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मुजफ्फर हुसैन
इस बार 26 जनवरी, 2015 को समस्त भारतवासी अपना 66वां गणतंत्र दिवस मनाते हुए अपने देश की इस गौरवमयी यात्रा पर सभी भारतीय तन-मन से प्रफुल्लित होंगे। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा की ऐतिहासिक उपस्थिति में इस बार देशवासियों को गणतंत्र दिवस की बधाई प्रस्तुत करेंगे। कौन भारतीय होगा जो इन क्षणों में स्वयं को गौरवान्वित महसूस नहीं कर रहा होगा? स्वतंत्रता के पश्चात हमने शीतल छांव भी देखी और युद्ध की सरकती परछाइयां भी। अकाल भी आए और हरित क्रांति को भी सफल होता हुआ अपनी आंखों से निहारा। दुनिया में अकेला भारत ऐसा देश है जो लोकतंत्र की डगर पर कुछ महीनों के लिए भले ही अटका अवश्य हो लेकिन 19 महीने के बाद भटका कभी नहीं। आणविक शक्ति में अपना लोहा मनवा लेने के पश्चात वह आज मंगल में भी विराजमान है। इसलिए हम भारतवासी बड़े विश्वास के साथ कह सकते हैं कि हम और हमारा देश गणतंत्र के लिए समर्पित हैं। यह अजर और अमर संकल्प हम कभी छोड़ने वाले नहीं हैं भारत के साथ-साथ 20वीं शताब्दी में अनेक देश आजाद हुए हैं। लेकिन वे कितने आजाद हैं, इसका आत्ममंथन तो उन्हें ही करना होगा। वे आतंकवाद के पालने में क्यों झूलने लगे, इसके लिए क्या वे स्वयं उत्तरदायी नहीं हैं इस पर उन्हें विचार करना होगा? हमारी यह सुन्दर दुनिया यदि नष्ट हुई तो इसके लिए उनका आतंकवादी दर्शन ही जिम्मेदार होगा।
स्वतंत्रता के पश्चात जब अपने देश को कारोबार करने के लिए संवैधानिक सिद्धांतों की आवश्यकता पर विचार होने लगा तो हमारे तत्कालीन नेताओं और मनीषियों ने भारत के प्राचीन इतिहास का मंथन प्रारम्भ किया। भारतीय तिरंगे के नीचे सभी ने यह संकल्प किया कि हमारा देश भूतकाल में जिस दर्शन और सिद्धान्त के कारण विश्वगुरु बना था उन्हीं को लौटाने के लिए फिर से अपना तन-मन-धन न्योछावर कर देने का विचार प्रारम्भ किया। इस भावना को सामने रखकर अंतत: 26 जनवरी, 1950 को हमारी संविधान सभा ने उसे स्वीकार कर लिया। संविधान बन जाने के पश्चात भी जब कभी आवश्यकता पड़ी उसमें संशोधन होते रहे। समस्या पर विचार करने के अनेक पहलू हो सकते हैं लेकिन उसका समाधान तो उसी केन्द्र बिन्दु पर ही होना चाहिए जो हमारे संविधान की आत्मा है। यदि इस आत्मा को केवल एक वाक्य में प्रदर्शित करना हो तो फिर हिन्दू विचारधारा के अतिरिक्त कोई प्रासंगिक और व्यावहारिक शब्द खोजने पर भी नहीं मिलता। लेकिन अपनी सत्ता कायम करने के लिए जब इस शब्द की अवहेलना होती है तो फिर विवाद छिड़ जाना अनिवार्य हो जाता है। बस यही वह मुद्दा है जब देश में कुछ बातों को लेकर राजनीतिक आधार पर उनका विश्लेषण होने लगता है और हर कोई अपना तर्क देकर उसे व्यावहारिक बनाने का प्रयास करता है। लेकिन हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान न केवल लिखा है बल्कि भारतीय संस्कृति से जुड़ी उन घटनाओं के चित्र भी प्रकाशित किए हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि हम आधुनिक दुनिया में कितनी ही उछलकूद करें और अपनी राजनीतिक पराजय के लिए किसी भी ग्रंथ और विचारधारा के सम्बंध में अपने थोथे तर्क के आधार पर भारतीय संस्कृति और हिन्दुत्व विचारधारा को आलोचना का शिकार बनाएं लेकिन इससे यथार्थ को कदापि छिपाया नहीं जा सकता है।
