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आवरण कथा/धरती वीरों की –
भारत की धरा 'वीरभोग्या वसुंधरा' के गान से अभिमंत्रित है। मातृभूमि के सम्मान की रक्षा के लिए असंख्य बलिदानियों ने अपने रक्त से भारत माता के चरणों को अभिसिंचित किया है। बलिदानियों की गाथा इतनी रोमांचकारी और प्रेरणास्पद है कि बार-बार स्मरण करने व दोहराने का मन होता है। ऐसे वीर बलिदानियों की स्मृतियों को अक्षुण्ण रखने के लिए ही कहा गया कि 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।' इतिहास साक्षी है कि विषम से विषम परिस्थितियों में भारत माता के सपूतों ने शत्रु के सामने कभी घुटने नहीं टेके। भारत के वीरों का अदम्य शौर्य ऐसा रहा है कि दुश्मन भी उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहा। उदाहरण के तौर पर चीन से हुए 1962 के युद्ध में रेजांग ला दर्रे पर भारत के मात्र 120 फौजियों ने चीन के 1300 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। इस युद्ध में हमारे 114 जवान बलिदान हो गए थे, बाकियों को चीन ने बंधक बना लिया था। 13 कुमाऊं रेजीमेंट की 'अहीर चार्ली' कंपनी की इस बहादुरी को देखते हुए चीन के सरकारी रेडियो ने भी केवल इसी जगह पर चीन की हार स्वीकार की थी। इस युद्ध में शहीद होने वाले ज्यादातर जवान हरियाणा के रिवाड़ी के पास अहीरवाल क्षेत्र के थे। आज भी रेजांग ला दर्रे पर 'अहीर' धाम बना हुआ है। बलिदानियों के शौर्य और साहस की ऐसी सैकड़ों कहानियां हैं। भारतवर्ष का हर कोना वीरों और वीरों की गाथाओं से भरा पड़ा है। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में स्थित सैदपुर गांव ऐसे ही वीरों का गांव है। देशज भाषा में इस गांव का भूरो का सैदपुर (भूरो यानी गौर वर्ण) कहा जाता है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि इस गांव के युवक हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले, गोरे और तीखे नैन-नख्श वाले होते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूरे का अर्थ गोरे से होता है। इसलिए इस परिक्षेत्र में इस गांव को 'भूरो का सैदपुर' कहा जाता था। इस गांव के लोग शुरू से ही सेना में रहे हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में इस गांव के युवकों को फौज में भर्ती के लिए विशेष वरीयता दी जाती थी। इसके चलते यह 'फौजियों के गांव' के नाम से भी जाना जाता है। सैदपुर गांव के जवानों ने प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर आज तक जितने भी युद्ध हुए हैं हर जगह उपस्थिति दर्ज कराई है। इस गांव में फौज से सेवानिवृत्त और देश के लिए बलिदान दे चुके फौजियों की 300 से ज्यादा विधवाएं हैं। इस पूरे परिक्षेत्र में सैदपुर ही एक मात्र ऐसा गांव है जहां देश के लिए प्राण न्योछावर करने वाले जवानों की फेहरिस्त सबसे लंबी है। इस गांव में प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री तक पहुंचते रहे हैं। यदि इसे सूरमाओं का तीर्थस्थल कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सैदपुर का इतिहास
दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर दूर है सैदपुर। इस गांव में शौर्य, साहस और मातृभूमि के लिए जान तक न्योछावर करने की परंपरा पुरानी है। यहां परिवार फौजी परिवार हैं। गांव में शायद ही ऐसा कोई घर होगा जहां कोई फौजी नहीं है। किसी किसी परिवार में तो पीढि़यों से सभी फौज में रहे हैं। बात अंग्रेजों के शासन काल की हो या आजादी के बाद की, यहां के जवानों ने वीरता एवं शहादत की अद्वितीय इबारत लिखी है। बीसवीं सदी से बात शुरू करें तो यहां के फौजियों के पराक्रम की बात करना प्रथम विश्वयुद्ध से सही रहेगा। जब प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई तो अंग्रेजों ने देश के