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बेगम अख्तर की गजलें और सीमा पर धमाके

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Oct 18, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Oct 2014 13:16:28

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
भारत-पाक सीमा पर पाकिस्तानी गोलीबारी से निहत्थे ग्रामीण नागरिकों के अकारण रक्तपात के बाद एक बार फिर से छानेवाली शान्ति को इस बार एक दबंग नेतृत्व ने ईंट का जवाब पत्थर से देकर हासिल किया था। मन में विचार आ रहा था कि बाहर से आने वाले तूफानांे का तो हम सडसठ वर्षोें से दिलेरी से सामना करते आये हैं पर जिन आस्तीन के सांपों को कश्मीर में इतने वषोंर् से पाल कर रखा गया है,उन्हें भी अब कुचल देने का वक्त आ गया है। याद आ गयी गजल साम्राज्ञी बेगम अख्तर की सुरीली आवाज में शकील बदायूंनी की वे पंक्तियां-
मेरा अज्म इतना बुलंद है के पराये शोलों का डर नहीं, मुझे खौफ आतिशे गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे।
रक्तपात और धमाकों के जिक्र के बीच बेगम साहिबा की गजलों की चर्चा बेसुरी लग सकती है। पर उनकी याद आती कैसे नहीं। उनकी जन्मशती पर जब फिजां में चारों तरफ उनकी मनमोहक गायकी और हृदयस्पर्शी गजलें प्रतिध्वनित होनी चाहिए थीं तब कश्मीर की सीमा पर पाकिस्तानी रेंजर्स और पाकिस्तानी सेना की राग-रक्तपात में जुगलबंदी चल रही थी, रायफलों, राकेटों और मशीनगनों के धमाकों की संगत के साथ। आज से सौ वर्ष पहले जन्मी इस महान गायिका की जन्मशती के महीने में ही सीमा पर बेसुरे पाकिस्तानी धमाकों के होने और फिर शांत हो जाने के बाद उनकी अनेकों गजलें याद आईं, उनके शब्द नए-नए अर्थ लेकर जीवंत हो उठे।
सबसे पहले याद आये शकील बदायूनी के वे शब्द जिन्हें बेगम अख्तर की आवाज ने अमर कर दिया- मेरे हमसफर, मेरे हमनवां, मुझे दोस्त बनके दगा न दे। प्रधानमंत्री के शपथग्रहण पर आकर दोस्ती की उम्मीद दिला जाने वाले मियां नवाज शरीफ से संयुक्तराष्ट्र संघ अधिवेशन में मिलने पर नरेंद्र भाई ने शायद यही कहा होगा। या फिर मोमिन की इस गजल के शब्द दुहराए होंगे- वो जो हममें तुममें करार था, तुम्हे याद हो के न याद हो, वही याने वादा निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो।
भारत को युद्घ में हराकर कश्मीर हथिया लेने के दुष्प्रयासों में बार- बार बुरी तरह पिटने के बावजूद कश्मीर की आग पर अपनी रोटी सेंकने के पाकिस्तानी सेना के प्रयत्न आज तक रुके नहीं हैं। आम पाकिस्तानी को शायद अबतक सद्बुद्घि आ जाती पर लोकतंत्र के गले में रस्सी डालकर उसे पालतू बनाने से ही तो पाकिस्तान पर उसके सैन्यतंत्र का वर्चस्व बना हुआ है। तभी तो 1965 में पंजाब के खेतों में पैटन टैंकों के कब्रिस्तान बन जाने के बाद, 1971 में 98000 पाकिस्तानी सैनिकों के भारत द्वारा युद्घबंदी बना लिए जाने और बंगलादेश के निर्णायक युद्घ में मुंह की खाने के बाद और 1998 में कारगिल के पर्वतश्रृंगों पर मियां मुशर्रफ के हौसले पस्त हो जाने के बाद भी पाकिस्तानी फौज और आई.एस.आई ने जागी आंखों से सपने देखने बंद नहीं किये हैं। पर इस बार मोदी जी के सुदृढ़ नेतृत्व में मात खाकर पकिस्तान के हुक्मरानों ने बेगम अख्तर से सुर मिलाकर गाया होगा-कुछ तो दुनिया के इनायात ने दिल तोड़ दिया/और कुछ तल्खिये हालात ने दिल तोड़ दिया/ हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब/आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया/वो मेरे हैं मुझे मिल जायेंगे, आ जायेंगे/ऐसे बेकार खयालात ने दिल तोड़ दिया। अंत में आंसू बहाकर जौक की गजल को भी याद किया होगा-
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बदिकमार/ जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले। जाते हवाए शौक में हैं इस चमन से जौक/अपनी बला से बादे सबा सब कहीं चले।
भारत ने बातचीत के जरिये रिश्तों को सुधारने में कभी कोई झिझक नहीं दिखाई। पर जब ऐसी वार्ता के पहले पाकिस्तानी उच्चायुक्त कश्मीरी अलगाववादियों से मिलना परम आवश्यक समझें तो फिर बेगम साहिबा की आवाज में फिराक की ये गजल क्यूं न याद आये- बदगुमान हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है मुझे/ये झिझकते हुए मिलना, कोई मिलना भी नहीं। सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं/ लेकिन इस तर्केमोहब्बत का भरोसा भी नहीं। इसी गजल में आई.एस.आई के हाथों में बंधक बने हुए नवाज शरीफ साहेब को ये भी बताया गया है कि- मुंह से हम अपने, बुरा तो नहीं कहते ऐ फिराक/है तेरा दोस्त मगर, आदमी अच्छा भी नहीं।
अब तो पाकिस्तानी रेंजर्स को आगे कर देने के बावजूद पीछे से लगाम खींचती आई. एस.आई साफ दिखती है। दाग के शब्दों में बेगम अख्तर भी यही शिकायत करती हैं- खूब पर्दा है के चिलमन से लगे बैठे हैं/ साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं।
वषोंर् बाद भारत के सुदृढ़, आत्मसम्मानी नेतृत्व ने पाकिस्तान को बताया है कि उसके धैर्य की भी एक सीमा है। ईंट का जवाब पत्थर से पाकर, सारे विश्व से कोई मदद न पाकर, सरहद पर ठोकरें खाने के बाद अब उसके गुमराह हुक्मरानों को बेगम अख्तर की ये गजल याद आ रही होंगी – दूर है मंजिल, राहें हैं मुश्किल/ आलम है तनहाई का। आज मुझे एहसास हुआ है अपनी शिकास्तापाई का। अहले हवस अब पछताते हैं डूब के बहर -ए- गम में शकील/पहले नहीं था बेचारों को अंदाजा गहराई का। ल्ल

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