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हिन्दू धर्म में कन्वर्जन तथा हिंसा का कोई स्थान नहीं है। जबकि इस्लाम या ईसाई मत इसके बिना एक भी कदम चलने को तैयार नहीं है। हिन्दू धर्म विश्व में एकमात्र विश्वव्यापी मानव धर्म है जो विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के पूर्व पांथिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। यह विश्वबंधुत्व की बात करता है।
ऐतिहासिक संदर्भ
दूसरी ओर इस्लाम प्रारंभ से ही एक मजहबी उन्माद से भरपूर राजनीतिक आन्दोलन रहा है। इसका उद्देश्य दारुल हरब को दारुल इस्लाम बनाना अर्थात विश्व का इस्लामीकरण रहा है। पाकिस्तानी ब्रिगेडियर एस.के. मलिक युद्ध को अल्लाह की उद्देश्य पूर्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। (कुरानिक कान्सेप्ट ऑफ वॉर, पृ. 54) प्रसिद्ध विद्वान सुहास मजूमदार ने अपने प्रसिद्ध गंथ में जिहाद को गैर-मुसलमानों के विरुद्ध एक अन्तहीन संघर्ष बताया है जिसमें इस्लाम के विस्तार के लिए शक्ति तथा जबरदस्ती का समर्थन काफिरों का विनाश, जजिया, काफिरों की संपत्ति को लूटना वैध तथा काफिरों की महिलाओं तथा बच्चों का दास बनाना भी वैध बताया है। (देखें, जिहाद द इस्लामिक डाक्ट्रिन ऑफ परमानेंट वार, नई दिल्ली, 1994) साथ ही इस्लाम राष्ट्रवाद को मजहब के विरुद्ध मानता है। जहां तक भारत में इस्लाम के द्वारा कन्वर्जन का स्वरूप रहा, वह तलवार एवं दमन के द्वारा भारत के इस्लामीकरण तथा गुलामीकरण का रहा है। मुस्लिम शासनकाल में हिन्दुओं के लिए एक ही मार्ग था इस्लाम या मौत। यह क्रम समस्त मध्यकाल में मोहम्मद बिन कासिम के सिन्ध पर आक्रमण से लेकर सिकंदर लोदी तक तथा बाबर से औरंगजेब तक निरंतर चलता रहा। संकलित आंकड़ों से ज्ञात होता है कि भारत में 1000 ई. में महमूद गजनवी के आक्रमण के समय यहां की हिन्दू जनसंख्या 20 करोड़ थी जो आगामी 500 वर्षों में घटकर 17 करोड़ रह गई थी।
इसी भांति 1600-1800 ई. तक अर्थात 200 वषार्ें में इसमें कोई विशेष अन्तर नहीं आया। संख्या घटने का कारण मुस्लिम जिहाद, जबरदस्ती कन्वर्जन, नरसंहार तथा मुस्लिम बनने पर तरह-तरह की सुविधाएं प्रदान करना था। मुसलमानों के कन्वर्जन की भांति, भारत में यूरोपीय घुसपैठियों द्वारा ईसाइयत की आंधी आई। पुर्तगाली पहले घुसपैठिये थे जिन्होंने रोमन कैथोलिक अत्याचार प्रारंभ किये। जहां उन्होंने अपार धन की लूट की वहां जबरदस्ती कन्वर्जन द्वारा गोवा को पूरब का रोम बनाने के लिए हजारों हिन्दुओं को मारा, सैकड़ों हिन्दू मंदिर नष्ट किये तथा अनेकों चर्चों, चैपलों, कान्वेंटों की स्थापना की। तत्कालीन भारत में पुर्तगाली गवर्नर अल्फ्रैंजो डिसूजा ने माना, 'पुर्तगालियों ने एक हाथ में तलवार तथा दूसरे में पंथ का दण्ड सलीब लेकर प्रवेश किया।' गोआ में इंक्वीजीशन से हिन्दू ढाई सौ वर्षों (1560-1812) तक कन्वर्जन तथा अत्याचार सहते रहे।
अंग्रेज जब ईस्ट इंडिया कंपनी केे रूप में भारत में आये तो साथ में ईसाई मिशनरी भी आये। पहले गुपचुप तथा 1813 ई. से भारत में ईसाइयत को कानूनी मान्यता दे दी। बस समूचे देश में वारेन हेस्टिंग से लार्ड डलहौजी तक ईसाइयों द्वारा कन्वर्जन हुआ। मैक्समूलर पादरी के द्वारा भारत को एक ईसाई देश बनाने की योजना पूरी न हो सकी। 1857 का महासमर भारत देश को ईसाई बनाने की कब्र साबित हुआ। सीधे ब्रिटिश शासन के काल में कन्वर्जन के विरोध में कोई कानून नहीं बना। परन्तु भारतीय रजवाड़ों द्वारा राजगढ़ (1936), पटना (1942) सागुया (1945) तथा उदयपुर (1946) में कन्वर्जन को रोकने के लिए कुछ कानून अवश्य बने। इसी प्रकार के कुछ कानून ईसाइयत द्वारा कन्वर्जन रोकने के लिए बीकानेर, जोधपुर, कालाहाण्डी, कोटा तथा अन्य स्थानों पर बने।
