स्वदेशी- चाहिए शिवाजी सी स्वदेशी सोच
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स्वदेशी- चाहिए शिवाजी सी स्वदेशी सोच

by
Oct 11, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Oct 2014 15:07:06

सामने खंजर तब बचें कैसे?
हम स्वयं के बुद्धि कौशल, चौकसी से
इतिहास का एक प्रसंग है छत्रपति शिवाजी और मुगलसरदार अफजल खां का। उसने शिवाजी को संधि का प्रस्ताव भेजा, लेकिन उसने बिल्कुल नि:शस्त्र, बिना सहयोगी या सेना के एकांत में वार्ता करने की शर्त रखी। शिवाजी सतर्क थे तो बघनखा धारण करके चले गए। जैसे ही अफजल खां ने आलिंगन भेंट करके कटार खींचकर शिवाजी पर आक्रमण किया, शिवाजी ने उसे बघनखे से चीर डाला। उसकी जीवनलीला समाप्त हो गई। इससे शिक्षा मिलती है कि शत्रु से हर स्तर पर सावधानी तथा शत्रुता अपेक्षित है। आज भारतीय और स्वदेशी के जो आस्तीनी सांप हैं, उनसे सतर्क रहना भी आवश्यक है।
कुछ और ऐतिहासिक घटनाक्रम का विहंगावलोकन करें। इंग्लैंड में 1599 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई। उसका प्रमुख उद्देश्य व्यापार की आड़ में साम्राज्यवादी विस्तारवाद था। उन दिनों सूरत भारत में प्रमुख निर्यात केंद्र था। यहां से मसाले, कपास, नील, वानस्पतिक रंग पूरे संसार में जाते थे। इसलिए उस कंपनी ने मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में सर टामस रो नामक अंग्रेज को भेजकर वहां व्यापार की अनुमति मांगी। विदित हो कि उन दिनों भारत को इसी समृद्धि के कारण ' सोने की चिडि़या'कहा जाता था।
यहां पर उस कालखंड में विश्व-व्यापार की पूर्व-पीठिका समझना आवश्यक है। उन दिनों व्यापार समुद्री मार्ग से होते थे तथा जल दस्युओं के भय से नौसेना भी उनके साथ रहती थी। समुद्र में नौसेना के वर्चस्व तथा प्रभुत्व का संघर्ष था। कई देशों ने अपने-अपने प्रतिनिधियों को भेजकर समुद्री मार्ग खोजे, उनमें कोलंबस तथा वास्कोडीगामा प्रमुख थे। परवर्ती ने 1498 में भारत का मार्ग खोजा। इस क्षेत्र में उस समय स्पेन, डच, पुर्तगाल, इंग्लैंड की जबरदस्त प्रतिस्पर्द्धा में इंग्लैंड ने स्पेन को हराकर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। उन्होंने यह भी पता किया कि भारत के ऋषियों, मुनियों तथा प्राच्य वैज्ञानिकों ने वानस्पतिक अनुसंधान करके उनके औषधीय उपयोग एवं आरोग्यता के लिए नित्य भोजन में मसालों के उपयोग भारतीय जीवन शैली में परंपरा के रूप में पोषित किया था। इससे सभी देशों की निगाह भारत के मसालों पर थी। उनका प्रवेश मार्ग सूरत अंग्रेजों के व्यापार पर कब्जा करने का केंद्र बन गया। बताते हैं कि एक अंग्रेज डॉक्टर से जहांगीर ने इलाज कराया था। बादशाह को राहत मिली। उसने जहांगीर को विश्वास में लेकर अन्य क्षेत्रों में व्यापार का विस्तार कर लिया।
