आवरण कथा :बसे विदेश, दिल में देश
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पाञ्चजन्य व्यूरो
सैकड़ों पहनावों, बोलियों, तौर-तरीकों और रस्मो-रिवाजों से गंुथी, समरसता में पगी है भारत की सनातन संस्कृति। इस संस्कृति को दिल में बसाए इस माटी के कितने ही बेटे-बेटियों ने विदेशी धरती पर मूल देश की अपनी पहचान को न सिर्फ संजोए रखा है बल्कि अपनी मेधा का परचम भी फहराया है। वे विदेश में बसे जरूर हैं पर दिल की हर धड़कन में भारत समाया है। अमरीका में बसीं अनीता देसाई के उपन्यासों की पटकथा भारतीय मध्यम वर्ग के गिर्द ही बुनी होती है। एम. अरुणाचलम हांग-कांग में व्यापार करते हैं, पर भारत में भी चमड़े से बने उत्पादों की इकाइयां लगाकर यहां रोजगार के अवसर उपलब्ध कराते हैं। विनोद खोसला ने अमरीका के एक सफल उद्योगपति होते हुए भी भारत में कई साफ्टवेयर कंपनियों को सफलता की राह दिखाई है। डा. बालमुरली अम्बाती भारत सहित तमाम विकासशील देशों में आंखों के इलाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने की कोशिश में जुटे हैं। इसी तरह, लक्ष्मी झुनझुनवाला हों या लार्ड भीखू पारेख, अपने अपने कामों में सर्वोच्च स्थान हासिल करने के बाद भी जब मौका मिलता है भारत आने और अपनी तरफ से जितना हो इसके उत्थान में मदद करने की कोशिश करते हैं। इसमें संदेह नहीं है कि इन भारतवंशियों ने उन उन देशों की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अहम भूमिका निभाई है जहां के वे नागरिक हैं, लेकिन जितना हो भारत की चिंताओं को भी दूर करने में अपना योगदान देने से पीछे नहीं हटते। प्रवासी भारतीय दिवस की सार्थकता इन भारतवंशियों के भारत के साथ अनुराग को दृढ़ करने में ही तो है।
बालमुरली अम्बाती
उपलब्धि- कोर्निया सर्जरी में एक नए आयाम की खोज से दुनिया को चौंकाया
भारत से नाता- आप्थैलमोलोजी के क्षेत्र में भारत में जागरूकता लाने में जुटे हैं।
भविष्य का सपना-आप्थैलमोलोजी में नए अनुसंधानों से चिकित्सा बेहतर बनाना
कम उम्र, पर महारत गजब
अमरीका में जन्मे भारतवंशी डॉक्टर बालमुरली अम्बाती किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। कितने ही कीर्तिमान स्थापित करने वाले अम्बाती छोटी उम्र में विरले चमत्कार के पर्याय माने जाते हैं। मात्र 13 साल की आयु में हाई स्कूल और 17 साल में डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करके उन्होंने सबको हैरान कर दिया था। पढ़े-लिखे परिवार में जन्म लेने के कारण बचपन से ही विज्ञान और गणित में उनकी मेधा ने परचम लहरा दिए थे। किसी चीज को एक ही ढर्रे से इतर कुछ अलग तरह से करके दिखाना उनकी ऐसी खासियत थी जिसके सब कायल थे और आज भी हैं।
डॉक्टरी में खास रुचि होने के चलते पढ़ाई पूरी करने के साथ साथ अम्बाती आंखों के इलाज के क्षेत्र में शोध करने लगे। दुनिया में शायद ही कोई डाक्टर होगा जिसने मात्र 17 साल की उम्र में डाक्टरी की पढ़ाई पूरी की होगी। ऑप्थेलोमॉलाजी में उन्होंने कई शोध किए, इस दिशा में और आगे काम करने के लिए उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। कोर्निया की चिकित्सकीय गहनता में नए आयाम तलाशे।
2002 में ड्यूक विश्वविद्याालय से कोरनिआ और रीफे्रक्टिव सर्जरी की पढ़ाई पूरी की। उन्हें ढेरों भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। वहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ. अम्बाती जार्जिया के मेडिकल कालेज से जुड़े, पर अपना शोधकार्य भी करते रहे। कई पिछड़े देशों में चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध कराने वाले गैर मुनाफे वाली संस्था ऑरबिस इंटरनेशनल से जुड़कर डॉ. अम्बाती अपनी सेवाएं दे रहे हैं। फिलहाल वे यूटा के स्कूल ऑफ मेडिसिन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। डॉ. अम्बाती ने अपने भाई के साथ मिलकर 1989 में एड्स जैसी गंभीर बीमारी के प्रति जागरूकता लाने और इसको लेकर फैले भ्रम को दूर करने के लिए एक पुस्तक का प्रकाशन भी किया जिसे काफी सराहा गया था। कोर्निया के उपचार में नए नए प्रयोगों की खोज का उनमें जुनून है जो उन्हें सच में एक दिन इस क्षेत्र में शीर्ष पर पहंुचाएगा।
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