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पिछले सप्ताह की तो बात है। एक खबरिया चैनल की पत्रकार टीम किसी कार्यक्रम के निमित्त मेरे घर पर आयी थी। बात-बात में उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले वे कश्मीर घाटी में बाढ़ की बर्बादी को कवर करने गये थे। प्रकृत्ति की विनाशलीला को देखकर सन्न रह गये थे। भारतीय जल और नभ सेना पूरे मनोयोग से बड़ी कठिन परिस्थितियों में भी उनकी सहायता में जुटी हुई थी। जलमग्न क्षेत्रों में सहायता सामग्री पहुंचा रही थी, बाढ़ में फंसे परिवारों को बाहर ला रही थी, राहत शिविरों में पहुंचा रही थी। भारत से लाखों-करोड़ों रुपए की सहायता सामग्री कश्मीर को भेजी जा रही थी। हम भारतीय जवानों की इस परोपकार भावना और तत्परता को देखकर भाव विह्वल थे, गर्वोन्नत भी थे। हमें गर्व हुआ कि जिस कश्मीर से हमेशा भारत विरोध का स्वर सुनाई देता है, जहां से हमेशा भारत से आजादी का नारा उठता है। भारतीय सेना को शत्रु सेना कह कर गालियां दी जाती हैं। वहां प्राकृतिक आपदा आने पर भारत का प्रधानमंत्री तुरंत दौड़कर पहुंच गया, भारतीय सेना पूरी तत्परता के साथ अत्यंत कठिन स्थितियों में भी पूरे मनोयोग से सहायता कार्य में जुट गयी। इस भयंकर आपदा के समय राज्य प्रशासन पूरी तरह ठप्प पड़ गया और आजादी का नारा लगाने वाले कहीं दूर तक दिखायी नहीं दिये, पूरी तरह गायब हो गये। क्या इस अनुभव के बाद भी भारत से आजादी की बात करने वाले पृथकतावादियों के मन में भारत और भारतीय सेना के प्रति कृतज्ञता व अपनत्व का भाव नहीं जगा होगा? भारतीय जवानों के सहायता कार्य का यह बदला। ऐसा क्या अपराध किया है भारत ने कश्मीरवासियों के साथ? वे कश्मीरी कौन हैं जिन्होंने अपने ही लाखों कश्मीरी भाइयों को खदेड़कर शेष भारत में शरण लेने को बाहर कर दिया? क्यों कश्मीर में जिहाद का खूनी नारा गूंजता रहता है? क्यों हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान इस खूनी जिहाद को आजादी की लड़ाई बताता है? क्यों पाकिस्तान का प्रत्येक प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर भारत के विरुद्ध कश्मीर के मसले का इस्तेमाल करता है। अभी भी पिछले सप्ताह ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मियां नवाज शरीफ ने राष्ट्र संघ महासभा के अधिवेशन में अकारण ही कश्मीर का प्रश्न उठाया और वहां जनमत संग्रह की मांग की।
भारत-पाकिस्तान के जन्म से लेकर अब तक के रक्तरंजित इतिहास को भूल कर जब-जब पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाता है, तब-तब पाकिस्तान कश्मीर को बीच में लाकर हमसे बढ़े हुए हाथ को ठुकरा देता है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 26 मई को अपने शपथ ग्रहण कार्यक्रम के अवसर पर लीक से हटकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न्योता देकर बुलाया, मैत्री वार्ता की प्रक्रिया आरंभ की, पाकिस्तान और भारत के विदेश मंत्रियों के बीच वार्ता की तिथि तय की। पर पाकिस्तान के विदेशमंत्री ने पृथकतावादी हुर्रियत नेताओं को वार्ता पर बुलाकर उस शांति-प्रक्रिया को ध्वस्त कर दिया। आखिर क्यों? 