6 दिसम्बर पर विशेषबाबर की 'संतान ' का हमसे क्या रिश्ता?
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6 दिसम्बर पर विशेषबाबर की 'संतान ' का हमसे क्या रिश्ता?

by
Dec 6, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Dec 2014 15:36:14

रामजन्मभूमि पर बाबरी ढांचे का झगड़ा मध्यकाल के उस बर्बर, तानाशाह युग की 'अवैध संतान' है, जब समाज के एक वर्ग की धार्मिक भावनाओं पर हल्ला बोला जाता था। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा दिखायी गई इस दुष्टता का भारतीय संस्कृति और यहां के मुसलमानों से कैसा रिश्ता? मत-पंथ जो हों हम भारतवंशियों की संस्कृति सब पंथों की भावनाओं को आदर देने की है। परंतु आपसी सौहार्द से भावनात्मक विवादों का निराकरण करने में दिखी अक्षमता ऐसे समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है ।
जो विदेशी थे या तो वे इतिहास के काले पन्नों में समा गए थे जहां से आए थे वहीं के हो लिए और जो रह गये वे भारतीय थे। पर इस आदर्श स्थिति के उपरांत भी रामजन्मभूमि विवाद सौहार्दपूर्ण निराकरण न होने का मूल कारण है 'अहम की लड़ाई', जिसने न तो राष्ट्रहित की चिंता की और न ही मजहब द्वारा प्रदान की गई 'जायज तथा नाजायज' की कसौटी की। इस तथ्य को विश्व का कोई इस्लामिक विद्वान नकार नहीं सकता कि विवादित, किसी और की संपत्ति या टोली संपत्ति जिसकी बुनियाद खुराफात पर रखी गई हो, मजिस्द नहीं हो सकती। और बाबरी इन सभी दोषों से निर्मित ढांचा मात्र था, जिसका ढहना ढांचे का गिरना तो कहा जा सकता है परंतु मस्जिद का नहीं। इस्लामिक दृष्टि से तो वह मस्जिद है ही नहीं। और जो इस्लामिक दृष्टि से ही मस्जिद नहीं है उसके लिए लड़ाई केवल 'अहम की लड़ाई' मात्र है। इसका मजहब से कोई लेना-देना नहीं। परंतु यदि मजहब के ठेकेदार मुस्लिम समाज को उचित मार्गदर्शन प्रदान करें तो शायद इन बेचारों की सियासी रोटियां सेंकना बंद हो जाए। आज भाग्यवश मुस्लिम समाज की शिक्षित युवा पीढ़ी आशा की किरण है। यही वह वर्ग है जो राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितों से अवगत है तथा फतवे की राजनीति से खुद को आजाद कर चुका है।
बस आवश्यकता है एक ऐसे नेतृत्व की जो इन्हें राष्ट्रीय मंच पर लाकर अपने हिन्दू भाइयों से संवाद स्थापित करा सके। यह शिक्षित नवयुवक अहम का त्याग कर अतीत की गलतियों को उसी सहज भाव से स्वीकार करेगा जिस सहज भाव से जर्मन युवाओं ने हिटलर एवं नाजियों द्वारा किये गलत कृत्यों को न केवल स्वीकारा अपितु स्वयं को उनसे पृथक भी किया। सौभाग्यवश हिन्दुस्थानी मुस्लिमों हेतु यह और भी सुगम कार्य है क्योंकि यहां दोनों ही पंथों के अनुयायी भारतवशंी हिन्दू हैं जिनके विपरीत बाबर एक विदेशी आक्रमणकारी।
अत: यह एक विदेशी द्वारा भारतवंशियों के संग किया गलत कृत्य था जिसका भारतीय मुसलमानों से कोई सरोकार नहीं है। पिछले 1 दशक में जिस प्रकार मुस्लिम युवा राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े हैं (विशेषकर भाजपा तथा मुस्लिम राष्ट्रीय मंच) उससे आपसी संवाद के माध्यम से रामजन्मभूमि के सदियों पुराने विषय के समाधान की अपेक्षा प्रबल होती है। परंतु इन सबके परे जो लोग 'अहम लड़ाई' लड़ रहे हैं, उन्हें खुले मंच से वे बातें बताना आवश्यक है जिनका उन्हें बोझ है, परंतु राजनीतिक रोटियां सेकने हेतु स्वयं को अनभिज्ञ दर्शाते हैं।
वे जानते हैं कि अनेक ऐतिहासिक तथ्य हैं, जो दर्शाते हैं कि बाबरी का निर्माण बाबर द्वारा मंदिर को ध्वस्त कर किया गया था। ये तथ्य न केवल संस्कृत एवं हिन्दू साहित्य से अपितु मुस्लिम एवं विदेशी इतिहासकारों के कार्यों से भी सिद्ध होते हैं। जिसमें प्रमुखता से बहादुर शाह के पुत्र की पुत्री द्वारा लिखित पुस्तक,'शिफा-ए-चहल नशा-इह-बहादुर शाही', 1856 में मिर्जा जान द्वारा लिखित हदिका-ऐ-शहदा, 1885 में स्वयं बाबरी के ईमाम मौलवी अब्दुल करीम द्वारा लिखित 'गुम्गश्त-ऐ-हालात-ऐ-अवध', 1909 में अल्लामा मोहम्मद नजामुल गनी खान रामपुरी द्वारा लिखित 'तारीख-ऐ-अवध' और इसके साथ ही विदेशी इतिहासकारों द्वारा लिखित पुस्तकें भी प्रबल तथ्य हैं, जिनमें प्रमुखता से 1785 में जोसफ टाईपेनथिलट द्वारा लिखित 'हिस्ट्री एण्ड ज्योग्राफी ऑफ इंडिया', 1877 में 'गेजेट ऑफ प्रेविंस ऑफ अवध', 1880 की फैजाबाद सेटलमेंट रिपोर्ट, 1891 की ए. फ्यूरर द्वारा भारतीय पुरातत्व विभाग (इंडियन ऐस्ट्रॉलाजिकल सर्वे) की रिपोर्ट तथा 1885 में न्यायाधीश कर्नल चैमियर द्वारा किया गया अति महत्वपूर्ण न्यायालयीन फैसला, जो इस तथ्य को सिद्धि प्रदान करता है कि बाबर द्वारा बाबरी का निर्माण मंदिर को ध्वस्त करके हुआ था।
और इन सबसे भी महत्वपूर्ण है इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला जो रामजन्मभूमि को पुष्टि प्रदान करता है तथा दो तिहाई भूमि का स्वामित्व हिन्दू समाज को प्रदान करता है। इतने तथ्य स्थापित होने पर मुस्लिम युवाओं को आगे बढ़कर सौहार्द का परिचय प्रदान कर रामजन्मभूमि स्थली को उसके उपासकों को देकर राष्ट्रीय एकता का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
अहम की लड़ाई लड़ने वालों को अपनी नाक के बजाए वह इस्लामी कायदे समझना जरूरी है जिनके अनुसार वहां कोई मस्जिद तामीर हो ही नहीं सकती। यदि मुस्लिम युवा राष्ट्रीय एकता हेतु एक कदम चलेंगे तथा आपसी संवाद से निराकरण करेंगे तो हिन्दू भाई भी दो कदम आगे बढ़कर मस्जिद निर्माण हेतु अलग स्थान पर बाबरी ढांचे के क्षेत्र से अधिक भूमि देकर तथा मस्जिद निर्माण में सहायक सिद्ध होकर राष्ट्रीय अखंडता में नवयुग का आरंभ करेंगे। -डॉ. गुलरेज शेख