कांग्रेस सरकार
यह कटु सत्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने जन्मकाल (1885) से ही भारत में मुसलमानों को लुभाने तथा रिझाने का असफल प्रयास करती रही है। उन्होंने भारत का विभाजन भी मजहब के आधार पर स्वीकार किया। संपूर्ण भारत के 96.5 प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया। अत: स्वतंत्रता के पश्चात भी उनका मार्गदर्शक तत्व मुस्लिम तुष्टीकरण तथा हिन्दुओं का प्रबल विरोध रहा है। भारतीय संविधान, सभा की रचना तथा इसके द्वारा निर्मित संविधान जैसा भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा कि, विशेष परिस्थितियों की उपज है। तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों श्री बी.पी. सिन्हा तथा श्री मेहरचन्द महाजन ने इसमेंे भारतीय संस्कृति का अभाव माना है। इसीलिए इसे कांग्रेस के अनुसार बनाया संविधान, आपाधापी का संविधान ब्रिटेन से गृहीत भारतीय संविधान आदि कहा गया है।
यह उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में इसकी उद्देशिका तथा अनुच्छेद 19 में प्रत्येक नागरिक को धर्म पालन करने तथा सभी प्रकार के विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है तो अनुच्छेद 25 में इस पर पुन: चर्चा हुई जिससे मूल अधिकारों से इसे जोड़ते हुए मूलत: कन्वर्जन का समर्थन किया गया है। यह सही है कि भारतीय संविधान के तत्कालीन सदस्यों में से कुछ प्रबुद्ध कांग्रेस नेताओं ने इसमें अपने मतभेद प्रकट किये। टकराव का मुख्य मुद्दा अनुच्छेद 25 का दूसरा भाग था। पहले भाग में सभी व्यक्तियों के लिए धर्म अपनाने, प्रचार करने तथा अपने रीति रिवाजों के अनुसार चलने की स्वीकृति दी गई। दूसरे भाग में यह जोड़ा गया कि बशर्ते इसमें लोक व्यवस्था, नैतिकता अथवा स्वास्थ्य तथा मूल अधिकारों के अध्याय में सम्मिलित दूसरे प्रावधानों पर कोई आंच न आती हो। दूसरे भाग में यह भी कहा गया कि छल कपट या अनुचित प्रभाव के द्वारा एक धर्म से दूसरे धर्म में किये जाने वाले कन्वर्जन को कानून मान्यता नहीं मिलेगी। भारतीय संविधान सभा में कन्वर्जन पर मुख्य बहस 1 मई 1947 से 30 अगस्त 1947 के दौरान हुई। सामान्यत: कांग्रेस सहित अधिकतर सदस्यों का विचार था कि मजहबी कन्वर्जन को द्वारा प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। श्री के.एम. मुंशी ने कहा कि अनुच्छेद में यह स्पष्ट रूप से कहा जाये कि छल कपट, धोखाधडी द्वारा किये गये कन्वर्जन अवैध होंगे। उन्होंने अल्पसंख्यकों का कन्वर्जन प्रतिबंधित करने को भी कहा। श्री अनन्त स्वामी आयंगर, पुरुषोत्तम दास टण्डन तथा सरदार पटेल भी इससे सहमत थे। आयंगर ने एवं कृष्णास्वामी भारती ने मजहबी कन्वर्जन को प्रतिबंधित न करने पर भविष्य में इससे उत्पन्न खतरों से अवगत भी कराया।
परन्तु दुर्भाग्य की बात यह हुई कि अल्पसंख्यकों की नाजायज मांग के आगे बहुमत नतमस्तक हो गया। संविधान सभा में दो प्रमुख ईसाई सदस्यों फ्रेंक एंथनी तथा जे जे निकोलस ने पांथिक प्रचार को ईसाइयत का सर्वोच्च तथा केन्द्रीय तत्व बतलाया। इसके लिए बिना किसी कानूनी प्रावधान के खुली छूट की जोरदार वकालत की। अत: कांग्रेस ने कन्वर्जन पर प्रतितबंध जैसे महत्वपूर्ण तथा दूरगामी परिणामों से युक्त विषय की चिंता न कर, अल्पसंख्यकों को खुश किया तथा प्रावधान में तकनीकी समस्याओं के कारण बताकर खारिज कर दिया। अत: के.एम. मुंशी, आयंगर, कृष्णा भारती सहित प्रसिद्ध विद्वानों-अल गूराय शास्त्री जगननारायण लाल, आर वी धुलकर के कन्वर्जन पर प्रावधान को अस्वीकृत कर दिया। लोकनाथ मिश्र इसे मूल अधिकारों के अध्याय में धर्म प्रचार की स्वतंत्रता को एक शर्मनाक अनुच्छेद कहते रह गए।
