत्रकार होने के साथ-साथ महिला भी हैं। इन्होंने कभी शीरीन के दुख-दर्द को जानने में तो दिलचस्पी नहीं दिखाई।
मजाल है कि मानवाधिकार से जुड़ा कोई संगठन या तथाकथित सेकुलरवादी शीरीन के पक्ष में बोला हो। भारत में मीडिया हो सा साहित्यिक विमर्श, ऐसे दोगले मापदण्ड वालों की बिरादरी अलग नजर आ जाती है। एक तरफ तो तीस्ता के लिए कपिल सिब्बल सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी करते हुए कहते हैं कि वे पुलिस के साथ जांच में सहयोग करेंगी। पर उधर पुलिस का कहना है कि तीस्ता जांच में सहयोग नहीं कर रही हैं। देखना है कि शीरीन का मामला देखने के लिए कोई वकील सामने भी आएगा या नहीं।
अपने पति को खो चुकीं शीरीन दलवी अपनी एक बेटी और एक बेटे के साथ घर-बार छोड़कर अज्ञात स्थान पर चली गई हैं। मुस्लिम संगठनों की ओर से उन्हें धमकियां दी जा रही हैं। व्हाट्सएप पर उन्हें संदेश भेजे जा रहे हैं कि 'माफी नहीं मिलेगी।' इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर कोई भी उनके पक्ष में आवाज उठाने के लिए तैयार नहीं दिखता।
वरिष्ठ लेखक राजीव सचान ने इस पर सटीक टिप्पणी की कि शीरीन के हक में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक और सांप्रदायिकता के खिलाफ सड़कों पर उतर आने, टीवी चैनलों पर दिन-दिन भर बहस करने और अखबारों के पन्ने रंग देने वाले देश के ज्यादातर सेकुलर पुरोधा मौन हैं। ऐसा लगता है कि या तो उन्हें सांप सूंघ गया है या फिर वे इसे लेकर भ्रमित हो गए हैं कि महाराष्ट्र इसी राष्ट्र का हिस्सा है या नहीं?
भारत कोई अफगानिस्तान, पाकिस्तान या इराक नहीं है। यहां पर कानून का राज है। मानवाधिकारों का सम्मान करने की परम्परा है। यहां पर तालिबानी व्यवस्था नहीं है। इसके बावजूद शीरीन दलवी को घेरा जा रहा है। कोई महिला संगठन उनके हक के लिए आवाज नहीं बुलंद कर रहा।
जाहिर है, इस तरह की डरावनी चुप्पी बहुत कुछ कहती है। साफ है कि देश में अपने को प्रगतिशील और सेकुलर ताकतों का हिमायती कहने-बताने वाले संगठन और लोग किस तरह से काम करते हैं। इनमें मुंबई के पॉश जुहू इलाके में रहने वाली तीस्ता को लेकर सहानुभूति का भाव है, जिस पर मोटे पैसे गबन करने के आरोप हैं। पर इनके मन में उस महिला को लेकर किसी तरह का भाव नहीं पैदा हो रहा, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैमाने की पाबंद रही है, जिसकी वजह से आज उसकी जान को खतरा है।
वरिष्ठ पत्रकार हसन सरूर ने दि हिन्दू में लिखा है, 'शीरीन अपनी अपनी भूल को मान रही हैं। इसके बावजूद अपने को इस्लाम के प्रवक्ता से लेकर इस्लाम के स्वयंभू रखवाले तक बताने वाले उन्हें माफ करने के लिए तैयार नहीं है। क्यों? वे शीरीन के पीछे पड़े हैं।'
शीरीन का दावा है कि कुछ और पत्र-पत्रिकाओं में भी फ्रांस की पत्रिका में छपे कार्टून छपे हैं। पर उसे ही घेरा जा रहा है। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि अब उनका वक्त पुलिस थानों और अदालत के चक्कर काटने में गुजरता है। उन्हें अपनी जान का भी खतरा सता रहा है। क्या आनंद पटवर्धन या तुषार गांधी सुन रहे हैं? शीरीन उनके शहर में ही प्रताडि़त की जा रही हैं। क्या उन्होंने या उनके सेकुलर मित्रों ने कभी उनसे मिलने की चेष्टा की?