पिछले दिनों जब गीता जैसे महान और निर्वर्िवाद ग्रन्थ के सम्बंध में भी थोथी राजनीति का प्रदर्शन किया गया तब एक बात समझ में आने लगी है कि भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्देश्य एवं उसकी प्राप्ति के हेतु हमने जिस भारत के प्राचीन इतिहास को अपने समक्ष रखकर अपना मार्ग गत किया था उसे या तो हम भूल गए हैं अथवा अपने राजनीतिक स्वाथोंर् के लिए उसकी अनदेखी कर रहे हैं। लोकतंत्र में सत्ता किसी एक राजनीतिक दल के पास नहीं रह सकती है। इसलिए जब तक उसके पास है तब तक तो वह उसका समर्थक है किन्तु सत्ता के सरकते ही उन स्थायी मूल्यों में उसका विश्वास नहीं रहता है। यह कोई ढकी छिपी बात नहीं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दुत्व ही यहां की संस्कृति की आत्मा है। उस सुनहरे सिद्धांत को हम उस समय तक तो अपने माथे पर चढ़ाते हैं जब तक सत्ता में बैठे हुए होते हैं लेकिन सत्ता चली जाने के पश्चात उन मागोंर् को खोजने लगते हैं जिससे वे पुन: दिल्ली के सर्वेसर्वा बन जाएं। जिस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हिन्दू दर्शन के आधार पर इस देश की जनता को संगठित किया हो, आन्दोलन चलाए हों और अपार कष्ट भोगे हों उसे सत्ता सरक जाने के बाद वही व्यर्थ समझने लगते हैं। इतना ही नहीं अपने मन चाहे विश्लेषण के आधार पर उसे साम्प्रदायिकता के नाम से भी पुकारने लगते हों तब यह आवश्यक हो जाता है कि उन तत्वों को हमारे संविधान की उस आत्मा से परिचित करवाना होगा जिसे हमारे तत्कालीन राजनीतिज्ञों और दार्शनिकों ने आजादी मिल जाने के पश्चात सत्ता को स्थापित करने और नियंत्रित करने के लिए स्वीकारा था। इसके लिए यह आवश्यक होगा कि हमें संविधान की उस सामग्री को भी जनता जनार्दन के सम्मुख प्रस्तुत करना होगा जिसे आज के स्वार्थी और अदूरदर्शी राजनीतिज्ञ अपनी मनचाही शब्दावली में व्याख्या करके लोगों को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। उससे जनता को जागरूक करना और उनमें राष्ट्रवाद के विचार का संचार करना क्या अपराध हो सकता है? अपनी प्राचीन पहचान, अपने धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल तथा चिन्ह, अपनी मौलिक भाषा, जीवन पद्धति और आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों के प्रति जागरूकता पैदा करना क्या राष्ट्र विरोधी हो सकता है? यदि हो सकता है तो फिर उनके खरे खोटे होने का प्रमाण क्या है? इन सभी बातों में तनिक भी भटकाव नहीं आए इसलिए भरतीय संविधान के निर्माताओं ने वे घटनाएं न केवल शब्दों में बल्कि साक्षात चित्रों में भी प्रस्तुत कर दी हैं। इसलिए यह अत्यंत अवश्यक है कि हमारे संविधान के उस भाग को भी जनता जनार्दन के सम्मुख प्रस्तुत करना ही चाहिए। इससे हर भारतीय अपने विवेक के आधार पर इस बात का फैसला करने में सक्षम होगा कि इसमें सच क्या है और झूठ क्या, इसमें खरा कौन है और खोटा कौन?
