विमर्श - केन्द्र-राज्य चलें साथ
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विमर्श – केन्द्र-राज्य चलें साथ

by
Jan 3, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jan 2015 15:01:44

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा बुलाई गयी मुख्यमंत्रियों की बैठक में कुछ मुख्यमंत्रियों का कहना था कि केन्द्र सरकार द्वारा अर्जित राजस्व का अधिकाधिक हिस्सा राज्यों को आवंटित किया जाना चाहिये और इस रकम के उपयोग में केन्द्र सरकार की दखल नहीं होनी चाहिये। आधारभूत प्रश्न देश के ढांचे का है। हमें तय करना होगा कि राज्य प्रमुख है या केन्द्र। राज्यों के बताये अनुसार केन्द्र को चलना है अथवा केन्द्र सरकार के बताये अनुसार राज्यों को चलना है। दूसरे देशों और स्वयं अपने अनुभव से पता चलता है कि संघीय ढांचा स्थाई और दीर्घगामी होता है। जबकि केन्द्रीय ढांचे के स्थायित्व का संदेह बना रहता है। स्ंाघीय ढांचे का प्रमुख सफल उदाहरण अमरीका है। यहां केन्द्र का गठन राज्यों के द्वारा किया गया था। राज्य की भूमिका प्राथमिक और केन्द्र की भूमिका द्वितीय स्तर की है। अमरीकी संविधान में जिन विषयों का उल्लेख नहीं है वे राज्यों के अधिकार में चले जाते हैं। दूसरा उदाहरण स्विट्जरलैण्ड का है। यह देश 26 जिलों में बंटा हुआ है जिन्हें कैन्टन कहा जाता है। हर कैंटन का अपना अलग संविधान है। कैन्टनों ने जितने अधिकार केन्द्र सरकार को दिये हैं उनका ही उपयोग केन्द्र सरकार कर सकती है। आस्टे्रलिया में भी राज्यों का स्थान प्राथमिक है। दूसरी तरफ केंद्रीय ढांचे के कई असफल उदाहरण उपलब्ध हैं। पूर्ववर्ती सोवियत रूस में केन्द्र की प्रमुखता थी। यह देश 1920 से 1960 के 40 वषार्ें में बहुत ताकतवर बना। अमरीका और रूस विश्व के दो ध्रुव माने जाने लगे। लेकिन राज्यों का निरंतर उत्पात बना रहा। नब्बे के दशक में इस देश का विघटन हो गया। ईरान में सद्दाम हुसैन और इसके बाद मलीकी ने केन्द्र को प्रबल बनाया। नतीजा हुआ कि कुर्द तथा दूसरे राज्यों के द्वारा विद्रोह किया गया और आज यह देश टूटने की कगार पर है।
पाकिस्तान में केन्द्र सरकार के हाथ में सत्ता केन्द्रित थी। पूर्वी पाकिस्तान को यह मंजूर नहीं हुआ। 1971 में भारत की सहायता से पाकिस्तान का बंटवारा हो गया। इंग्लैण्ड का ढांचा भी संघीय है। इस वर्ष स्काटलैण्ड ने इंग्लैण्ड से अलग होने की मांग की थी। इस पर जनमत कराया गया। जनमत के दौरान केन्द्रीय शासन ने आश्वासन दिया कि स्काटलैण्ड को अधिक स्वायत्तता दी जायेगी। इस आश्वासन के बल पर अंतिम मत इंग्लैण्ड का हिस्सा बने रहने के पक्ष में हुआ। कुछ वर्ष पूर्व इसी प्रकार का जनमत कनाडा के क्यूबेक राज्य द्वारा कराया गया था जिसमें क्यूबेक के बाशिन्दों ने कनाडा में बने रहने का निर्णय लिया था। राज्यों की स्वायत्तता के बल पर ही इन देशों का अस्तित्व टिका हुआ है। इन सभी उदाहरणों से संकेत मिलता है कि लम्बी पारी खेलने के लिये स्ंाघीय ढांचा सफल है। इन उदाहरणों के बीच हमारे सामने चीन खड़ा है जिसने केन्द्रीय मॉडल को अपनाया है। अस्सी के दशक के बाद चीन में तीव्र आर्थिक विकास भी हुआ है। आज चीन को विश्व के दूसरे ध्रुव के रूप में देखा जा रहा है बिल्कुल वैसे ही जैसे पिछली सदी में रूस को देखा जाता था। परन्तु भीतरी मंगोलिया तथा सिंक्यांग राज्यों में अलग होने के आन्दोलन निरंतर चल रहे हैं। इस लिहाज से चीन की वर्तमान सफलता को टिकाऊ नहीं कहा जा सकता है। हमें याद रखना चाहिये कि रूस का विघटन केन्द्रीय व्यवस्था के लागू होने के 80 वर्ष बाद हुआ था।
हमारा अपना अनुभव भी इसी दिशा में इशारा करता है। पूवार्ेत्तर, पंजाब एवं कश्मीर में अलगाववाद के आगे न बढ़ने का मूल कारण राज्यों की स्वायत्तता है। राज्यों को अपने विवेक के अनुसार चलने की छूट देने से उन्हें संघीय ढांचे में बना रहना श्रेयस्कर लगा है। हमारे संघीय ढांचे में जो समस्यायें उत्पन्न हुयी हैं उनका कारण भी केन्द्र सरकार का भारीपन लगता है। हमारे संघीय ढांचे की सफलता की पड़ोसी देशों से तुलना करने पर बात और स्पष्ट हो जाती है। पाकिस्तान से बंगलादेश के अलग होने का कारण संघीय स्वायत्तता का अभाव था। बलूचिस्तान में अलगाववाद बार बार सर उठा रहा है। श्रीलंका में तमिल लोगों ने अलगाववाद का रास्ता इसीलिये अपनाया क्योंकि उन्हें स्वायत्तता नहीं मिल रही थी।
उपरोक्त सफलताओं के सामने लालू यादव का बिहार है। 15 वषार्ें तक संघीय स्वायत्तता का उपयोग करके लालू यादव ने बिहार को पिछड़ा बना दिया था। पूर्व में वामपंथी और वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में बंगाल की भी ऐसी ही स्थिति दिख रही है। इन अपवादों से घबराना नहीं चाहिये। सब चर्चा के बाद भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन से था कहा कि अब तुम अपने विवेके से निर्णय करो। बिहार और बंगाल ने अपने विवेक से निर्णय लिये हैं। अपने खट्टे-मीठे अनुभवों से उन्हें अपने रास्ते का निर्माण स्वयं करना होगा। इन राज्यों की दुर्गति के सामने देखना होगा कि 25 अन्य राज्य उसी संघीय ढांचे में फले-फूले हैं। इस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री को आगे की दिशा स्पष्ट करनी होगी। लम्बी पारी खेलने के लिये सत्ता का केन्द्र राज्य होने चाहिये। हमारे संविधान में अंतर-राज्यीय परिषद की व्यवस्था है। इसे पुनर्जीवित करें और पीएमओ के स्थान पर इस संस्था के माध्यम से राष्ट्र की दिशा का निर्णय लें तो हम तीव्र और स्थाई विकास हासिल कर सकेंगे।

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