पिछले दिनों मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में तुषार गांधी, आनंद पटवर्धन, लेखक दिलीप डिसूजा वगैरह तीस्ता के हक में बोले। इन्होंने उन पर लगे सारे आरोपों को खारिज कर दिया। उनके हाथों में 'आई एम तीस्ता' (मैं तीस्ता हूं) के पोस्टर भी थे। सवाल उठता है कि जब अदालत में किसी मामले की सुनवाई चल रही हो तब क्या इन्हें ये सब कहने का अधिकार है? क्या वे इस तरह बोल सकते हैं कि तीस्ता पर लगे आरोप झूठे हैं? क्या ये देश की विधि व्यवस्था का अपमान नहीं है? क्या इनके मन में कानून का, अदालत का कोई सम्मान नहीं है?
जानने वाले जानते हैं कि मुंबई के कुछ उर्दू अखबार ही शीरीन के पीछे पड़े हैं। वे ही शीरीन पर मामले दर्ज करवा रहे हैं, धमकियां दिलवा रहे हैं। हालांकि मुंबई पत्रकार संघ, जो उर्दू अखबारों की बड़ी संस्था है, से जुड़े अखबार 'हिन्दुस्तान' के संपादक सरफराज आरजू कहते हैं कि सारा पत्रकार संघ शीरीन के खिलाफ नहीं है। हां, एक संपादक उसके खिलाफ जरूर है। तो सवाल उठता है कि पत्रकार संघ उस संपादक से संबंध क्यों नहीं तोड़ता? क्यों पत्रकार संघ साथ नहीं देता शीरीन दलवी का? आखिर वह क्या भय है जिसके चलते अभिव्यक्ति की आजादी के कथित सिपाही शीरीन का साथ देने को तैयार नहीं? शायद ये सिपाही दिखावटी हैं। यह इससे भी साबित होता है कि कुछ दिनों पहले इनमें से तमाम तमिल साहित्यकार पेरुमल मुरुगन के विवादास्पद उपन्यास पर आपत्ति जताने वाले तमिलनाडु के हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे।
उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने तीस्ता की अग्रिम जमानत पर सुनवाई करते हुए 19 फरवरी को उनकी गिरफ्तारी पर फिलहाल रोक लगा दी है। अदालत ने तीस्ता-जावेद को जांच में सहयोग करने का निर्देश देते हुए मामले से संबंधित तमाम दस्तावेज जांच हेतु उपलब्ध कराने को कहा है। तीस्ता और उनके पति जावेद पर करीब डेढ़ करोड रुपये गबन करने का आरोप है। आरोप है कि ट्रस्ट के फंड का इस्तेमाल निजी कामों के लिए किया गया। तीस्ता पर आरोप है कि उक्त पैसा गुलबर्ग सोसायटी को दंगों से जुड़ा एक संग्रहालय बनाने के लिए जमा किया गया था। लेकिन बताते हैं, वह योजना बाद में रद्द कर दी गई थी। तीस्ता, उनके पति जावेद और बेटी पर ट्रस्ट के पैसे से देश-विदेश में खरीददारी करने के आरोप हैं। खरीददारी में महंगी शराब खरीदना भी शामिल है।
गुलबर्ग सोसाइटी के 12 लोगों का आरोप है कि तीस्ता ने फंड का गलत इस्तेमाल किया। पिछली 25 मार्च, 2014 को सत्र अदालत ने गिरफ्तारी से बचने के लिए उनकी जमानत याचिकाएं खारिज कर दी थीं। क्राइम ब्रांच ने पिछली जनवरी में तीस्ता और अन्य के खिलाफ इस मामले में एफआईआर दर्ज की थी। उधर, अदालत के इस फैसले के बाद अमदाबाद पुलिस ने उनकी तलाश शुरू की। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए उनके मुंबई और दिल्ली के ठिकानों पर छापा मारा। सीतलवाड़ और उनके पति जावेद के अलावा गुजरात दंगे में मारे गये कांग्रेस सांसद अहसान जाफरी के बेटे तनवीर जाफरी और गुलबर्ग सोसाइटी के निवासी फिरोज गुलजार इस मामले में आरोपी हैं।