भारतीय संसद में 1954 ई. तथा 1960 ई. में मुस्लिम तथा ईसाइयों द्वारा जबरदस्ती तथा लोभ लालच द्वारा कन्वर्जन का प्रबल विरोध होता रहा। छल-कपट, प्रलोभन तथा जबरदस्ती कन्वर्जन की सच्चाई को डा. भवानी श्ंाकर नियोगी आयोग की म.प्र. के 26 जिलों के 700 गांवों के लोगों में से किये साक्षात्कार के आधार पर 1500 पृष्ठों की रपट किसी भी अंधी तथा बहरी सरकार की भी आंखें खोल देने वाली है। (विस्तार के लिए देखें, सतीश चन्द्र मित्तल स्वतंत्र भारत में ईसाईकरण के घिनौने प्रयास, पाञ्चजन्य 21 अप्रैल 2013) कांग्रेस सरकार के हिन्दू प्रतिरोध तथा मुस्लिम तुष्टीकरण एवं छद्मवेशी सेकुलरवादी दलों तथा संस्कृति विरोधी कम्युनिस्टों के प्रयासों से उपरोक्त दोनों बिल 1954 का इंडियन कन्वर्जन (रेग्यूलेटिव एण्ड रजिस्ट्रेशन बिल) तथा 1960 का बैकवर्ड कन्वर्जन (रिलीजन प्रोटेक्शन) बिल पास न हो सके। 1979 ई. में भी रिलीजस बिल आफ 1979 रखा गया परन्तु माइनॉरेटी कमीशन के प्रबल विरोध से पास न हो सका। मजहबी ईसाई नेता पोप के बार बार सरकारी स्वागत तथा उसके कुप्रचार ने भी ईसाई अल्पसंख्यकों को कन्वर्जन के लिए उत्साहित किया। इसी भांति मीनाक्षीपुरम में सामूहिक रूप से 500-600 की संख्या में मुसलमानों द्वारा कन्वर्जन होता रहा, केन्द्र सरकार उदासीन हो बैठी रही। स्थानीय प्रांतीय सरकारों ने जैसे ओडिशा ने 1967 में, मध्य प्रदेश ने 1968 में, छत्तीसगढ़ ने 2000 में गुजरात ने 2003 में, हिमाचल प्रदेश ने 2006 में, राजस्थान ने 2008 तथा तमिलनाडु ने 2002 व 2005 में इसे दिशा में कुछ प्रयास किये, परन्तु केन्द्रीय कानून तथा संविधान की बाधा में वे कानून इतने प्रभावी न हो सके। उपरोक्त कांग्रेसी नीति का परिणाम हुआ देश में मूल हिन्दू समाज की घटोतरी। 1951 में हिन्दुओं की जनसंख्या का अनुपात 84.98 प्रतिशत था तथा मुसलमानों का 11.21 प्रतिशत। 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दुओं का अनुपात घटकर 80.5 प्रतिशत रह गया तथा मुसलमानों का बढ़कर 13.4 हो गया। इसमें यदि अवैध रूप से बंगलादेश के घुसपैठियों को भी जोड़ें तो यह 16.00 प्रतिशत से अधिक बैठता है।
आज संपूर्ण देश में बढ़ती चेतनता, सकारात्मक तथा राष्ट्रहितकारी है। क्या अल्पसंख्यकों के नाम से जाने जाने वाले मुस्लिमों तथा ईसाइयों को ही दूसरो के कन्वर्जन का अधिकार है, बहुसंख्यकों को नहीं? (जे पण्डा, लूजिंग माइ रिलीजन, द टाइम्स ऑफ इंडिया, 25 दिसम्बर 2014) क्या अल्पसंख्यकों को छल-कपट, जोर जबरदस्ती विदेशी धन द्वारा कन्वर्जन के लिए संविधान मान्यता देता है? तथा इसके विपरीत क्या हिन्दू विरोधी समाज पुन: घरवापसी को स्वेच्छा से आये लोगों को, रोकने की नैतिक क्षमता रखता है। वस्तुत: भारत में वर्तमान में हिन्दू जागरण मंच, विश्व हिन्दू परिषद तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस दिशा में सार्थक तथा सराहनीय प्रयास रहे हैं।
आवश्यक है कि छल-कपट, प्रलोभन या जबरदस्ती किए जाने वाले कन्वर्जन के विरुद्ध सख्त प्रावधान बने। संविधान में की गई भूल में सुधार किया जाए। अनिवार्य हो तो संविधान में आवश्यक संशोधन किया जाये। उपरोक्त कानून भारत के सभी समाजों, सम्प्रदायों, मतों तथा पंथों के लिए हितकारी होगा। राष्ट्रीय कानून बनने पर ही प्रांतीय सरकारों द्वारा बनाये कानून अधिक सार्थक तथा प्रभावी होंगे। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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