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अंक संदर्भ: 14 दिसम्बर,2014
आवरण कथा 'जकड़ी हुई जिंदगी' उस व्यथा की ओर इशारा कर रही है,जो दुनिया में हर जगह व्यथित है। भारत के अंदर हो या फिर बाहर हिन्दुओं के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह आज किसी से भी छिपा नहीं है। हद तो तब हो जाती है जब भारत एवं पड़ोसी देशों में हिन्दुओं के साथ हो रहे बर्ताव पर सेकुलर दल और उनके तथाकथित नेता ऐसे चुप्पी साध जाते हैं, जैसे उनका मुंह सिल दिया गया हो। लेकिन जैसे ही हिन्दू को छोड़कर ईसाई या फिर मुसलमानों की बात आती है तो यही दल और नेता रुदन शुरू कर देते हैं। सवाल है कि क्या उन्हें हिन्दुओं के मानवाधिकार नहीं दिखाई देते? या फिर वे समाज के अंग नहीं हैं?
—कमलेश कुमार ओझा
पुष्पविहार (नई दिल्ली)
ङ्म मानवाधिकारों की बात करने वाले कभी हिन्दुओं के अधिकारों की बात करते हुए नहीं दिखाई देते, आखिर इसके पीछे क्या कारण है? कुछ देशों में जहां हिन्दू नरक से भी ज्यादा बदतर जीवन जीता है, उस पर ये कथित मानवाधिकारवादी क्यों नहीं बोलते? क्या हिन्दुओं के मानवाधिकार नहीं होेते? इस समस्या का समाधान है कि हिन्दुओं को
स्वयं आगे आकर इस मुद्दे का हल निकालना होगा।
—हरिहर सिंह चौहान जंबरीबाग नसिया,इंदौर(म.प्र.)
ङ्म आज पूरे विश्व में इस्लाम का एक खूंखार चेहरा दिखाई दे रहा है वह असल में उसका वास्तविक स्वरूप है। अपने अधिकार किसी न किसी प्रकार थोपना और जो न माने उसको अल्लाह के पास भेजना इनकी संस्कृति का विशेष अंग है। और इसी संस्कृति के चलते आज यह मजहब पूरे विश्व में मारो-काटो का नारा बुलंद किए हुए है। ऐसे में आज सम्पूर्ण विश्व को हिन्दुत्व की शरण में आने की जरूरत है। क्योंकि यही एक ऐसा धर्म है,जो समाज को ईश्वर तक पहुंचने का एक सटीक रास्ता दिखा सकता है।
—दीपक कुमार
सालवन,करनाल(हरियाणा)
चिंताजनक बात
आज देश में गाय की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। स्वतंत्रता के समय करोड़ों की संख्या में विद्यमान गाय आज मात्र 10 करोड़ ही बची हैं। अगर ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब भारत से गाय लुप्त ही हो जायेगी। देश में बढ़ते कत्लखानों और उनमें कटती गायों पर दु:ख होता है। जब तक इस कार्य पर प्रतिबंध नहीं लगेगा तब तक गाय को बचाना अत्यधिक मुश्किल काम है। असल में समाज और देश की सरकारों को समझना होगा कि गाय भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। जिस दिन वह यह समझ जायेंगे उस दिन गाय अपने आप बच जायेगी।
—हरेन्द्र प्रसाद साहा
नयाटोला,कटिहार(बिहार)
ङ्म उत्तर प्रदेश में देखा जाए तो शायद ही ऐसा कोई जिला होगा जहां गोतस्करी या गोहत्या नहीं होती हो। जब से समाजवादी पार्टी की सरकार प्रदेश में बनी है तब से इस कार्य में बढ़ोतरी हुई है। पुलिस प्रशासन पर दबाव बनाकर यह इस प्रकार के कार्यों को करवाते हैं और पुलिस सब जानकर भी मूक दर्शक बनी रहती है। इसके पीछे कहीं न कहीं मुसलमानों को सपा के नेताओं का घोषित या अघोषित वरदहस्त रहता है। जिसके चलते वह खुलेआम गोतस्करी के कार्यों को अंजाम देते हैं।
—निशीत कुमार वर्मा
मोहनलालगंज, लखनऊ(उ.प्र.)