विभिन्न प्रांतों से सेना में भर्ती हुए फौजियों को दूसरे देशों में युद्ध लड़ने के लिए भेजना शुरू किया। पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से चुने हुए सैनिकों को विशेष तौर पर विश्वयुद्ध में लड़ने के लिए भेजा गया। उन दिनों हिंदुओं में समुद्र पार करना सही नहीं माना जाता था। इसलिए बहुत से सैनिकों ने युद्ध में जाने से मना कर दिया लेकिन सैदपुर एकमात्र ऐसा गांव था जिसके के 155 जवानों ने युद्ध की चुनौती को स्वीकार किया और विदेश में जाकर लड़ने के लिए तैयार हो गए। वर्ष 1914 में गांव के 155 सैनिकों को जर्मनी भेजा गया। जर्मनी में सैदपुर के जवानों ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन कर भारत के बहादुरों का मान रखा। इन जवानों में 29 जवान बलिदान हो गए। जबकि 60 जवान वहीं पर बस गए। बाकी घर वापस लौट आए। जर्मनी में जिस जगह जवानों ने निवास किया उस जगह का नाम जाटलैंड रखा। आज भी इस गांव के बुजुर्ग बड़े गर्व के साथ बताते हैं कि जर्मनी में उनके पूर्वज रहते हैं।
हर युद्ध में दिया बलिदान
आजादी के बाद जितने भी युद्ध हुए, हर एक में जैतपुर के फौजियों ने अद्भुत और अदम्य साहस का प्रदर्शन किया। फिर चाहे वह 1962 में भारत और चीन के साथ हुए युद्ध हों या फिर 1965 और 1971 में पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध। जम्मू-कश्मीर में आतंकी घुसपैठ को नाकाम करने में भी यहां के जवानों ने बलिदान दिया है। 1965 की लड़ाई में सैदपुर के कैप्टन सुखबीर सिंह पंजाब के खेमकरण सेक्टर में दुश्मन के साथ लड़ते हुए शहीद हुए थे। तब केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी भारत पाक युद्ध में शहादत देने वाले कैप्टन सुखबीर सिंह सिरोही का अस्थि कलश लेकर स्वयं गांव पहुंची थीं। 1971 के युद्ध में गांव के विजय सिरोही व मोहन सिरोही एक ही दिन बलिदान हुए थे। करगिल युद्ध में यहां के जवान सुरेंद्र सिंह ने बलिदान दिया था। वीरों की वीरता की यहां ऐसी एक दो कहानियां नहीं बल्कि सैकड़ों कहानियां हैं। फौज से सेवानिवृत्त होकर गांव में रह रहे बुजुर्ग फौजियों से यदि बात की जाए तो उनके पास सैकड़ों ऐसी कहानियां हैं जो भारतीय फौज की वीरता और साहस की मिसाल कायम करती हैं। यह बात और है कि गांव में सुविधाएं न होने के चलते ज्यादातर फौजी दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद सहित देश के अन्य शहरों में बस गए हैं।
गांव के बीचों बीच बना हुआ है शहीद स्तंभ
सैदपुर गांव के बीचोंबीच शहीद स्तंभ बना हुआ है। इस स्तंभ पर गांव के उन वीरों के नाम लिखे हैं जिन्होंने देश की अखंडता और एकता को बचाए रखने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। इसके सामने से गुजरते हुए गांव के हर व्यक्ति का सिर वीरों के सम्मान में स्वत: ही झुक जाता है।
प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक आ चुके हैं यहां
फौजियों का गांव कहे जाने वाले सैदपुर में पूर्व प्रधानमंत्री स्व इंदिरा गांधी, स्व. चौधरी चरण सिंह भी आ चुके हैं। इसके अलावा उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए बाबू बनारसी दास, रक्षा मंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव भी गांव में आ चुके हैं।
दादी धाम में है अडिग आस्था सैदपुर गांव के बाहर मुख्य सड़क मार्ग पर गांव के लोगों की आस्था का प्रतीक एक मंदिर 'दादी धाम' है। हर नवरात्र पर यहां मेला लगता है। जिसमें हर परिवार से कोई न कोई जरूर पहुंचता है। गांव के लोगों का कहना है कि चाहे वह परिवार विदेश में ही क्यों न रहता हो वर्ष में एक बार दादी धाम के दर्शनों के लिए उस परिवार का एक न एक सदस्य जरूर गांव में आता है। इस मंदिर में आस्था होने के पीछे भी गांव वाले एक कहानी बताते हैं। दरअसल पूरे सैदपुर में जाटों का गोत्र सिरोही है। सभी आज करीब 500 वर्ष पूर्व राजस्थान से यहां आकर बसे थे। तब गांव की बुजुर्ग महिला जो बड़ी तपस्विनी थीं। गांव के सभी लोग उन्हें दादी बुलाते थे। वे भगवान भजन करते हुए जमीन में समा गईं। उस भूमि पर गांव वालों ने उनकी समाधि बनाई। तभी से दादी धाम ग्रामीणों की आस्था का केंद्र है। हर शुभ कार्य से पहले गांव वाले दादी धाम आकर दादी की समाधि के आगे शीश जरूर नवाते हैं। नवरात्रों के समय गांव में मेला लगता है तब यहां की बड़ी रौनक होती है।