ईस्ट इंडिया कंपनी का एक प्राइवेट प्रतिष्ठान था, उसका निदेशक मंडल था। वह कर के रूप में इंग्लैंड को राजस्व भेजती थी। कंपनी ने अपनी व्यापारिक सुरक्षा के लिए सेना रखने की अनुमति मांगी। देश में उस समय सैकड़ों देसी रियासतें थीं। वहां होकर देश के अन्य भागों में जाने के लिए कंपनी ने संधियां कीं। उन राज्यों को समझाया कि वे अपनी सेना से उन राज्यों की रक्षा करेंगे। कुछ राज्यों ने संधि से इंकार तथा उनसे युद्ध लड़े। सबसे पहले 1757 में प्लासी के मैदान में नवाब सिराजुद्दौला को परास्त करके बंगाल पर कब्जा किया। 1764 में बक्सर के मैदान में मुगल बादशाह को पराजित कर उत्तर तथा मध्यभारत पर कब्जा किया। 1798 में दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान, 1802में बेसिन में मराठे, पंजाब के रंजीत सिंह सबके राज्य अंग्रेजों के कब्जे में आ गए। लार्ड डलहौजी ने संधि में एक और शर्त बढ़ा दी कि उत्तराधिकार का कोई विवाद तय करने अथवा निसंतान को गोद लेने की अनुमति कंपनी देगी, अन्यथा राज्य जब्त कर लिया जाएगा। इस राज्य हड़पो नीति, राजस्व की कठोर एवं अपमानजनक वसूली नीति से राज्यों-रियासतों में विद्रोह खड़ा हुआ जो 1857 की क्रांति के रूप में सामने आया। इन विद्रोहों की शिकायत 'ब्रिटेन क्राउन'से की गई। जांच बैठी, गलत तरीकों से सत्ता हथियाने, राजस्व बढ़ाने अत्याचार करने के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापार लाइसेंस रद्द करके वापस इंग्लैंड बुला लिया गया। सत्ता पर ब्रिटिश क्राउन का वर्चस्व हो गया। उन अत्याचारों के खिलाफ नब्बे वर्ष तक संघर्ष करना पड़ा। तब कहीं 1947 में देश को स्वाधीनता मिली। 'फूट डालो शासन करो ' के सूत्रधार अंग्रेज जाते-जाते इस देश के टुकड़े कर गए। आज फिर अनेक देश भारत में व्यापारिक संधियों के माध्यम से प्रवेश का मार्ग ढूंढ रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन की संधियां भी उसी दुश्चक्र की भूमिका है। अपने मुक्तक उद्धृत करना यहां प्रासंगिक है।
अर्थ के आकाश पर कुहरा घना है।
अब उजाले का सहारा अनमना है।
जो तिजारत से सियासत खेलता है,
फिर उसी इतिहास की संभावना है।
यहां कुहासा तो क्षणिक है,
इसे छंटना ही पड़ेगा।
सूर्य चमकेगा प्रखर तब, मार्ग से हटना पड़ेगा।
पक्ष बदल देते स्वयं इतिहास का, भूगोल का उस सतेजस शक्ति सम्मुख,
तमस को कटना पड़ेगा।
इस सिंहावलोकन का संदेश है कि हम विश्व-व्यापार को बढ़ावा दें, लेकिन सतर्कता के साथ ताकि उनका प्रवेश और निवेश इतिहास की पुनरावृत्ति न कर सके। खतरा केवल कृषि-व्यापार के क्षेत्र में ही नहीं है। मैकाले-मार्क्स तथा मदरसों के मकार ने अपने अनुयायियों की फौज खड़ी कर दी है। इनमें से अनेक अवांछनीय तत्व, आस्तीन के सांप बनकर घात लगाए हैं। इन अनुयायियों ने कला, संस्कृति, शिक्षा, परंपरा, जीवन शैली की जड़ों में मट्ठा डालकर भारतवासियों की एक बड़ी संख्या का मस्तिष्क प्रक्षालन किया है। अपनी समृद्ध परंपराओं को हीन बताने का उपक्रम किया।
हमारे संघर्षपूर्ण तेवर, कुशल नियोजन तथा कार्य संस्कृति से ही स्वदेशी भावना को बल मिलेगा। कविवर जयशंकर प्रसाद के शब्दों में- 'कर्मयज्ञ से जीवन के सपने का स्वर्ग मिलेगा। इसी विपिन में मानस की आशा का कुसुम खिलेगा।' –अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'

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