निरर्थक बहस
आगरा में हुई घर वापसी पर जिस प्रकार हंगामा हो रहा है वह निरर्थक है। अगर उसका थोड़ा भी अर्थ होता तो मुलायम सिंह जैसे सेकुलरवादी नेता इस मुद्दे को हवा देने में पीछे क्यों रहते ? वे खुलेआम संसद में ये न कहते कि यह बहस का विषय ही नहीं है। अब सवाल है कि फिर क्यों इतना शोर-शराबा हो रहा है? कहीं मिशनिरयों के पालकों को यह डर तो नहीं है कि इस मुद्दे को जैसे ही हवा मिली उनकी ही पोल-पट्टी खुलने लगेगी? कुछ भी कहो लेकिन सच यह है कि इस मामले पर मुलायम का यह कहना कि यह बहस का मुद्दा नहीं तो जरूर इसमें संशय होता है। साथ ही यह भी लोगों को समझना चाहिए कि यह मतान्तरण नहीं है यह तो घर वापसी है। जो लोग कुछ दिन पहले मिशनरियों के हाथों ठगे गए थे वे अपने मूल में वापस आ रहे हैं।
—हिमांशु शर्मा, रायबरेली(उ.प्र.)
ङ्म घर वापसी पर कथित मीडिया और राजनीतिक दलों द्वारा जिस प्रकार का दोहरा रवैया देखने को मिल रहा है वह उनकी असलियत को उजागर करता है। क्योंकि मीडिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है जो इनको पालने-पोसने का कार्य करता है और उनकी बात को ऐसे प्रस्तुत करता है जैसे वे सही हों और सभी गलत। सवाल है कि दशकों से देश में ईसाई मिशनरियों द्वारा वंचित और वनवासी समाज का कन्वर्जन किया जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि इस प्रकार की चीजों से मीडिया या राजनीतिक दल परिचित नहीं हैं,लेकिन यह सब जानकर भी अंजान बन जाते हैं। आज जरूरत है ऐसे मिशनरियों का भांड़ाफोड़ने की क्योंकि ये समाज को विकृत करने का काम कर रहे हैं और देश की अखंडता को तोड़ रहे हैं।
—कमल जैन
कैलास नगर(दिल्ली)
सबका विकास हो!
ङ्म लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब विकास का प्रयाण पत्र अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। परन्तु वर्तमान में जिस प्रकार की आर्थिक नीति चल रही है उससे अमीर और अमीर , गरीब और गरीब होता जा रहा है। हालत यह है कि देश के आठ राज्यों की ज्यादातर आबादी अफ्रीका की जनता से ज्यादा दरिद्रता में जीवन जीने को मजबूर है। आज भारी आर्थिक विकास दर के बीच अर्थव्यवस्था में सुधार करने की जरूरत है। आज तक उदारीकरण के नाम पर बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रहा है। इस आर्थिक असंतुलन को दूर करने के लिए सरकारी स्तर पर गंभीरतापूर्वक विचार कर उचित निर्णय लिया जाए।
—राम प्रताप सक्सेना
खटीमा(उत्तराखंड)
ममता पर कसता शिंकजा
सारदा चिट फंड घोटाले के उजागर होने तथा उसमें तृणमूल के नेताओं की गिरफ्तारी होने के बाद ममता बनर्जी बौखला गई हैं। हालत यहां तक है कि अगली सूची में ममता का भी नंबर हो सकता है। जिसके डर के चलते ममता बनर्जी अनर्गल बयानबाजी करने लगी हैं। कुल मिलाकर अब यह कहना उचित होगा कि तृणमूल पार्टी और उनके नेताओं के काले कारनामे ममता के ही इशारे पर चल रहे थे। केन्द्र सरकार से हमारी मांग है कि इस पूरे मामले की निष्पक्ष जांच हो और दोषियों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाये, फिर चाहे वह ममता बनर्जी ही क्यों न हों।
—प्रमोद प्रभाकर वालसंगकर
दिलसुखनगर(हैदराबाद)
हुतात्माओं को न भुलाया जाए
देश का बड़ा दुर्भाग्य रहा है कि चंद नेताओं ने उन शहीदों और महान विभूतियों को भुला दिया जिन्होंने अपने देश व समाज के लिए प्राणों की आहुति देनी स्वीकार की लेकिन झुकना स्वीकार नहीं किया। आज जरूरत है उन सभी महान विभूतियों को प्रमुख पटल पर लाने और उनके वास्तविक इतिहास को जन-जन तक पहुंचाने की।
—डॉ. युवराज सिंह, बुलन्दशहर(उ.प्र.)