तीस्ता सीतलवाड़ और शीरीन के मामलों में कथित सेकुलरों के दोहरे आचरण पर कठोर हमला बोलते हुए महाराष्ट्र कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी जफर इकबाल ने कहा कि शीरीन दलवी के हक में मुस्लिम संगठनों से लेकर महिला संगठन और दूसरे कोई भी संगठन सामने नहीं आ रहे हैं। इससे इन संगठनों की ईमानदारी शक के घेरे में आ जाती है। अब इन पर यकीन करना मुश्किल होगा। जफर इकबाल मुंबई की अंजुमन इस्लाम शिक्षण संस्था से भी जुड़े रहे हैं।
हां, मुंबई के किसी 'हम आजादियों के हक में' नाम के संगठन ने जरूर शीरीन के लिए आवाज बुलंद की है। उसने शीरीन पर चल रहे सारे मामले वापस लेने की भी मांग की है। इसके अलावा चारों तरफ सन्नाटा पसरा है। जफर इकबाल कहते हैं कि मुसलमानों के उदारवादी संगठनों को शीरीन का इस मौके पर साथ देना चाहिए। शीरीन ने एक इंटरव्यू में कहा, 'शार्ली एब्दो पर हमले के बाद जो संस्करण निकला वह रिकार्ड संख्या में बिका। हमने इस खबर को पोप के बयान से जोड़ कर छापा, जिसमें उन्होंने कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सवार्ेपरि नहीं है, और पांथिक मान्यताओं के साथ मजाक नहीं किया जाना चाहिए।'
शीरीन किसी भारतीय उर्दू अखबार की पहली महिला संपादक हैं। उन्होंने अज्ञात स्थल से दिए एक इंटरव्यू में कहा कि वह और उनके दो बच्चे आज तक अपने घर नहीं जा पाए हैं। बताते हैं, शीरीन ने अपने एक दोस्त के घर पर पनाह ली हुई है, तो उनके दो बच्चे रिश्तेदारों के घर पर रह रहे हैं। शीरीन चाहती हैं कि सारा मामला आपसी सहमति से निपट जाए। वह कहती हैं, 'अगर मेरे निर्णय से किसी की मजहबी भावनाओं को ठेस लगी हो तो उसके लिए मैंने माफी मांग ली है। मैं विनती करती हूं कि अब इसे यहीं खत्म कर दिया जाए।'
राजधानी के एक मीडिया संस्थान से जुड़ी अंग्रेजी पत्रकार आलिया अब्बास को बहुत से लोगों से शिकायत है। उनकी पहली शिकायत तो मुस्लिम मजहबी और सामाजिक संगठनों से है, जिन्होंने शीरीन के हक में एक शब्द भी नहीं बोला। फिर वह उन तमाम कथित प्रगतिशील होने का दावा करने वाले लोगों और संगठनों से भी नाराज हंै, जो शीरीन के हक में सामने आने से बच रहे हैं। वे कहती हैं कि मुसलमानों को उनके हक दिलवाने के लिए तो अनेक नेता खड़े हो जाते हैं, पर जब एक मुसलमान औरत संकट में है तो उसका कोई साथ नहीं दे रहा। सब डरे हुए हैं। उन समूहों से कट्टरवाद के पक्षधर हैं।'
बहरहाल अवधनामा अखबार ने अपना मुंबई संस्करण बंद कर दिया है। उसके कारण शीरीन की नौकरी भी चली गई है। वह कहती हैं, 'भले ही यह मामला यहां खत्म हो जाए, लोग मुझे माफ कर दें, लेकिन हमारी जिंदगी अब पहले जैसी नहीं हो सकती। मेरे बच्चों को बिना वजह तकलीफें सहनी पड़ रही हैं।'
शीरीन के इंटरव्यू को पढ़कर समझ आ जाता है कि वह गंभीर किस्म की महिला हैं। वह मानती हैं कि बौद्धिक चीजों का जवाब बौद्धिक तरीके से देना चाहिए। वे कहती हैं, 'खबर छापना मेरा अधिकार था। पसंद न आने पर उस पर आपत्ति जताना लोगों का अधिकार है। लेकिन इल्म का जवाब इल्म से देना चाहिए। अगर किसी खबर पर कोई आपत्ति हो तो, अगले संस्करण में उसका स्पष्टीकरण दिया जा सकता है।'
