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एक दृष्टिकोण है कि पश्चिमी एवं विकासशील देश एक ही नाव में समुद्र पार कर रहे हैं। अमरीका में बसे भारतीय प्रवासियों द्वारा अमरीका के विकास में योगदान देना हमारे लिये सुखद है चूंकि अमरीका की प्रगति हमारी साझा नाव की ही प्रगति है। दूसरा दृष्टिकोण है कि पश्चिमी और विकासशील देशों में शीतयुद्घ चल रहा है। विश्व आय में दोनों गुट अपने-अपने हिस्से को बढ़ाने की जुगत में लगे हैं, जैसे एक रोटी का बंटवारा इन दोनों के बीच होना है। इस दृष्टिकोण के अनुसार प्रवासियों द्वारा पश्चिमी देशों के विकास के लिए काम करने से भारत का हिस्सा छोटा होता है।
वास्तविकता दोनों दृष्टिकोणों के बीच है। एक सीमा तक पश्चिमी देशों के विकास का लाभ भारत को मिलता है, जैसे इन देशों में टेलिविजन और कम्प्यूटर के विकास का लाभ हमें मिला है। परन्तु दूसरे दृष्टिकोण को भी नकारा नहीं जा सकता है। आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व विश्व अर्थव्यवस्था में भारत और चीन का हिस्सा लगभग 25-25 प्रतिशत था। बचे 50 प्रतिशत में शेष विश्व सिमट गया था। इसके बाद उपनिवेश काल में भारत का हिस्सा एक प्रतिशत रह गया था। इसी दौरान पश्चिमी देशों का वर्चस्व बढ़ा और अकेले अमरीका पूरे विश्व की आधी आय का केन्द्र बन गया। भारत का पतन और पश्चिमी देशों की बढ़त एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
1969 में 19 वर्ष की आयु में मैं पढ़ाई करने अमरीका गया था। जाते समय उस देश में बसने की तीव्र इच्छा थी। मैं समझता था कि भारत उस तरह से कुछ पिछड़ा देश है। अमरीका में अर्थशास्त्र की पढ़ाई की तब समझ आया कि भारत की बदहाली के लिये पश्चिमी देश नब्बे प्रतिशत जिम्मेदार हैं। तब मैंने निर्णय लिया कि मैं भारत वापस आऊंगा। पश्चिम में रहकर भी मैं भारत के लिये कार्य कर सकता था परन्तु इस प्रेम का प्रमाण नहीं रहता है। जमींदार के ठिकाने में बैठकर गरीब की सेवा करना मान्य नहीं होता है।
हमारे प्रवासी भारत में आर्थिक मदद भेजते हैंं। इनकी भावना का मैं सम्मान करता हूं। परन्तु ऐसी मदद तभी फलीभूत मानी जा सकती है जब वह पैसा सच्ची कमाई से किया गया हो। दिवंगत स्वामी मुक्तानंद एक बार एक उद्यमी के घर गये, उन्हें आशीर्वाद दिया। बाद में उन्हें पता लगा कि वह शराब का ठेका चलाता था। वे वापस गये और उससे बोले, शराब का कारोबार बन्द करेा अन्यथा मैं आपके दान की रकम वापस लौटाता हूं और अपना आशीर्वाद वापस लेता हूं। गलत तरीके से कमाए धन से किया गया धर्मादा सफल नहीं होता है। आज हमारे प्रवासी उन पश्चिमी देशों में अपने अपने कामों में लाभ कमा रहे हैंं जिनकी नीतियां भारत-विरोधी हैं। उनकी उन नीतियों के परिणामस्वरूप भारत गरीब हो रहा है। वे भारतवंशी वहां कमाए पैसे से भारत में आर्थिक मदद भेजते हैं। इस मदद से भारत की गरीबी दूर नहीं होगी वैसे ही जैसे बंधुआ मजदूर की गरीबी जमींदार द्वारा दो जोड़ी धोती देने से दूर नहीं होती है।