बढ़ता कद
आज जिस प्रकार भारत के प्रधानमंत्री का कद बढ़ रहा है वह समूचे देश के लिए गौरव की बात है। भारत का डंका विदेशों में बज रहा है और यहां की बात आज विश्व पटल पर हो रही है। यह प्रत्येक भारतवासी के लिए सुखद है।
-प्रो.राजाराम
सूर्याआवासीय परिसर,भोपाल(म.प्र.)
साहित्य को मिले स्थान
14 दिसंबर के अंक में हिन्दी के मूर्धन्य विद्धान कविवर मैथिलीशरण गुप्त के कृतित्व व व्यक्तित्व का परिचय दिया गया है जो, साहित्य की दृष्टि से एक अच्छा कदम है। पाठकों को इस पत्रिका से आशा रहती है कि प्रत्येक अंक में किसी न किसी वरिष्ठ साहित्यकार का परिचय, लेख,उनके संस्मरण दिये जाएं ताकि साहित्य से संबंधित पाठकों के लिए सामग्री उपलब्ध होती रहे। वैसे तो आजकल पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य एवं साहित्यकारों की जानकारी नदारद ही कर दी है कम से कम पाठक इस पत्रिका से पूरी उम्मीद कर सकते हैं।
-जमालपुरकर गंगाधर
श्रीनीलकंठनगर,जियागुडा(हैदराबाद)
चरित्र निर्माण में सहयोग
मीडिया में वर्तमान में चल रही गला काट प्रतियोगिता में भी पाञ्चजन्य देश व समाज में चरित्र निर्माण करने में रात-दिन प्रयासरत है। वर्तमान में पत्र-पत्रिकाओं में खबरों और जानकारी के नाम पर वह सब होता है, जो उनमें नहीं होना चाहिए। इन्हीें सब चीजों से लगने लगता है कि अब पत्रकारिता समाज व देश को जगाने वाली नहीं बल्कि अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगी हुई। आशा है कि पाञ्चजन्य पाठकों को इसी प्रकार देश व समाज से जुड़ी प्रत्येक वे बातें बताता रहेगा जो सभी पत्र-पत्रिकाएं लिखने में हिचकती रहती हैं।
-शिवानी सास्वत, मथुरा(उ.प्र.)
पुरस्कृत पत्र
वंचित समाज का हो ख्याल
देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे वनवासी एवं वंचित समाज की दयनीय दशा से अधिकतर लोग परिचित हैं। अधिकतर प्रदेशों में जहां इनकी संख्या बड़ी मात्रा में है, वहां पर भी इनकी यही स्थिति है,जो अन्य स्थान पर है। वोट के लालच मंे इनको नेता हर चुनाव में प्रयोग करते हैं और बाद में उनको भुला देते हैं,जिसके बाद ये दर-दर भटकने को पूरे पांच साल तक मजबूर रहते हैं। इस बीच इन वनवासी क्षेत्रों में ये किस प्रकार जीवन यापन कर रहे हैं,उससे न तो राजनीतिक दलों,नेताओं और न ही प्रशासन को कोई मतलब रहता है। फोटो खिचाने के नाम पर कभी-कभार कुछ खानापूर्ति करके इनके विकास की बात का ढोल पीट दिया जाता है। लेकिन जो मूल रूप से इनके जीवन के विकास के लिए किसी को भी कोई फ्रिक नहीं होती। सवाल है कि इतनी बड़ी संख्या की मूलभूत जरूरतों और उनको मुख्यधारा में लाने की जिम्मेदारी किसकी है? क्या उनके अधिकारों को पूरा करना भारत सरकार का कार्य नहीं ? आखिर वे कौन लोग हैं,जो अभी तक इनको वोट के रूप में प्रयोग करते रहे हैं? कुल मिलाकर एक बात कही जा सकती है कि भारत का मुख्य आधार यही वंचित और वनवासी समाज है। इनको साथ लिए बिना भारत की कल्पना करना स्वप्न जैसा ही है। अनेकता में एकता और विविधता की बात इन सभी को साथ लेने से ही पूरी होती है। इसलिए केन्द्र सरकार को चाहिए कि देश मे जहां भी वंचित समाज व वनवासी समाज है,उनको उनके अधिकार दिये जाएं, न कि उनको केवल वोट के नाम पर प्रयोग किया जाए।
-मिथुन कुमार झा
सी-1-3,पंडारा रोड(नई दिल्ली)
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