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आशुतोष भटनागर
जम्मू-कश्मीर में एक बार फिर से राज्यपाल शासन की घोषणा कर दी गयी है। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि जब राज्य में चुनाव में धांधलियों के आरोप लगते हैं, बड़े पैमाने पर मतदान का बहिष्कार होता है तो राज्य में सरकार बन जाती है। लेकिन जब सर्वाधिक निष्पक्ष चुनाव हुआ और जनता ने निर्भीक होकर मतदान किया तो सरकार बनाने की प्रक्रिया ही खटाई में पड़ गयी।
राज्य में दशकों तक चली सत्तालोलुप राजनीति ने परिस्थति को यहां तक पहुंचाया है। देश के सामने आज यह अवसर उत्पन्न हुआ है जब इसका गहन विश्लेषण किया जाय ताकि भविष्य के लिये दिशा निर्धारित की जा सके। जम्मू-कश्मीर में चुनाव परिणाम घोषित हुए एक महीना बीत चुका है, किन्तु सरकार बनाने का मामला अभी भी अधर में है। भाजपा के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले घाटी के दलों के सामने यह धर्मसंकट है कि उसके साथ मिल कर सरकार बनायी तो अपने विधायकों और पार्टी नेताओं को क्या समझायेंगे। राज्य की जनता ने तो अलगाववादियों और आतंकवादियों को ठेंगा दिखा कर लोकप्रिय सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया किन्तु वहां के सियासी रहनुमा इसमें अभी भी संकोच कर रहे हैं। कारण साफ है, अलगाववादियों के साथ जनता की तुलना में राजनेताओं के रिश्ते न केवल ज्यादा गहरे हैं बल्कि इसका ज्यादा लाभ भी उन्होंने ही उठाया है। आपत्ति न भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने में है और न ही उसके मुख्यमंत्री बनने की वजह से है। समस्या का केन्द्र-बिन्दु है जम्मू का हिन्दू मुख्यमंत्री। छह साल से राज्य में सत्ता सुख भोग रहे उमर अब्दुल्ला, जो चुनाव परिणाम अपने विरुद्धआने के बाद भी सरकार बनाने की उतावली दिखा रहे थे, ने विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही कार्यवाहक मुख्यमंत्री के पद को संभालने में असमर्थता व्यक्त कर दी।
जम्मू-कश्मीर के चुनाव में वहां के मतदाताओं ने भारत के इस दावे की पुष्टि कर दी कि न केवल जम्मू-कश्मीर वैधानिक दृष्टि से भारत का अभिन्न अंग है अपितु राज्य के निवासी भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने के इच्छुक हैं। उन्हें स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान का अवसर उपलब्ध कराया गया और उन्होंने बहिष्कार के आह्वान और आतंकी धमकियों को नजरअंदाज कर पूरी ताकत के साथ मतदान किया। यह तस्वीर का एक पहलू है।परिणाम के रूप में खंडित जनादेश आया और 25 सीटों के साथ भाजपा ने सरकार में शामिल होने का इरादा जताया। कश्मीर घाटी के राजनैतिक दल, 15 सीटों के साथ नेशनल कांफ्रेंस और 28 सीटों के साथ पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, दोनों ही सरकार बनाने की तैयारी दिखाने लगे। नेशनल कांफ्रेंस, वास्तव में जिसे हार का सामना करना पड़ा था, के नेता उमर अब्दुल्ला तो चुनाव के दौरान ही भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने की बात कह चुके थे। वहीं, सबसे बड़ा दल होने के कारण पीडीपी तो अपना हक ही मानती है।
तस्वीर का दूसरा पहलू तब सामने आया जब दोनों दल, जिन्होंने भाजपा को चुनाव प्रक्रिया के दौरान पानी पी-पी कर कोसा था, भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने को बेताब नजर आये। यद्यपि कांग्रेस दोनों के लिये ही सहज विकल्प थी लेकिन मात्र 12 सीटों के साथ चौथे पायदान पर फिसलने ने उसकी मोल-तोल की क्षमता को काफी कम कर दिया था। पेंच तब फंसा जब भाजपा ने अपने लिये मुख्यमंत्री पद का दावा किया। यहीं से सत्ता का गणित बिगड़ना शुरू हो गया।हालांकि जम्मू के मुख्यमंत्री का नारा भाजपा ने चुनाव के पहले ही दे दिया था और इसका फायदा भी उसे मिला। वहीं घाटी में सभी दलों ने अपने मतदाताओं का भयादोहन भी जम्मू के मुख्यमंत्री का भय दिखा कर ही किया। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि भाजपा ने कोई अप्रत्याशित मांग कर दी। लोकिन दोनों ही दल इस मांग पर बगलें झांकने लगे। दोनों ही दलों को आपत्ति भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाने में नहीं बल्कि जम्मू के, अथवा जिसे तोड़-मरोड़ कर हिन्दू बताया जा रहा है, के मुख्यमंत्री बनने से है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कांग्रेस भी इस कोरस में शामिल हो गयी। विधानसभा में इकलौते कम्युनिस्ट विधायक तारीगामी ने भाजपा को रोकने के लिये नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस को मिल कर सरकार बनाने की अपील की। बाद में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने भी इस फार्मूले को दोहराया। यह ठीक वही तरीका है जिसे 1996, 98 और 99 के आम चुनावों में दिल्ली में अपनाया गया था। तारीगामी ने यह फार्मूला तो याद रखा लेकिन उसका परिणाम भूल गये। देश ने भाजपा को रोकने के लिये किये गये इस अनैतिक गठबंधन के विरुद्ध तब भी मतदान किया था और आज तो कहा जा सकता है कि गठबंधन की सिद्धांतहीन राजनीति का वह दौर ही समाप्ति की ओर है।
जम्मू-कश्मीर में फार्मूला वही है लेकिन इसके अर्थ गहरे हैं। 90 के दशक में चली दिल्ली की राजनीति में उद्देश्य भाजपा को रोकना था जिसके लिये सभी दलों को एकजुट होने का लोकतांत्रिक अधिकार था। जम्मू-कश्मीर में आज उद्देश्य भाजपा को रोकना नहीं है। उद्देश्य है जम्मू के निर्वाचित प्रतिनिधि को मुख्यमंत्री बनने से रोकना, और इसके लिये एक हिन्दू के मुख्यमंत्री बनने के अधिकार को ही चुनौती देना। किसी भी लोकतंत्र में इससे अधिक आपत्तिजनक कुछ नहीं हो सकता जब किसी व्यक्ति या दल को इस आधार पर वंचित कर दिया जाय कि वह किसी एक क्षेत्र अथवा समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन ऐसा हो रहा है और न तो अपने-आप को लोकतंत्र का रखवाला जताने वाले राजनैतिक दलों को और न ही कथित सेकुलर बुद्धिजीवियों को इसमें कोई खोट नजर आ रहा है।
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