राजनीति जो हो, समाज की राय यही रही

पाञ्चजन्य के 25 अक्तूबर,1992 के अंक में राष्ट्रवादी मुसलमानों ने श्री राममंदिर निर्माण के विषय में जो विचार व्यक्त किए थे, वे इस प्रकार हैं:-
असली मुसलमान इसे मस्जिद नहीं मानता
1985 से पहले यदि कोई मुसलमानों का जनमत सर्वेक्षण करता तो पता चलता कि देश 90 प्रतिशत मुसलमानों को यह मालूम ही नहीं था कि अयोध्या में कोई बाबरी मस्जिद नाम की चीज भी है। और जो लोग जानते थे वह आज इस बारे में बात भी नहीं करना चाहते,जैसे कि अयोध्या के मुसलमान। -सईद नकवी, पत्रकार
मंदिर निर्माण ही समाधान
कटटरपंथी मुसलमानों को यह मालूम ही होगा कि विवादित स्थल पर बनाई गई मस्जिद में अदा की गई नमाज अल्लाह कबूल नहीं करता है। इसलिए श्रीराम जन्मभूमि पर मस्जिद को हटा दिया जाना चाहिए। उस स्थल पर मंदिर निर्माण ही एकमात्र हल है। -सोसन अहमद, राजस्थान
गलती का परिष्कार करें
अगर मुसलमानों के पूर्वजों ने कोई गलती की है तो उसका परिष्कार होना ही चाहिए। मुसलमानों से अपील है कि वे श्रीराम मंदिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद पर से अपना दावा छोड़ दें। खण्डित ढांचे की बनावट और स्थापत्य कला से पूरी तरह सिद्ध होता है कि वह मंदिर को तोड़कर बनाया गया है।
-जिया रिजवी, उ.प्र.

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