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अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
कभी भारत को सारा संसार सोने की चिडि़या के नाम से जानता था। इस सोने की चिडि़या के मणिमुक्ता जड़े सुनहरे पंख कतर कर, बोरियों में भरकर घोड़ों, हाथियों और ऊंटों पर लादकर अपने देश ले जाने के लिए मेसिडोनिया से चलकर सिकंदर आया, गजनी से महमूद आया, अफगानिस्तान से अहमदशाह अब्दाली आया। इतना और इतनी बार लूटा उन्होंने कि पश्चिमोत्तर भारत के साधारण ग्रामीण और किसान भी समझ गये कि जो कुछ उगाया, कमाया उसे खा-पीकर खत्म करना बेहतर होगा, बजाय बचाने के, क्योंकि खाया-पीया लाहे दा, बाकी सब अब्दाले (अहमद शाह अब्दाली) दा उनके बाद आई ईस्ट इंडिया कंपनी। लूटा उन्होंने भी खूब लेकिन एक नयेपन के साथ। लूटते तो थे पर कभी-कभी उन्हें इसकी अति होने पर शर्म भी आती थी। सभ्य और सहृदय ढंग से लूटने को उन्होंने एक कला बना दिया। वे करुणा के साथ लूटते थे, इतनी करुणा जितने का परिचय घडि़याल अपने शिकार को खाते समय आंसू बहाकर देता है। तभी तो भारत को नृशंसता से लूटने वाले रॉबर्ट क्लाइव की ब्रिटेन की संसद में भर्त्सना हुई। उस पर बाकायदा मुकदमा चलाया गया। लेकिन शीघ्र ही स्पष्ट हो गया कि क्लाइव की भर्त्सना लूटने के कारण नहीं बल्कि लूट का धन बिना अपनी साम्राज्ञी को हिस्सा दिए, अकेले खा जाने के लिए हुई थी। तभी रॉबर्ट क्लाइव की फजीहत करने वाले ब्रिटिश साम्राज्य ने आगे चलकर भारत को लूटने में स्वयं कोई तकल्लुफ नहीं दिखाया। गरीब से गरीब आदमी उसे कुछ दिए बिना अन्न का दाना भी मुंह में न डाल पाए इसी दूरदर्शिता का परिचय तो नमक कानून बना कर उसने दिया था।
इस तरह सदियों से भारत लुटता तो आया पर साथ ही साथ इस देश में लूटने की प्रक्रिया एक कला के रूप में विकसित होती गयी। उसमें विलक्षण अनुसंधान हुए। पता चला कि सोने की चिडि़या के पंख नोचने के लिए विदेशी शिकारियों की कोई आवश्यकता नहीं है। एक से बढ़कर एक स्वदेशी कलाकार इस विद्या में पारंगत हो चुके हैं। सिकंदर से लेकर रानी विक्टोरिया के वंशजों तक लूटने के लम्बे इतिहास के मद्देनजर अंग्रेजों के जाने तक इस सोने की चिडि़या के सारे पर नुच जाने चाहिए थे लेकिन कवि मोहम्मद इकबाल के शब्दों को कि 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी' हम अपने स्वदेशी लुटेरों के सन्दर्भ में देखें तो कहना पड़ेगा 'कुछ बात है कि लुटना रुकता नहीं हमारा, सदियों रहा है लुटता हिन्दोस्तां हमारा।' अब कपास उगाने वाले आत्महत्या करते हैं और लूटनकला के दिग्गज कलाकार लोटन कबूतर की तरह सीना फुलाए सोने की फसलें काटते हैं।
देश की समृद्घि लूटने की धारा केवल अविकल प्रवाहमान ही नहीं है, इसमें अब मौसम-बेमौसम भयंकर बाढ़ भी आती रहती है। कोयले की खानें खुदें इसके पहले उनकी खुदाई के अधिकार बांटने में ही अरबों रुपयों के वारे न्यारे हो जाते हैं। पृथ्वी के गर्भ से ही नहीं, हवा की तरंगों पर जादुई छड़ी घुमाकर उनमे से भी अरबों रुपये खींच लेने वाले कुशल जादूगर अपने देश में हैं। खेल-खेल में करोड़ों रुपये कमाने का आयोजन कितना सार्थक था। राष्ट्रमंडल खेल का शाब्दिक अर्थ ही है। संपत्ति को सबके लिए सुलभ बनाने का खेल। ये खेल आउटडोर भी हैं, इनडोर भी। मवेशियों के चारे उगाने वाले खुले खेतों से लेकर व्यापार की राजधानी मुम्बई की 'आदर्श' कहलाने वाली अट्टालिकाओं तक हर जगह खेले जाते हैं।
नया इसमें कुछ भी न हो ऐसा नहीं। अब देश को लूटने वालों पर केवल लक्ष्मी नहीं सरस्वती की भी कृपा होती है। तभी अरबों की संपत्ति बटोरने में व्यस्त जूनियर इंजीनियर के इंजीनियरिंग ज्ञान का विकास भी इतनी तेजी से होता है कि अरबों का चढ़ावा अपने आकाओं को चढाने में व्यस्त रहते हुए भी वह इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर लेता है। आकाशलता की तरह जूनियर इंजीनियर से बढ़ते-बढ़ते नोएडा, ग्रेटर नोएडा, यमुना एक्सप्रेसवे जैसी तीन-तीन महती विकास योजनाओं का अकेला मुख्य अभियंता बन जाता है।
लूटने की कला अब एक विकसित विज्ञान बन चुकी है। बदलते हुए मुख्यमंत्री भले आपस में जानी दुश्मन हों, जनता को लूटनेवाले सरकारी कर्मचारियों के संयुक्त संरक्षक बनने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती। लूट के काम में आने वाले उपकरण भी बदल गए हैं। लूटे हुए खजाने अब ऊंटों और बैलगाडि़यों पर नहीं औडी जैसी भव्य मोटरकारों में लादे जाते हैं। करोड़ों रुपयों के आभूषण पुरानी बात हैं। अब लुटेरों के घरों में करोड़ों रुपयों के वस्त्र मिलते हैं। अभी उनकी कोठियों की दीवारें तोड़ी नहीं गयी हैं, शायद तोड़ने पर पता चलेगा कि उनकी दीवारें सोने की ईंटों से बनी हैं। कौन कहता है स्वर्ण लंका भस्म हो गयी। स्वर्ण लंकाएं खोजनी हों तो ऊंचे-ऊंचे शिखरों पर सोने की चिडि़या की लाश नोच-नोच कर खाते हुए सोने के गिद्घ खोजने होंगे। जब पैसा ही भगवान हो तो गरुड़ध्वज के गरुड़ की जगह ये सोने के बने गिद्घ ही तो दिखेंगे।
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