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फरीद जकरिया अपने परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे सीएनएन से जुड़े एक प्रसिद्ध विश्लेषक और निडर पत्रकार हैं। आज की दुनिया में सर्वाधिक उठापटक मुस्लिम देशों में है। वे देश जहां मुसलमान अब तक इस छूत के रोग से बचे हुए रहे, वे भी इन दिनों इस बीमारी के शिकार हो चुके हैं। मुस्लिम जगत का हर देश किसी न किसी राजनीतिक रोग से पीडि़त है। जहां कल तक वे अल्पसंख्यक थे, वे भी आज इसकी चपेट में आ चुके हैं। इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए इस निडर पत्रकार ने कुछ ऐसे मौलिक कारण ढूंढ निकाले हैं जिनके आधार पर मुसलमानों के पुरातनवादी होने और किसी न किसी प्रकार की हिंसा में लिप्त रहने के मौलिक कारण खोज निकाले हैं। जकरिया का मानना है कि इसका मुख्य कारण इस्लाम में अन्य मत-पंथ के लोगों को कन्वर्ट किया जाना है। जकरिया इस बहस में नहीं पड़ते हैं कि कन्वर्जन किन-किन मार्गों से किया जाता है, लेकिन वे एक चिकित्सक की तरह उन तथ्यों को प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि जिहादी प्रवृत्ति और जुनून उन लोगों में अधिक होता है जो नए मुसलमान बनते हैं, इसलिए यदि कन्वर्जन दुनिया में रुक जाए तो मुस्लिम समाज में आतंकवादी प्रवृत्ति थम सकती है। वे यहीं पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि कुछ ठोस उदाहरण भी प्रस्तुत कर रहे हैं। उनका यह विश्वास है कि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है लेकिन जो लोग उनका मतान्तरण करते हैं वे अपने उद्देश्य की पूर्ति किसी न किसी मार्ग से अवश्य कर लेते हैं।
वे लिखते हैं जब यह समाचार मिला कि कनाडा में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के सामने एक कनाडाई सैनिक को एक व्यक्ति ने गोली का निशाना बनाया तो अधिकांश लोगों के मस्तिष्क में यह विचार आया कि क्या गोली चलाने वाला एक कट्टरपंथी मुसलमान है? बाद में पता चला कि वह कट्टरपंथी मुसलमान ही है। उक्त घटना ठीक इसी प्रकार घटी जैसे कि क्यूबेक में कनाडाई सैनिकों को कुचलकर मार देने वाले मार्टिन रालेयु काटर के हाथों हुई थी। जकरिया इसी प्रकार की एक और घटना के विषय में लिखते हैं जो पिछले दिनों न्यूयार्क के क्वींस में घटी। चार पुलिस अधिकारियों को मार देने वाला जेलर थाम्पसन भी मजहबी मामलों में अत्यंत कट्टरपंथी था। फरीदी कहते हैं कि इसका अर्थ यह हुआ कि समस्या का मूल उसके कन्वर्जन में है। मुसलमानों के पक्षधर और मानवता की बात करने वालों का कहना है कि मुसलमान इसलिए उत्तेजित हो जाता है क्योंकि पश्चिमी दुनिया मुसलमानों पर बेतुके आरोप लगाती रहती है। जब वह अपने मजहब और समाज के विषय में किसी प्रकार की अनर्गल बातें नहीं सुन सकता है तब हिंसा पर उतर जाता है। वे मुसलमानों के जुनून को इसके लिए उत्तरदायी नहीं समझते हैं बल्कि उनका यह विश्लेषण है कि पश्चिमी दुनिया के आचार-विचार के कारण मुसलमानों को यह मार्ग अपनाना पड़ता है। उनका कहना है कि वे पश्चिम की हिंसक विचारधारा के कारण ही उत्तेजित होते हैं जो अंतत: किसी की मौत का कारण बन जाती है। यह एक प्रकार के प्रतिशोध का कारण बनती है। जकरिया कहते हैं कि कुछ लोगों का यह मानना है कि पश्चिमी दुनिया मुसलमानों के विरुद्ध किसी न किसी प्रकार का षड्यंत्र रच करके उन्हें अपमानित करती है इसलिए मुसलमानों में उनसे प्रतिशोध लेने की भावना पैदा होती है।