1947 में पाकिस्तान के जन्म से आजतक भारत को पाकिस्तान के साथ तीन-तीन युद्ध लड़ने पड़े हैं? कश्मीर में भारतीय सीमाओं की रक्षा के लिए विशाल सैन्य बल बनाये रखना पड़ रहा है। भारत की गरीब जनता के श्रम से निर्मित राजकोष से अरबों-खरबों रुपयों की धनराशि अब तक कश्मीर के विकास में झोंकी जा चुकी है। कश्मीर के हजारों वर्गमील क्षेत्र पर अभी भी पाकिस्तानी सेना का कब्जा है। भारतीय संसद 1993 में उस पूरे क्षेत्र को मुक्त कराने का संकल्प पारित कर चुकी है, पर भारत ने उस संकल्प को पूरा करने के लिए सैनिक युद्ध का रास्ता अपनाना उचित नहीं समझा है। वह पाकिस्तान और पृथकतावादियों के हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा कर रहा है। परन्तु कब तक और हम कैसे भूल जाएं कश्मीर के साथ अपने हजारों साल पुराने रिश्तों को? कश्यप ऋषि का देश, अभिनव गुप्त और कल्हण की साहित्य-साधना की भूमि, शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठ मार्तण्ड का सूर्य मन्दिर, अमरनाथ का पवित्र हिमलिंग, शैवदर्शन की जन्मभूमि, शारदा लिपि और भवानी का मन्दिर, वैदिक नदी वितस्ता का प्रवाह क्षेत्र, कौन हैं ये पृथकतावादी, कब पैदा हुए थे? आखिर जिसे आज कश्मीर-समस्या कहा जाता है उसका जन्म कब हुआ? कैसे हुआ? क्यों नहीं स्वतंत्र भारत अपने 67 साल के इतिहास में उसे हल नहीं कर पाया? स्वतंत्रता के आगमन के समय जिन सरदार पटेल के दृढ़ और कुशल नेतृत्व ने 500 से अधिक देसी रियासतों का भारत में विलय कराने में सफलता पायी वे कश्मीर समस्या का नासूर हमारे सीने में क्यों छोड़ गये?
कश्मीर-समस्या के इतिहास को टटोलना शुरू करते हैं तो हम भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर आकर रुक जाते हैं। इतिहास बताता है कि जवाहरलाल ने केवल कश्मीर का प्रश्न सरकार के मंत्रालय से अलग करके अपने पास ले लिया और गोपालस्वामी आयंगर के माध्यम से वहां अपनी टांग अड़ायी। सरदार ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप का विषय नहीं बनाया। एक बार उन्होंने यह टिप्पणी अवश्य की कि यदि नेहरू ने इस कश्मीर के प्रश्न को मेरे पास ही छोड़ दिया होता तो वह हल हो गया होता। पर यहां प्रश्न खड़ा होता है कि नेहरू की कश्मीर प्रश्न में इतनी व्यक्तिगत रुचि क्यों थी? शब्दों के धरातल पर तो नेहरू अपने को विश्व मानव बताते थे पर कश्मीर के प्रति उनका लगाव अपने कश्मीरी मूल के कारण था। कश्मीरियत की संकीर्ण भावना उनमें बलवती थी। दूसरे जम्मू कश्मीर के डोगरा शासकों को वे सामन्तशाही की श्रेणी में रखते थे और मार्क्सवादी विचारधारा के कारण सामन्तवाद और पूंजीवाद के प्रति विरोध भाव प्रदर्शित करना वे आवश्यक समझते थे। उनकी इसी दुर्बलता का लाभ उठाने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से शिक्षित शेख अब्दुल्ला ने जम्मू के हिन्दू राज के विरुद्ध लड़ाई के लिए 1936 में 'मुस्लिम कान्फ्रेंस' नामक जिस संस्था को शुरू किया था। उसे देशव्यापी जनान्दोलन की प्रतिनिधि कांग्रेस का समर्थन पाने के लिए अपने कम्युनिस्ट मित्र के.