इसकी पड़ताल करने के लिए संविधान सभा ने एकमत होकर संविधान के ही एक भाग में कुछ ऐतिहासिक चित्र एवं उनसे सम्बंधित विवरणों का समावेश किया है। इस विवरण को रामपुर के प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने केवल पांच माह की अवधि में 28 नवम्बर, 1949 तक तैयार कर संविधान में शामिल किए जाने का भगीरथ काम अंजाम दिया था। अप्रैल, 1950 यानी केवल पांच माह की अवधि के भीतर यह ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न हुआ था। इन हस्तलिखित पन्नों को संविधान में सजाने का काम देश में अपने सुन्दर हस्तलेख के लिए प्रसिद्ध शांति निकेतन से जुड़े प्रसिद्ध कलाकार नंदलाल बोस ने चार वर्ष में पूर्ण किया था। उक्त दृश्य मोहनजोदड़ो एवं वैदिक काल से प्रारम्भ होकर भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन तक की घटनाओं तक को दर्शाते हैं। उक्त कार्य स्वयं जवाहरलाल नेहरू के आग्रह से किया गया था। जवाहरलाल नेहरू की इच्छानुसार इन दृश्यों को सोने के फ्रेम में मढ़ा गया है। इस ऐतिहासिक कार्य के लिए नंदलाल जी बोस को 21000 रुपए का पारिश्रमिक प्रदान किया गया था। उक्त ऐतिहासिक घटनाएं 221 पृष्ठों में प्रस्तुत की गई हैं। इस ऐतिहासिक दस्तावेज संविधान सभा में 26 जनवरी 1950 को प्रस्तुत किए गए थे। संविधान की मौलिक प्रति इन सभी वस्तुओं के साथ नई दिल्ली के संसद भवन में एक स्टील बॉक्स में सुरक्षित है। वैज्ञानिक रूप से इनकी सुरक्षा की व्यवस्था की गई है।
भारतीय संस्कति से जुड़े दस्तावेजों की सूची, जो उक्त मौलिक संविधान की प्रति के साथ रखी गई है प्रस्तुत है। भारत में प्रारम्भ से ही सौहार्द का वातावरण रहा है। भूतकाल में इन सभी बातों के होते हुए किसी का र्म और किसी की संस्कृति खतरे में नहीं पड़ी तो अब यदि कोई व्यक्ति अथवा संगठन उसी लीक पर अपने विचार व्यक्त करता है तो अन्य लोगों का धर्म और संस्कृति खतरे में किस प्रकार पड़ सकते हैं?भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल ने स्वयं इन सभी बातों को हिन्दुत्व की दृष्टि से देखा और उनकी मुक्तकंठ से न केवल प्रशंसा की बल्कि अपना अगाध विश्वास और आस्था व्यक्त की तो अब उनका नाम लेकर कोई भारतीय संस्कृति को बदनाम करना चाहता है तो निश्चित ही यह चिंता और चिंतन का विषय बन जाता है।
आज के परिप्रेक्ष्य में यदि इन बातों को कोई हिन्दू संगठन ज्यों का त्यों प्रस्तुत करता है तो फिर देश की हानि किस प्रकार हो सकती है? क्या उन्हें अब उसी संस्कति और उन्ही विचारों से भय लगने लगा है? अथवा उनकी राजनीतिक रोटियां सेंकने में उनको कठिनाई हो रही है तो यह उनका अवसरवाद और संकीर्णता ही कहलाएगी। हिन्दुत्व का नाम स्वतंत्रता संग्राम में किसी के लिए भय का विषय नहीं था लेकिन जब आज सत्ता हाथ से सरक गई है तो वे ही विचार उनको लिए देश को तोड़ने और खतरा पहंुचाने वाले लग रहे हैं।
संविधान निर्माताओं को इस बात का आभास था इसलिए उन्होंने संविधान के साथ-साथ भारत के सांस्कृतिक पहलू को भी जोड़ दिया है। इसलिए जिस विचारधारा के आधार पर राष्ट्र जन्मा, उसे विदेशियों से स्वतंत्रता मिली और आजादी के बाद इतना विकास हुआ कि वह आज 21वीं शताब्दी में विश्व की महाशक्ति बनता हुआ दिखलाई पड़ रहा है।' अब यदि कोई इस विचारधारा और शक्तिशाली नेतृत्व को सहन नहीं कर सकता है तो यह किसका दोष है? हिन्दुत्व का कदापि नहीं जो भूतकाल में भी महान था और आज पुन: विश्वगुरु बनने की दिशा में अग्रसर है। हमारे संविधान के इस भाग को जनता के सम्मुख प्रस्तुत कर जनता में विश्वास और उत्साह का वातावरण पैदा करना हर राष्ट्रवादी भारतीय का कर्तव्य एवं दायित्व है। यदि स्वयं सरकार इन पृष्ठों को पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करवाकर जनता के बीच पहुंचाएगी तो बहुत सारे भ्रमों का निवारण हो सकेगा।
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