जकरिया का मत है कि इस घटना का हमें विश्लेषण करना चाहिए। उन तीनों में से कोई भी जन्म से मुसलमान नहीं था। न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित रपट के अनुसार जेहफ बिबेयू के पिछले जीवन पर नजर डालने से पता चलता है कि वह जब 16 साल का हुआ तो पार्टियों में मौज मस्ती करता था। लोगों के क्रेडिट कार्ड चुराने तथा मादक पदार्थों का धंधा करने के आरोप में उसे अनेक बार दंडित किया गया था। लूटपाट की एक घटना में उसे दो साल का कारावास भी भोगना पड़ा था। टाइम्स लिखता है कि जेहाफ ने कुछ दिनों पूर्व ही इस्लाम को स्वीकार किया था। उसके मन में जिहादी बनकर इस्लाम के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। उसने सीरिया जाकर जिहाद में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की थी। बाद में उसने ओटावा में अपनी इच्छा पूरी करने के लिए एक सैनिक की हत्या कर दी और बाद में वहां से भाग गया।
इसी प्रकार कनाडा में पिछले दिनों एक सैनिक को कुचलकर मार डालने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से परेशान लगता था। वह दो साल पहले ही मुसलमान बना था। न्यूयार्क पुलिस विभाग का कहना है कि उनके अधिकारियों पर हमला करने वाला पहले ही मुसलमान बन चुका था। इन दिनों आईएसआईएस की चर्चा विश्व में जोरों से चल रही है। उनके चरित्र को देखकर ही इस्लाम की छवि तैयार हुई थी। यह भी संभव है कि वे पहले से ऐसे ही हों लेकिन बाद में उन्हें इस्लाम में शामिल करके उन्हें इस प्रकार के कुकृत्य करने के लिए प्रेरित किया गया। वे ऐसे युवक थे जिनके भीतर हिंसा की भावना और कट्टरपन का तूफान बरपा किया गया। वे वास्तव में ऐसी विचारधारा की तलाश में थे जो उनकी विक्षिप्त मानसिकता का समर्थन करती हो और इस्लाम की जिहादी सोच में उन्हें अपने सपनों की पूर्ति होते हुए दिखलाई पड़ रही हो। क्योंकि इस सोच के यथार्थ में उन्हें सब कुछ मिलता हुआ दिखलाई पड़ रहा था। ऐसे लोग बहुत कम संख्या में हैं, अन्यथा इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया तथा अलकायदा जैसे आतंकी समूह पिछले लगभग दस वर्षों से पश्चिम देशों के अनेक नगरों में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने में लगे हुए हैं। लेकिन दुनिया के एक करोड़ 60 लाख मुसलमानों में से बहुत ही कम लोगों को अपने साथ जोड़ पाए हैं। यदि सभी मुसलमान कट्टरपंथी होते तो पिछले दिनों की घटनाओं में तीन नहीं बल्कि अधिक लोगों को शामिल कर पाते। ऐसा इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि आतंकवादी बनने और आतंक को क्रियान्वित करना यह उनकी बनाई हुई इस्लामी प्रवृत्ति है। इसलिए इसका मंथन किया जाए तो पता लगता है कि उक्त समस्या इस्लाम के भीतर की है।