सभी युद्ध लड़े पर कुछ याद नहीं
गांव के ही एक और बुजुर्ग फौजी हैं स्वराज सिंह जो आज 89 वर्ष के हैं। उन्होंने 1947, 1962, 1965 और 1971 में दुश्मन से लोहा लिया। वे अंग्रेजों के शासन के दौरान 1944 में फौज में भर्ती हुए थे। 'उनकी बटालियन का नाम सेकेंड रॉयल लांसर्स था।' स्वराज सिंह के पोते बताते हैं कि उनके दोनों ताऊ फौज में थे। छुट्टियों से वापस लौटने के दौरान एक की दुर्घटना में मौत हो गई तो दूसरे की बीमारी के चलते मौत हो गई। इसके बाद से उनके बाबा स्वराज की यादाश्त कम होती चली गई। वे ज्यादा किसी से बात नहीं करते सिर्फ अपनी ही धुन में रहते हैं। हालांकि फौज की नौकरी के दौरान उन्हें कई पदकों से सम्मानित किया गया है।
पति ने बलिदान दिया तो भी फौज में भेजा बेटा
अपने माता पिता की इकलौती संतान सैदपुर के सिपाही शेरसिंह वर्ष 1997 में कुपवाड़ा में आतंकवादियों से लोहा लेते हुए बलिदान हो गए थे। तब उनका बेटा महज पांच साल का जबकि बेटी ढाई साल की थी। उनकी पत्नी मुनीष ने अपने बेटे को पढ़ाया लिखाया और जैसे वह 18 वर्ष का हुआ उसे फौज में भर्ती होने के लिए भेज दिया। मुनीष कहती हैं कि यदि उनका एक और बेटा होता तो वह भारत माता की सेवा के लिए उसे भी फौज में ही भेजतीं।
जब फौजी लौटते थे तो मेला सा लगता था
सैदपुर में जब फौजी छुट्टियों में अपने घर लौटते थे तो मेला सा लगता था। गांव वालों के अनुसार छुट्टियों के दौरान बड़ी संख्या में फौजी समूहों में गांव में लौटते थे। पुराने समय में छुट्टियों से लौट रहे फौजियों को देखने आसपास के गांव वालों की भीड़ सड़क पर इकट्ठी हो जाती थी। सब फौजियों से बात करने और सीमा के किस्से सुनने को इच्छुक रहते थे।
कितने ही वीरों को मिला है पदक
सैदपुर गांव के कितने ही जवानों को उनकी वीरता के लिए पदक मिल चुका है। गांव में बीस फौजियों को सेना पदक, तीस को वीरता पदक,एक को महावीर चक्र, दो को वीर चक्र व चार को शौर्य चक्र मिला चुका है, और भी न जाने कितने पदक गांव के फौजियों के खाते में आए हैं। गांववालों का कहना है कि आज भी गांव का जवान होता हर नवयुवक फौज में भर्ती होने की तैयारी करता है। यहां के युवकों के लिए फौज में नौकरी करना महज नौकरी नहीं बल्कि देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा दर्शाती है। ल्ल
गांव में सीधे भर्ती के लिए लगता था कैंप
फौजी स्वरूप सिंह बताते हैं कि 1975 तक फौज में भर्ती के लिए सैदपुर गांव में विशेष भर्ती होती थी। गांव के इंटर कॉलेज का नाम ही 'मिलिट्री हीरोज मैमोरियल इंटर कॉलेज ' है। इसी के मैदान में भर्ती के लिए फौज विशेष कैंप लगाती थी। इसके बाद सीधे भर्ती होनी बंद हो गई। इस बारे में कई बार बात की गई लेकिन इसके बाद गांव में सीधे भर्ती के लिए कैंप लगने बंद हो गए।
टैंक छोड़कर भागे थे पाकिस्तानी
वीरता पदक से सम्मानित सैदपुर के सूबेदार स्वरूप सिंह 65 वर्ष के हैं। वे 1970 में सेना में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे। 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध में उनकी वीरता के प्रदर्शन के लिए उन्हें वीरता पदक से सम्मानित किया गया था। उन्होंने 1971 की लड़ाई का एक संस्मरण बताया।
