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चिंतन- स्वामी विवेकानंद जयंती पर विशेष
'वह जो तुममें है और तुमसे परे भी,
वह जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है,
जो सबके पैरों में समाया हुआ चलता है,
जो तुम सबके घट में व्याप्त है
उसी की आराधना करो़.़ उस परम प्रभु की उपासना करो जिसे सामने देख रहे हो'
1 जुलाई 1897 को स्वामी विवेकानंद ने ये कविता अल्मोड़ा में लिखी थी। इन पंक्तियों में उन्होंने उस क्रियाशील आध्यात्मिकता को प्रकट किया है, जिसकी प्रेरणा उन्होंने देशवासियों और रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों को दी थी।
1893 के भारत की कल्पना कीजिए। भारतीय प्रतिरोध के आखिरी गढ़ ढह गए थे। मराठा शक्ति और प्रतापी महाराजा रणजीतसिंह अब परिदृश्य में नहीं थे। 1857 के स्वातंत्र्य समर की रक्तरंजित यादें शेष थीं। दुर्रानी के हमले के घाव ताजा थे। 1878 में अंग्रेजों ने आम भारतीय से शस्त्र रखने का अधिकार भी छीन लिया था (जिसे 'सत्य के प्रयोग' में महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजी राज के अनेक अन्यायों में से एक कहा था)। आखिरकार गुलामों के हाथों में शस्त्र कैसे रह सकते थे? फलस्वरूप साहस और सैनिक कला लुप्तप्राय थी। ब्रिटिश सेना में भारतीय सैनिकों को घटिया, जबकि अंगे्रज सैनिकों को उच्च कोटि के हथियार दिए जाते थे। देश की लगभग 25 करोड़ आबादी में से 80 प्रतिशत ब्रिटिश राज के सीधे शासन में और शेष 20 प्रतिशत लगभग पौने सात सौ राजे-रजवाड़ों के अंंतर्गत जीवन यापन कर रही थी। अंग्रेजी शासन में अकाल और महामारियां आम थीं। उस समय की सरकारी रपट बताती है कि 1850 से 1875 तक छह दुर्भिक्षों में 50 लाख भारतवासी भूख से मारे गए थे। मात्र बंगाल में प्रतिवर्ष 17 लाख लोग बुखार से मर रहे थे। सन् 1875 में ब्रिटिश साम्राज्य के तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके लार्ड सॉलिसबरी ने निर्लज्जतापूर्वक कहा था, 'भारत का खून चूसना ही होगा।' इस क्रूर शोषण का परिणाम था कि एक ओर जहां एक ब्रिटेनवासी की वार्षिक आय 630 रुपए और संचित धन साढ़े चार हजार रुपए था वहीं एक भारतीय के लिए राशि क्रमश: 30 और 14 रुपए थी। अंग्रेजी राज्य के सेफ्टी वॉल्व के रूप में कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। कांगे्रस की भूमिका किस प्रकार की थी इसके बारे में बाद में (21 फरवरी 1900) स्वामी विवेकानंद ने ही स्वामी अखंडानंद को पत्र में लिखा था- 'इन उग्र दुर्भिक्ष, बाढ़, रोग और महामारी के दिनों में बताओ तुम्हारे कांगे्रस वाले कहां हैं? क्या यह कहना पर्याप्त होगा कि 'राजशासन हमारे हाथ में दे दो? और उनकी सुनेगा भी कौन? यदि मनुष्य कार्य करता है, तो क्या उसे अपना मुख खोलकर कुछ मांगना पड़ता है?' टूटे तन ही मानो पर्याप्त न थे, तो भारत के मन पर भी आघात हो रहा था। 1892 में ही 30 लाख के लगभग बच्चे भारत निंदा में लिपटी अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। इतना ही नहीं, ईसाई मिशनरी परंपरा और उपासना पद्धतियों का भी नाश करने में लगे थे।