एम. अशरफ की सलाह पर 'नेशनल कान्फ्रेंस' नाम का बुरका ओढ़ा दिया और 1939 से अवाहरलाल नेहरू को रिझाने का योजनाबद्ध प्रयास आरंभ कर दिया। नेहरू उस समय देसी रियासतों में जनान्दोलन के लिए कांग्रेस द्वारा स्थापित अ.भा. राज्य प्रजा परिषद के अध्यक्ष थे इसलिए स्वाभाविक ही देसी रियासत होने के कारण जम्मू-कश्मीर उनके कार्यक्षेत्र में आता था। अब्दुल्ला ने इसका लाभ उठाया। नेहरू अपने सामन्त विरोधी एवं हिन्दू विरोधी रुझान के कारण महाराजा हरिसिंह के आलोचक और शेख अब्दुल्ला के प्रशंसक बन गये।
पांचवा कारण कश्मीर राज्य की सीमाएं कई देशों से मिलने के कारण उसके सामरिक महत्व को देखते हुए ब्रिटिश सरकार की उसमें गहरी रुचि थी। लार्ड माउन्टबेटन ब्रिटिश सरकार का प्रतिनिधित्व करते थे और नेहरूजी के उनसे भावनात्मक संबंध बन गए थे। इसलिए कश्मीर समस्या के कई महत्वपूर्ण क्षणों में नेहरू ने माउन्टबेटन की सलाह को मान, भारत के हितों की उपेक्षा की। अंतिम, उस समय पश्चिमी देशों और सोवियत रूस के बीच शीतयुद्ध प्रारंभ हो चुका था। नेहरू का सहज झुकाव सोवियत गुट की ओर और अमरीकी गुट के विरुद्ध था। राष्ट्र संघ में पश्चिमी गुट के पास बहुमत था। पर नेहरू अपने को अन्तराष्ट्रीय राजनीति का मर्मज्ञ समझने का भ्रम पाल बैठे थे, इसलिए सरदार पटेल और गाधी जी की सलाह के विरुद्ध वे कश्मीर प्रश्न को राष्ट्रसंघ में ले गये। राष्ट्रसंघ ने अविलम्ब युद्धविराम और जनमत संग्रह द्वारा इस प्रश्न को हल कराने का प्रस्ताव पारित कर दिया। नेहरू जी के पास यदि थोड़ी भी व्यावसायिक बुद्धि होती तो वे अपनी सेना की सलाह को मान कर युद्ध विराम लागू करने में इतनी जल्दबाजी न करते क्योंकि भारतीय सेना उस समय कश्मीर के पूरे क्षेत्र को पाकिस्तानी कब्जे से मुक्त कराने की स्थिति में पहुंच चुकी उसे मात्र कुछ दिनों का समय चाहिए था। किन्तु नेहरू ने यह समय उन्हें नहीं दिया।
कश्मीर-समस्या को जटिल बनाने की दिशा में नेहरू की भूलों की सूची बहुत लम्बी है। इस विषय पर सरकारी दस्तावेजों और नेहरू-सरदार पत्राचार का बड़ा ढेर उपलब्ध है। कुछ बानगी मात्र यहां प्रस्तुत हैं।
सरदार पटेल के नाम नेहरू के 27 सितम्बर 1947 के पत्र से ज्ञात होता है कि भारत सरकार को यह भनक लग चुकी थी कि पाकिस्तान कश्मीर पर कबायली आक्रमण की तैयारियां कर रहा है और कभी भी वह आक्रमण हो सकता है। पर, कश्मीर राज्य का भारत में विलय हुए बिना भारत वहां सैनिक हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा इसलिए कश्मीर का विलय पहली आवश्यकता और वह विलय महाराजा हरिसिंह के हस्ताक्षरों से ही संभव था। नेहरू जी शेख अब्दुल्ला-महाराजा टकराव में शेख के साथ खड़े थे और महाराजा से