वर्ष 1970 में भर्ती होने के बाद उनकी तैनाती 'नाइन हॉर्स' बटालियन में थी। वह अपनी यूनिट के साथ छंभ जोडि़यां में तैनात थे। 2 दिसंबर को हमें बहुत सचेत रहने के आदेश मिले थे। 4 दिसंबर को पाकिस्तान की तरफ से हमला कर दिया गया। हमारे पास कुल 45 टैंक थे। जबकि पाकिस्तान अपनी टैंकों की बिग्रेड 'तूफान डिवीजन' के साथ हमारे सामने था। पाकिस्तान की टैंकों की इस डिवीजन में पाकिस्तान के पास पैटन टैंक थे जो उसे अमरीका से मिले थे। पाकिस्तानी फौज लगभग 270 टैंकों के साथ हमारे सामने थी। 4 दिसंबर की रात पाकिस्तान फौज ने हम पर हमला कर दिया। मशीनगनों और टैंकों के साथ हमने भी पाकिस्तान को कड़ा जवाब दिया। पूरी रात गोलाबारी होती रही, हमारे पास टैंक थे, लेकिन कम थे। एयरफोर्स से मदद मांगी गई लेकिन रात को एयरफोर्स से मदद नहीं मिल सकी। हालात खराब होने पर 5 दिसंबर की भोर में हमें पीछे हटने को कहा गया। रणनीति के तहत हम अपने टैंक लेकर पीछे हटे। 'त्रिटू हाई ग्राउंड' एक इलाका पड़ता है हम अपनी यूनिट के साथ वहां पहुंच गए। 6 दिसंबर की सुबह हमारे पास रिकवरी और नए टैंक पहुंच गए। रणनीति के तहत हमने 6 दिसंबर की रात को टैंकों के साथ चिनाब नदी पार की और पाक फौज पर हमला बोल दिया। सुबह की पहली किरण के साथ एयरफोर्स भी मदद के लिए पहंुच गई। उस समय का नजारा देखने लायक था। हम पाकिस्तान का एक टैंक उड़ाते थे तो वे दो छोड़कर स्वयं ही भाग जाते थे। पाकिस्तान की फौज भाग रही थी और हमारी फौज 'हर हर महादेव' के नारे लगाते हुए लगातार आगे बढ़ रही थी। सात दिसंबर दोपहर 12 बजे तक फैसला हो चुका था। हमारी फौज ने पाकिस्तान की फौज को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया था। हालांकि इस मोर्च पर हमारी यूनिट के 45 जवान भी शहीद हुए लेकिन पाकिस्तानी फौज अपने नए पैटन टैंकों को छोड़कर भाग निकली। हमारी यूनिट उनके टैंकों को खींचकर जम्मू में लाई और 'पैटन नगर 'नाम से उनकी नुमाइश (लोगों के देखने के लिए) लगाई। जम्मू में लोग टैंक देखने आते थे और भारतीय फौजियों से हाथ मिलाते हुए टैंकों पर चढ़कर फोटो खिंचवाते थे। अपने पदक दिखाते हुए आज भी स्वरूप सिंह का चेहरा गर्व से चमक उठता है।
11 महीने 17 दिन तक रहना पड़ा चीनियों की कैद में
गांव के ही सूबेदार नेपाल सिंह 1960 में भारतीय फौज में भर्ती हुए थे। 1984 में सेवानिवृत्त होने के बाद वे गांव में ही रहते थे। सूबेदार नेपाल सिंह 1962 में भारत और चीन के बीच हुए युद्ध में हिस्सा ले चुके हैं। उन्होंने बताया कि 1962 में उनकी तैनाती लद्दाख की गलवान घाटी में नाला जंक्शन पर थी। 17 अक्तूबर की रात नौ बजे चीन ने हम पर हमला कर दिया। वे बताते हैं, 'हमारे यूनिट में कुल 278 जवान थे उस तरफ चीनी फौजियों की संख्या हमसे कई गुणा ज्यादा थी। उनके हथियार उन्नत किस्म के थे। जबकि हमारे पास सबसे बड़ा हथियार दो इंच का मोर्टार था। बर्फ के कारण असलहे जाम हो गए थे। जब तक हमारे पास गोला बारूद था हमने उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। धीरे-धीरे गोला बारुद खत्म हो गया। हमारे 276 साथी शहीद हो गए। सिर्फ मैं और सिपाही नेकीराम जिंदा बचे। मैं एक चट्टान के नीचे से दुश्मन पर मशीन गन से फायरिंग कर रहा था। तभी पांच गोलियां मेरी टांग पर लगीं, मैं बेहोश हो गया। जब होश में आया तो खुद को चीनियों की कैद में पाया।
18 अक्तूबर शाम को मुझे कैद कर लिया गया। मैं पूरे 11 महीने 17 दिन चीनियों की कैद में रहा। जहां मैं कैद था वहां पर 96 भारतीय फौजी और बंदी थी। इतने दिनों की कैद के दौरान रोजाना तीनों वक्त एक ही तरह का भोजन दिया जाता था। मैदे की बनी हुई कुछ चीज हमें तीनों वक्त भोजन में परोसी जाती थी। चीनियों की कैद में रहना एक ऐसा अनुभव है जिसे मैं मरते दम तक नहीं भूल सकता। ' -आदित्य भारद्वाज
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