निराशा के इस वातावरण में 1893 का सितंबर माह जब समाचार लाया होगा कि भारत के एक तेजस्वी युवा संन्यासी ने पश्चिम की जमीन पर भारत के अध्यात्म और संस्कृति का झंडा गाड़ा है, तो उत्साह और स्वाभिमान की कैसी लहर फैली होगी? शिकागो की धर्मसभा, जिसेे वास्तव में ईसाई श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने के लिए आयोजित किया गया था, वहां एक भगवाधारी गुमनाम यति ने जाकर मंच लूट लिया था। शिकागो के बाद स्वामी विवेकानंद और भारत, दोनों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। हिंदू संस्कृति पर कुटिल प्रहार करने वालों को उत्तर देते हुए स्वामी दयानंद सरस्वती ने भारत भूमि पर जो विजयी पग बढ़ाया था, विवेकानंद उस विजय को पाश्चात्य धरती तक ले गए।
स्वाभिमान की इस लहर ने भारत की स्वाधीनता की लड़ाई को भी गहरे तक प्रभावित किया। 1902 में क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति की स्थापना हुई, तो इसके पीछे स्वामी विवेकानंद, उनके गुरुभाई स्वामी शारदानंद, उनकी शिष्याएं भगिनी निवेदिता और रवींद्रनाथ ठाकुर की भानजी सरला घोषाल तथा स्वामी विवेकानंद को अपना आध्यात्मिक पथप्रदर्शक मानने वाले महर्षि अरविंद की सक्रियता थी। अनुशीलन समिति के संस्थापक सतीशचंद्र बसु ने समिति के अस्तित्व में आने को इस प्रकार समझाया है-'मैं एक जिम्नास्टिक क्लब का सदस्य था, जहां एक बार विदेशी कागज के इस्तेमाल के प्रश्न पर विवाद खड़ा हो गया। तब मुझे स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं का, विशेषकर स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, व्यायाम, लाठी शिक्षण एवं बस्तियों की सफाई आदि सेवा-कायार्ें के प्रति उनके आग्रह का ध्यान आया। मैं स्वामी शारदानंद के पास गया। उन्होंने कहा, तुम्हें इस काम को अवश्य करना चाहिए। यही स्वामीजी (विवेकानंद) की इच्छा है। स्वामीजी का कहना है कि यदि रस्सी से बंधा हुआ कोई कौआ भी अपनी आजादी के लिए छटपटाता है तो तुम लोगों को अपने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों तक का उत्सर्ग क्यों नहीं करना चाहिए? स्वामीजी ने कहा कि उन्होंने भगिनी निवेदिता को हम लोगों का मार्गदर्शन करने का निर्देश दे दिया है। भगिनी निवेदिता ने हम लोगों से कहा कि 'तुम्हे स्वामीजी की इच्छा का पता ही है। अत: तुम लोगों को अपना स्वास्थ्य सुधारना चाहिए और लाठी शिक्षण सहित सब प्रकार के शारीरिक व्यायाम करने चाहिए।' एक अन्य अवसर पर स्वामी विवेकानंद ने कुमारी क्रिस्टाइन ग्रींस टाइडल से कहा था-'मैंने क्रांति की योजना बनाने और बंदूकों का निर्माण करने का लक्ष्य लेकर पूरे भारत में भ्रमण किया है। इसी हेतु मैंने मि़ हीरम मैक्जिम से मित्रता बनाई, किंतु भारत अभी जड़वत् पड़ा हुआ है। इसलिए पहले मैं ऐसे कार्यकर्ताओं का दल खड़ा करना चाहता हूं जो ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर लोक-शिक्षण का कार्य करे और राष्ट्र में नवचेतना का संचार करे।'