उनके संबंध तनावपूर्ण थे। ऐसी स्थिति में उन्हें सरदार से प्रार्थना करनी पड़ी कि वे महाराजा को विलय के लिए तैयार करें। इसके लिए पहली आवश्यकता थी कि, कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए उत्सुक रामचन्द्र काक का प्रधानमंत्री पद से हटाकर राष्ट्रभक्त जस्टिस मेहरचन्द्र महाजन को महाराजा के द्वारा प्रधानमंत्री बनवाया जाए। सरदार ने अपनी सूझबूझ से यह करवा लिया। पर शेख के प्रति नेहरू के पक्षपात के कारण महाराजा आशंकित थे और विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने में झिझक रहे थे। यहां भी सरदार ने असामान्य कूटनीतिक कौशल का परिचय दिया। 24 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान योजित कबायली आक्रमण होने एवं मुजफ्फराबाद पर उनका कब्जा होने की घबराहट का लाभ उठाकर सरदार ने 26 अक्तूबर को विलय पत्र पर महाराजा के हस्ताक्षर प्राप्त कर लिये।
अब मुख्य प्रश्न था कश्मीर की रक्षा के लिए सेनाएं भेजने का। ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ सर राय बुकर कश्मीर में सेना भेजने का विरोध कर रहे थे। इसके लिए छह लोगों की एक निर्णायक बैठक बुलायी गयी, जिसमें प्रधानमंत्री नेहरू, सरदार पटेल, रक्षामंत्री बल्देव सिंह, जनरल बुकर और आर्मी कमांडर जनरल रसेल तथा शेख अब्दुल्ला के प्रतिनिधि के नाते बख्शी गुलाम मुहम्मद उपस्थित थे। इस निर्णायक बैठक का वर्णन बख्शी के शब्दों में ही पढि़ये।
'लार्ड माउंटबेटन ने बैठक की अध्यक्षता की।….. जनरल बुकर ने जोर देकर कहा कि उनके पास संसाधन इतने थोड़े हैं कि राज्य को सैनिक सहायता देना संभव नहीं है। लार्ड माउंटबेटन ने निरुत्साहपूर्ण झिझक दिखाई। पंडित जी ने तीव्र उत्सुकता और शंका प्रकट की। सरदार पटेल सबकुछ सुन रहे थे, किन्तु एक शब्द भी नहीं बोले। वह शांत व गंभीर प्रवृत्ति के थे। उनकी चुप्पी बैठक में परिलक्षित पराजय एवं असहाय स्थिति के बिल्कुल विपरीत थी। सहसा सरदार अपनी सीट पर हिले और तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने कहा, जनरल, हर कीमत पर कश्मीर की रक्षा करना होगा। आगे जो होगा, देखा जाएगा। संसाधन है या नहीं, यह आपको तुरंत करना ही होगा। सरकार आपकी हर प्रकार की सहायता करेगी। यह अवश्य होगा और होना ही चाहिए। कैसे और किसी भी प्रकार करो, किन्तु इसे करो।' जनरल के चेहरे पर उत्तेजना के भाव दिखायी दिये। मुझमें आशा की कुछ किरण जगी। जनरल आशंका जताने की सोच रहे होंगे किन्तु सरदार चुपचाप उठे और बोले, 'हवाई जहाज से सामान पहुंचाने की तैयारी सुबह तक कर ली जायेगी।' इस प्रकार कश्मीर की रक्षा सरदार पटेल के त्वरित निर्णय, दृढ़ इच्छा और विषम से विषम परिस्थिति में भी निर्णय के क्रियान्वयन की लौह-इच्छा का ही परिणाम था।'