इस्लाम को बचाने के लिए कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि ऐसा करने वाले इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं हैं। यह बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है लेकिन इस प्रकार के वीभत्स कृत्यों को रोकने के लिए मुसलमानों ने कुछ किया भी नहीं है और ऐसा नहीं लगता कि वे भविष्य में भी कुछ करने का इरादा रखते हैं। मुसलमानों को यह सिद्ध करना ही होगा कि वे आतंकवाद और असहिष्णुता का समर्थन नहीं करते, लेकिन मुसलमान बतलाएं कि इस प्रकार के कृत्यों को रोकने के लिए उन्होंने अब तक क्या किया है? उनकी यह शिकायत है कि विश्व में एक लॉबी मुसलमानों को बदनाम करने के लिए यह सब करवाती है। लेकिन उन्हें यह भी बतलाना चाहिए कि इस्लाम न केवल इस प्रकार के कृत्यों को करने की निंदा ही नहीं करता बल्कि रोकना आवश्यक भी नहीं समझता है। लेकिन जो ऐसा करते हैं उन पर लगाम लगाने का कौन सा मार्ग है? यदि वे शांति से रहना चाहते हैं तो उनके लिए यह आवश्यक होगा कि वे दूसरों को भी शांति से रहने दें। ऐसा नहीं करते हैं तो उनके साथ वही सब कुछ होता रहेगा जो आज हो रहा है, इसलिए आतंकवाद को रोकना उनके लिए पहली आवश्यकता है। तभी वे यह उम्मीद दूसरों से कर सकते हैं।
भारतीय मुसलमान अब यदि आगरा में घटी कन्वर्जन की घटना को इस आइने में देखेंगे तो उन्हें आभास होगा कि जो कुछ हुआ उसके लिए तो वे स्वयं जिम्मेदार हैं। कल तक वे धड़ल्ले से कन्वर्जन करते थे तो उस पर उन्हें किसी की चिंता नहीं थी। अन्य पंथ के धर्मगुरु और उनके संरक्षक जब उनकी इस गंदी हरकत पर उंगली उठाते थे तो वे चुप रहते थे। इतना ही नहीं उन्हें कायर समझकर खिल्ली भी उड़ाते थे, लेकिन जब किसी ने उन्हीें के बतलाए मार्ग पर चलकर उनके किले में सेंध लगाई तो वे आज आकाश पाताल एक कर रहे हैं। भारत में कन्वर्जन पुरानी बीमारी है। किसी की आस्था को चांदी के चंद सिक्कों पर खरीदना और उस खरीद-फरोख्त को जायज समझना अपना अधिकार समझते हो तो फिर दूसरे की ओर उंगली उठाने का क्या अधिकार है? भारत में कमजोर वर्ग को कन्वर्ट करना उनका आज का खेल नहीं है यह वर्षों से चला आ रहा है। जनता में आस्था के बदलाव से भूगोल बदलने की साजिश वर्षों से हो रही है। इसके विरुद्ध कानून भी है, लेकिन इस कानून के तहत इस प्रकार के नापाक काम करने वालों के विरुद्ध कौन सी कार्यवाही हो रही है यदि वे यह बतलाने का प्रयास करेंगे तो निश्चित ही उनकी कृपा होगी। जिस काम को वे करते आए हैं यदि उसे कोई दूसरा करने लगे तो फिर उन्हें उंगली उठाने का अधिकार कैसा हो सकता है? इसके संबंध में अनेक जांच रपट समय-समय पर आई हैं और सदन के पटल पर भी रखी गई हैं, लेकिन अपनी वोट बैंक के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाने का नतीजा वे आज स्वयं भोग रहे हैं। इस प्रकार के तर्क केवल तर्क के लिए नहीं हैं आज भी देश का समझदार वर्ग और हमारे सदन इस पर कार्यवाही करने के लिए तत्पर हो सकते हैं लेकिन सबसे पहले तो इसमें मन से इस बात को स्वीकार करना होगा कि अपनी आस्था को बदलना और खरीदना यदि पाप है तो यही मापदंड दूसरों के लिए भी है। कन्वर्टेड लोग फरीद जकरिया के कथन के अनुसार अपनी शरारत करते रहेंगे तो इसका प्रभाव उल्टा ही होगा और आगरा जैसी घटना का कोई समाधान नहीं हो सकेगा। -मुजफ्फर हुसैन
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