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भारत के जनमानस को प्रभावित करने वाले अनेक राष्ट्रनायक भी स्वामी विवेकानंद से ऊर्जा प्राप्त करते रहे। इनमें लोकमान्य तिलक, महामना मालवीय, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, महर्षि अरविंद, नेताजी सुभाष, वीर सावरकर और डॉ़ हेडगेवार शामिल हैं। सुभाष के अनुसार-'मैं हषार्ेन्नमत्त हुए बिना विवेकानंद के बारे में नहीं लिख सकता। त्याग के लिए तत्पर, निरंतर कर्मशील, असीमित प्रेरणा से भरे, बेहद प्रतिभाशाली और तीक्ष्ण बुद्घि वाले, भावों में श्रेष्ठ। मैं घंटों लिखता जाऊंगा, परंतु इस महापुरुष के साथ थोड़ा भी न्याय न कर सकूंगा।'
जब सारा विश्व सम्मान में उठ खड़ा हुआ, तो इस समर्थन, संपकार्ें और संसाधनों को उन्होंने वंचित भारत के उत्थान के लिए झोंक दिया। काल के गाल में घुसकर आपदाओं में देशवासियों की रक्षा करने वाले युवकों और संन्यासियों की श्रृंखला तैयार हुई। उस समय देश की परिस्थितियों का चित्र खींचता स्वामीजी का एक पत्र (कुमारी मेरी हेल को, 30 अक्तूबर 1899) आज उपलब्ध है। उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-' कुछ सौ आधुनिक, अर्धशिक्षित एवं राष्ट्रीय चेतनाशून्य पुरुष ही वर्तमान अंग्रेजी भारत का दिखावा है और कुछ नहीं। मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार 12 वीं शताब्दी में 60 करोड़ हिंदू थे – अब 20 करोड़ से भी कम। भारत को जीतने के लिए अंग्रेजों के संघर्ष के मध्य शताब्दियों की अराजकता, अंगे्रजों द्वारा 1857-58 में किये गये भयावह जन-वधों और इससे भी अधिक भयावह अकालों, जो अंग्रेजी शासन के अनिवार्य परिणाम बन गये हैं (देशी राज्यों में कभी अकाल नहीं पड़ता) और उनमें लाखों प्राणियों की मृत्यु के बावजूद जनसंख्या में काफी वृद्धि होती रही है, तब भी जनसंख्या उतनी नहीं है, जब देश पूर्णत: स्वतंत्र था-अर्थात् मुस्लिम शासन के पूर्व। भारतीय श्रम एवं उत्पादन से भारत की वर्तमान आबादी की पांच गुनी आबादी का भी आसानी से निर्वाह हो सकता है, यदि भारतीयों की सारी वस्तुएं उनसे छीन न ली जाएं।
यह आज की स्थिति है-शिक्षा को भी अब अधिक नहीं फैलने दिया जायगा, प्रेस की स्वतंत्रता का गला पहले ही घोंट दिया गया है, (निरस्त्र तो हम पहले से ही कर दिए गए हैं) और स्वशासन का जो थोड़ा अवसर हमको पहले दिया गया था, शीघ्रता से छीना जा रहा है। हम इन्तजार कर रहे हैं कि अब आगे क्या होगा! निदार्ेष आलोचना में लिखे गए कुछ शब्दों के लिए लोगों को कालापानी की सजा दी जा रही है, अन्य लोग बिना कोई मुकदमा चलाए जेलों में ठूंसे जा रहे हैं, और किसी को कुछ पता नहीं कि कब उनका सर धड़ से अलग हो जाएगा।
कुछ वषार्ें से भारत में आतंकपूर्ण शासन का दौर है। अंगे्रज सिपाही हमारे देशवासियों का खून कर रहे हैं, हमारी बहनों को अपमानित कर रहे हैं-हमारे खर्च से ही यात्रा का किराया और पेन्शन देकर स्वदेश भेजे जाने के लिए! मान लो, तुम इस पत्र को केवल प्रकाशित भर कर दो – तो उस कानून का सहारा लेकर, जो अभी अभी भारत में पारित हुआ है, अंग्रेजी सरकार मुझे यहां से भारत घसीट ले जाएगी और बिना किसी कानूनी कार्रवाई के मुझे मार डालेगी। और मुझे यह मालूम है कि तुम्हारी सभी ईसाई सरकारें इस पर खुशियां मनाएंगी, क्योंकि हम गैर ईसाई हैं।'