हिन्दुस्तान के संपादक सरफराज आरजू शीरीन को लंबे वक्त से जानते हैं। वे कहते हैं, 'मैं दावे के कह सकता हूं कि शीरीन सिर्फ प्रचार पाने के लिए किसी की भावनाएं आहत नहीं करेंगी।' इस बीच, रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के संपादक हसन कमाल ने कहा कि उससे (शीरीन से) बड़ी भूल तो हुई है, पर अब जबकि उसने माफी मांग ली है, तो सारे मामले को खत्म करना चाहिए। उसके ऊपर चलने वाले केस वापस ले लिए जाने चाहिए। यानी धीरे धीरे ही सही, मुस्लिम समाज के कुछ समझदार लोग शीरीन के पक्ष में सामने आने लगे हैं। पर गाहे बगाहे सेकुलरवाद की दुहाइयां देने वाले वे लोग कहीं नहीं दिख रहे। इनका शीरीन के पक्ष में या कहें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में कोई बयान सामने नहीं आ रहा।-विवेक शुक्ला
कौन है शीरीन दलवी और क्या है उनका 'अपराध'
शीरीन दलवी लंबे समय से पत्रकारिता कर रही हैं। वह मूल रूप से उत्तर प्रदेश से संबंध रखती हैं। एक अरसे से मुंबई में रह रही शीरीन पत्रकारिता के अलावा कहानियां भी लिखती हैं। वह अभी कुछ दिन पहले तक 'अवधनामा' अखबार की संपादक थीं। माना जा है कि वह उर्दू अखबार की पहली महिला संपादक रहीं। उनके पति अब्दुल्ला कमाल का कुछ साल पहले निधन हो गया था। वह शायर थे।
शीरीन की राजनीति, समाज और दक्षिण एशियाई देशों से जुड़े सवालों में गहरी दिलचस्पी है। लेखन और अध्ययन के स्तर पर उन्होंने उर्दू में बहुत अनुवाद किया है। वह मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर की भी एक किताब 'इंसान की तलाश' का अनुवाद कर चुकी हैं। उनकी छवि एक ईमानदार और मेहनती पत्रकार की है। शीरीन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करती हैं, लेकिन विवादित कार्टून को छापने के अपने फैसले को वे अपनी 'पत्रकारिता जीवन की पहली और आखिरी गलती' भी मानती हैं। पिछले साल अवधनामा से जुड़ने से पहले शीरीन सहाफत और हिन्दुस्तान जैसे मशहूर उर्दू अखबारों से जुड़ी थीं। शिरीन यह भी कहती हैं कि अगर उन्होंने गुनाह किया है तो अल्लाह उन्हें सजा देगा। देश में कानून का राज है और वे उसके तहत भी सजा पाने को तैयार हैं। शिरीन कहती हैं, 'लोगों ने कहा है कि मुझे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा जाएगा। मैं काफी डरी हुई हूं। अब जब मैं माफी मांग ही चुकी हैं, इस मुद्दे को यहीं खत्म कर दिया जाए।'
कौन है तीस्ता और क्या है उन पर आरोप
तीस्ता सीतलवाड़ एक दौर में पत्रकार थीं। उसके बाद वह सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हो गईं। सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। उन पर चंदे के गबन के आरोप हैं। तीस्ता, उनके पति जावेद और गुजरात हिंसा में मारे गए कांग्रेस नेता अहसान जाफरी के बेटे तनवीर पर वर्ष 2002 के दंगों की शिकार गुलबर्ग सोसाइटी को संग्रहालय बनाने के नाम पर एकत्र चंदे के गबन का आरोप है। गुलबर्ग सोसायटी के ही एक निवासी ने तीस्ता, उनके पति और अन्य लोगों के खिलाफ अपराध शाखा में मामला दर्ज कराया था। इन पर आरोप है कि इन लोगों ने संग्रहालय के नाम पर मोटा पैसा खुद पर खर्च कर लिया। आरोप है कि इन्होंने विदेशों से भी चंदा लिया था और बाद में उसका उपयोग निजी फायदे के लिए किया। वह 'सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस' (सीजेपी) नाम की संस्था की सचिव थीं। जो बनी थी उन लोगों की मदद के लिए जिन्हें 2002 के दंगों में नुकसान पहुंचा था। 53 साल की तीस्ता के दादा एम़ सी़ सीतलवाड़ देश के पहले अटार्नी जनरल थे। तीस्ता के एक बेटा जिब्रान और बेटी तामारा है। उनकी सारा पढ़ाई मुंबई में ही हुई।
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