यूं भी भारत को विदेशी धन की जरूरत नहीं है। भारत की ही पूंजी भारी मात्रा में बाहर जा रही है। सरकार द्वारा काले धन की वास्तविकता को स्वीकार करना इस बात का प्रमाण है। अत: सरकार को प्रवासियों से आर्थिक मदद मांगने की बजाय घरेलू गवर्नेंस को सुधारना चाहिये जिससे देश की पूंजी बाहर न जाये। अपने अपने देशों में डब्ल्यूटीओ जैसी नीतियों का विरोध करना ही प्रवासियों की सच्ची देशभ्क्ति होगी।
सरकार की दूसरी अपेक्षा आधुनिक तकनीकों की है। यहां भी पुनर्विचार करने की जरूरत है। हाल में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि 'पिछले 200 वषार्ें में प्रवासियों का स्वागत करने से हमने दूसरे देशों को मात दी है।' इसे यूं समझें जैसे रूस से गये अप्रवासी का स्वागत करने से अमरीका ने रूस को मात दी हो।
प्श्चिमी देशों की तकनीकी ताकत के पीछे प्रवासियों के योगदान के अन्य प्रमाण भी उपलब्ध हैं। 'अमेरिकाज़ क्वार्टरली' पत्रिका के अनुसार अमरीका में पंजीकृत किये गये पेटेंट में 24 प्रतिशत प्रवासियों द्वारा लिये जाते हैं। नई कम्पनियेां में प्रवासियों का हिस्सा 25 प्रतिशत है। आज अमरीका की 100 सबसे तेजी से बढ़ने वाली कंपनियों में 6 भारतीय प्रवासियों द्वारा स्थापित की गई हैं। भारतीय लोगों में नई तकनीकों की खोज करने एवं नई तकनीकों को स्थापित करने की पर्याप्त क्षमता है। लेकिन समस्या है, भारत में गवर्नेन्स, जिसके चलते नौकरशाहों के बीच रास्ता बनाने में व्यक्ति की प्रतिभा नष्ट हो जाती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन्हीं बाधाओं को दूर करने की बात की है। मेरे एक परिचित ने अमरीका के नामी मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेकनोलाजी से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की। भारत वापस आकर वे व्यापार में लगे। असफल रहे। पस्त होकर वे वापस अमरीका गये और आज वे वहां अरबों डालर का व्यापार कर रहे हैं। अत: आधुनिक तकनीकें हासिल करने के लिये भारत के सामने दो रास्ते हैं। एक, अपने देश की गवर्नेंस को बदहाल रहने दे, अपनी प्रतिभा का निर्यात करे, और फिर अपने प्रवासियों से कहे कि तकनीक लेकर वापस आयें। दूसरा रास्ता है, घरेलू गवर्नेंस सुधारे, जिससे अपने देश में ही नई तकनीकों का अविष्कार होने लगे और प्रवासियों के आगे हाथ फैलाने की जरूरत ही न रह जाये।
हम विश्वगुरु रहे हैंं। गुरु देता है। ऋग्वैेदिक काल में मरुतगण और अश्विनी कुमार विदेशों में व्यापार करते थे। रामायण काल में हमारे साधु पूर्वी एशिया में फैले। बौद्घकाल में हमारे भिक्षु उत्तर पूर्वी एशिया में प्रसार को गये। स्वामी प्रभुपाद ने कृष्ण लीला का वैश्विक प्रसार किया। बाबा रामदेव ने पूरी दुनिया को योग विद्या सिखाई है। हमें अपनी इस परम्परा को बढ़ाना चाहिये। प्रवासी भारतीय मातृभूमि को तो समृद्घ बनाएं ही, उससे बढ़कर, उनके सामने चुनौती अपने मेजबान पश्चिमी देशों की उन नीतियों के विरोध की है जिससे सम्पूर्ण मानव सभ्यता संकट में है। यही मातृभूमि की सच्ची सेवा होगी। -डा. भरत झुनझुनवाला
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