समस्या की जड़ें ढूंढते हुए वे 20 जून 1894 को हरिदास देसाई को लिखते हैं-'यथार्थ राष्ट्र जो झोपडि़यों में रहता है, अपना पौरुष विस्मृत कर बैठा है, अपना व्यक्तित्व खो बैठा है, उन्हंे उनका व्यक्तित्व प्रदान करना होगा। उन्हंे शिक्षित बनाना होगा।'
तीन दिन बाद उन्हांेने महाराजा मैसूर को लिखा-'भारतवर्ष के सभी अनथार्ें की जड़ है जनसाधारण की गरीबी। अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य है उनको शिक्षा देना, उन्हें सिखाना कि तुम लोग भी प्रयत्न करने पर सब प्रकार से उन्नति कर सकते हो। उनमें विचार पैदा करना होगा। उनके चारों ओर दुनिया में क्या-क्या हो रहा है, इस संबंध में उनकी आंखें खोल देनी होंगी।' इन वाक्यों को आज 2015 में भी क्या अक्षरश: दुहराने की और जमीनी सच्चाई में बदलने की आवश्यक्ता नहीं है? भारत में 10 साल पैदल घूमकर स्वामी विवेकानंद ने जो अनुभव प्राप्त किया था, उसकी कुछ मिसालें आज भी आपकी खोपड़ी घुमा सकती हैं। बच्चों को विद्यालय तक लाने में आज जो कठिनाई आ रही है, और कामगारों-किसानों को साक्षर बनाने के लिए रात्रि पाठशाला के जो क्रम सरकारों ने चलाए उनका सौ साल पुराना आंखों देखा हाल स्वामी विवेकानंद से सुनिए। हरिदास देसाई को स्वामी जी लिखते हैं-'मान लीजिए महाराज, आपने हर एक गांव में नि:शुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा, क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाय खेतों में अपने माता-पिता को मदद देना या दूसरे किसी उपाय से रोटी कमाने का प्रयत्न करना अधिक पसन्द करेंगे। यदि गरीब लड़का शिक्षा के मंदिर तक न आ सके, तो शिक्षा को ही उसके पास जाना चाहिए। अपनी महिलाओं को शिक्षित बनाने के लिए भी मैंने विधवा संगठन का एक केंद्र रखा है।' आगे वे लिखते हैं-'अब मान लीजिए कि ग्रामीण अपना दिन भर का काम करके अपने गांव लौट आए हैं और किसी पेड़ के नीचे या कहीं बैठकर हुक्का पी रहे हैं और गप लड़ाते हुए समय बिता रहे हैं। मान लीजिए, कोई दो शिक्षित संन्यासी वहां इनको पाकर कैमरे से खगोल-विद्या सम्बन्धी या भिन्न-भिन्न देशों के, इतिहासों के अन्य चित्र उन्हें दिखाने लगें। इस प्रकार ग्लोब, नक्शे आदि के द्वारा जुबानी ही कितना काम हो सकता है, दीवान जी साहब? केवल आंख ही ज्ञान का एकमात्र द्वार नहीं है, कान भी यह सब काम कर सकता है। इस प्रकार उनमें भावनाओं, सदाचरण एवं अच्छे बनने की आशा का उदय होगा। यहां हमारा काम खत्म हो जाता है। शेष उनके ऊपर छोड़ देना होगा।' स्वामी विवेकानंद का पूरा साहित्य पढ़ डालिए, उनका सारा जीवन वृत्तांत आंखों के सामने रखिए, तो आपको अनुभव होगा कि हिंदुत्व की ध्वजा फर-फर करती धरती पर घूम रही है। रामकृष्ण परमहंस ने हिंदुत्व के सार वाक्य 'सत्य एक है, ज्ञानियों ने उसे अनेक ढंग से समझाया है' को अपनी साधना में चरितार्थ करके दिखलाया। विवेकानंद अपने गुरु की इस शिक्षा को लेकर संसार के प्यासे लोगों तक गए। इसी केंद्रीय सत्य के कारण वे हिंदुत्व को विश्वधर्म के आदर्श के रूप में मानवता के सामने रख सके। इसी कारण उनके वचनों का इतना व्यापक असर हुआ।