सर राय बुकर ने भी स्वीकार किया है कि मैंने राय दी थी भारतीय सेना, जो उन दिनों इतनी शक्तिशाली न थी, के लिए हैदराबाद और कश्मीर को एक साथ निपटाना आसान नहीं था, पर सरदार पटेल नहीं माने। हैदराबाद में सैन्यबल की निपुणतापूर्वक संचालित की गई कार्रवाई को समझाने में वे मुझसे अधिक चतुर निकले। मुझे कभी भी पता नहीं चला कि किस प्रकार उनकी गुप्तचर बुद्धि ने यह सब किया। किन्तु उस विप्लवी स्थिति में भी उनकी युक्ति शानदार रूप में सफल रही थी। वस्तुत: राष्ट्रसंघ ने कश्मीर में जनमत संग्रह का जो फार्मूला दिया उसके जनक माउन्टबेटन थे। इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान की गुप्त यात्रा करके जिन्ना और लियाकत अली से भेंट की थी। 1 नवम्बर 1947 को उन्होंने जिन्ना से अकेले में वार्ता के समय जनमत संग्रह का फार्मूला दिया। पर उसे जिन्ना ने उस समय नहीं माना क्योंकि तब वह हैदराबाद को पाकिस्तान में मिलाने या स्वतंत्र राज्य बनाने का सपना देख रहे थे। अंतत: वही माउंटबेटन फार्मूला राष्ट्रसंघ के माध्यम से भारत को परोसा गया और नेहरू ने उसे स्वीकार कर लिया।
जिस समय भारत की सेना और देशभक्त नागरिक कश्मीर घाटी में पाकिस्तानी आक्रमण के विरुद्ध अपनी जान की बाजी लगा रहे थे उस समय नेहरू अपने हिन्दू द्वेष के कारण शेख अब्दुल्ला शिविर से प्राप्त शिकायतों के आधार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरुद्ध अभियान चला रहे थे। नेहरू ने 30 दिसम्बर 1947 को पटेल को पत्र लिखकर शिकायत की कि बख्शी के होमगार्डों के बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हथियार क्यों दिये जा रहे हैं। उन्होंने लिखा कि बख्शी गुलाम मुहम्मद ने यह बात मुझे बताई। सरदार ने इस आरोप को मानने से इनकार कर दिया और नेहरू को साफ लिख दिया कि एक दिन पूर्व ही बख्शी दिनभर मेरे साथ था, किन्तु उसने इस बारे में कोई बात नहीं की, उसी दिन नेहरू ने सरदार को दसरा पत्र लिखा कि कमांडर-इन-चीफ बुकर बहुत नाराज हैं और उन्होंने मेजर जनरल कुलवंत सिंह से स्पष्टीकरण मांगा है कि बख्शी के होमगार्डों को हथियार क्यों नहीं दिये गये? सरदार ने मेजर कुलवंत सिंह से पूछा तो उन्होंने बताया कि हथियार बख्शी को दिये गए थे और महाराजा ने सीधे या किसी के द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हथियार नहीं दिए।
नेहरू जी 1 जनवरी 1948 को कश्मीर प्रश्न को सरदार से पूछे बिना राष्ट्रसंघ में ले गये। राष्ट्रसंघ के निर्देशानुसार उन्होंने उस समय भारतीय सेना को युद्ध विराम के लिए विवश किया, जब वह पूरे क्षेत्र को पाकिस्तान से मुक्त कराने के बिन्दु पर थी। कांग्रेस नेता एस.के. पाटिल ने भी अपनी आत्मकथा, 'माई डायरी विद कांग्रेस' में लिखा है, सरदार के भरोसे छोड़ा जाता तो वे कभी भी यह नहीं मानते। भारत लाभ की स्थिति में था। …. किन्तु जवाहरलाल ने माउंटबेटन की सलाह अधिक सुनी। इन कुछ प्रसंगों से स्पष्ट है कि नेहरू अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से ग्रसित थे जिनका मूल्य भारत को बहुत महंगा चुकाना पड़ रहा है। ल्ल 1.10.2014 -देवेन्द्र स्वरूप
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