जिस समय स्वामी विवेकानंद ने पश्चिम की धरती पर पांव रखा उस समय विचित्र विरोधाभास व्याप्त थे। यूरोप में मानवता, मानव स्वतंत्रता के मूल्यों पर जोर था। यूरोप और अमरीका में दास प्रथा का अंत किया जा चुका था, लेकिन एशिया और अफ्रीका की ज्यादातर आबादी पश्चिमी देशों की दासता में बंधी कराह रही थी। इंसानियत के स्वरों के बीच ही यहूदी विरोध (एन्टी सेमिटिज्म) भी यथावत् सुलग रहा था। चर्च के खिलाफ सब ओर बगावत थी, पर ईसाई मिशनरी सारी दुनिया में साम्राज्यवाद के एजेंट बने घूम रहे थे, और जमीनें छीनकर क्रॉस पहनाने का कुचक्र जोरों पर था। जैसा कि केन्या के पूर्व राष्ट्रपति जोमो केन्येटा का प्रसिद्ध कथन है। संयुक्त राज्य अमरीका, जो दासता के खिलाफ गृहयुद्घ लड़कर चमक के साथ दुनिया में उभरा था, उसी के मिशनरी कार्यकर्ता हिंदुओं को हब्शी, अपनी संतानों और पत्नियों के क्रूर हत्यारों के रूप में दुष्प्रचारित करते घूम रहे थे। स्वामी विवेकानंद के आगमन के बाद अमरीकी समाज में व्याप्त इन अफवाहों का निराकरण हुआ और वहां महसूस किया गया कि 'भारत जैसे देश में मिशनरी भेजना मूर्खता का काम है।'
अपने मत की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने में जुटे, 'नर्क' से भयभीत और 'स्वर्ग' की ओर कातर दृष्टि लगाए लोगों के सामने उन्होंने मानव की आध्यात्मिक स्वतंत्रता और आत्मा के गौरव का हिंदू दर्शन रखा एवं निर्भय होकर जीने को कहा। विश्व के प्रबुद्ध वर्ग ने उनकी बातों को अपनाना प्रारंभ किया। कल के नरेंद्रनाथ आज विश्ववंदित विवेकानंद बन गए। हिंदुत्व की जो लहर विवेकानंद के रूप में उठी थी, वह अब बाढ़ बन चुकी है। उसनेे जो रास्ता फोड़ा था, उसी के बढ़ते चरण हैं कि आज श्री श्री रविशंकर को सुनने अर्जेंटीना में डेढ़ लाख लोग उमड़ आते हैं। प्रभुपाद के अनुयायी मास्को में जगन्नाथ रथ यात्रा निकालते हैं, अफ्रीका के समुद्र तटों पर हरे कृष्ण का कीर्तन करते अश्वेत निकलते हैं, और न्यूयार्क टाइम्स स्क्वेयर पर 10 हजार अमरीकी सामूहिक योगाभ्यास करते हैं। मानव के विवेक की यह यात्रा त्रासदियों से मुक्ति के लिए संकल्पित है। प्राचीन ऋषियों का गहन गंभीर स्वर सुनाई पड़ रहा है। मानवता आशा लगाए देख रही है। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने अपनी मुक्ति नामक काव्य रचना में कहा था-
वह देखो, वे घने बादल छंट रहे हैं,
जिन्होंने रात को, धरती को अशुभ छाया से
ढक लिया था।
किन्तु तुम्हारा चमत्कारपूर्ण स्पर्श पाते ही
विश्व जाग रहा है।
पक्षियों ने सहगान गाए हैं,
फूलों ने तारों की भांति
चमकते ओसकणों का मुकुट पहनकर
झुक-झुमकर तुम्हारा सुन्दर स्वागत किया है।
झीलों ने प्यारभरा हृदय तुम्हारे लिए खोला है
और अपने सहस्र सहस्र कमल-नेत्रों के द्वारा
मन की गहराई से
निहारा है तुम्हें।
हे प्रकाश के देवता!
सभी तुम्हारे स्वागत में संलग्न हैं,
आज तुम्हारा नवस्वागत है! – प्रशांत बाजपेई
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