|
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सर्वेसर्वा शरद पवार ने 6 सितंबर को महाराष्ट्र में अपनी पार्टी के चुनाव-प्रचार की शुरुआत करते हुए नारियल फोड़ा। आमतौर पर नारियल से मीठा पानी निकलता है, किन्तु पवार साहब के इस नारियल से संघ-द्वेष का जहर निकला। महाराष्ट्र में संघ से घृणा करने वाली जमात के अगुआ शरद पवार ही हैं। किसी के प्रति विद्वेष रखने के पीछे कुछ कारण होने जरूरी होते हैं। ये कारण व्यक्तिगत, वैचारिक याराजनैतिक हो सकते हैं। कुछ लोग संघ के हिन्दू-राष्ट्र के विचार को समझने में विफल रहते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से वे इस विचार को पचा नहीं पाते। तब ऐसे लोग अपनी वैचारिक भूमिका के द्वारा संघ की आलोचना करने लगते हैं। एक के बाद एक पुस्तकें लिखकर वे बताने लगते हैं कि 'हिन्दू राष्ट्र का विचार कितना भयावह है! और यह विचार मुसलमानों, वंचितों और स्त्रियों के लिए कितना हानिकारक है!' इनमें से कुछ वैचारिक विरोधी तो अपने विचार के प्रति इतने अधिक कट्टर होते हैं कि शायद कुत्ते की पूंछ सीधी हो भी जाए, किन्तु इनके विचारों में कोई परिवर्तन हो पाना लगभग असंभव ही होता है।
दुष्प्रचार ऐसा भी
तीसरी श्रेणी में राजनैतिक विरोधी होते हैं। हमें शरद पवार को उसी श्रेणी में रखना पड़ेगा। शरद पवार अत्यंत बुद्घिमान और चतुर राजनेता हैं। वे जानते हैं कि विरोध यदि राजनैतिक ही हो तो वह लंबे समय तक नहीं टिक सकता। इसलिए वे विरोध को विचारधारा का मुखौटा पहनाने में माहिर हैं। संघ के बारे में उनके कुछ बयान इस दृष्टि से अध्ययन किए जाने योग्य हैं। सन् 1992 में बाबरी ढांचा ढहा था। वह तारीख थी 6 दिसंबर। तिथि के अनुसार वह गीता जयंती का दिन था और अंग्रेजी तारीख के अनुसार डा. बाबासाहब अंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिन था। क्षत्रिय धर्म को जागृत करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था। शरद पवार ने बाबरी ढांचा ढहने की घटना पर दु:ख व्यक्त किया था और केवल एक ही वाक्य कहा था कि डा़ बाबासाहब अंबेडकर को अपमानित करने के लिए ही यह तारीख चुनी गई थी। बाबासाहब के अपमान का अर्थ है देश के संविधान का अपमान। संघ के लोगों ने जानबूझकर ऐसा अपमान किया। एक ही वाक्य में पवार महोदय ने देश को जताने का प्रयत्न किया कि संघ परिवार बाबासाहब का विरोधी है। संविधान का विरोधी है। लोकतंत्र का विरोधी है। यह दुष्प्रचार का जीता जागता उदाहरण था।
अद्भुत आविष्कार
इसके बाद शरद पवार दाऊद इब्राहिम द्वारा करवाए गए बम धमाकों में उलझ गए। विधानसभा में स्व. गोपीनाथ मुंडे ने उनके आरोपों की खाल उधेड़कर रख दी। गोपीनाथ जी की संघर्षयात्रा के कारण महाराष्ट्र में सत्ता-परिवर्तन हुआ और भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार बनी। पवार के संघ-द्वेष के लिए यह एक बहुत बड़ा झटका था। अब उन्होंने अपनी भाषा में थोड़ा बदलाव कर लिया। महाराष्ट्र में श्री मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने। जोशी ब्राह्मण हैं। शरद पवार अब जोशी को 'श्रीमंत जोशी' कहने लगे। 'श्रीमंत' शब्द पेशवाओं के लिए उपयोग किया जाता था। पवार की बात का मतलब यह था कि जोशी का मुख्यमंत्री बनना इस बात का संकेत है कि अब फिर से पेशवाओं का शासन आ गया है। शरद पवार की बुद्घि कितने अद्भुत ढंग से कार्य करती है!
इसके बाद देश में इस्लामी आतंकवादियों ने बम-विस्फोटों की श्रृंखला शुरू कर दी। आतंकियों को गिरफ्तार किया जाने लगा। मुसलमान और आतंकवाद का समीकरण बनता दिखने लगा। मुस्लिम समाज को तो शरद पवार अपना वोट-बैंक ही मानते हैं। इस बात से उन्हें अत्यधिक तकलीफ होने लगी। इस दु:ख से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने 'हिन्दू आतंकवादियों' का आविष्कार किया। इसे सामाजिक-विज्ञान का एक युग-प्रवर्तक आविष्कार ही कहा जा सकता है। 2 अप्रैल 2009 को उन्होंने मुंबई के उर्दू अखबार 'इंकलाब' को इंटरव्यू दिया। उसमें उन्होंने कहा कि 'जिस प्रकार दुनियाभर में जारी आतंकवाद के लिए अमरीका जिम्मेदार है, उसी प्रकार भारत में चल रहे आतंकवाद के लिए भारतीय जनता पार्टी जिम्मेदार है। भारतीय जनता पार्टी की सांप्रदायिक विषय-सूची और राष्ट्रीय नीति के कारण देश में आतंकवाद बढ़ रहा है।' सन् 2009 में लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। उन्हें लक्ष्य बनाते हुए तब पवार ने कहा था कि यदि आडवाणी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं, तो यह देश के लिए बहुत नुकसानदायक बात होगी। इसी इंटरव्यू में उन्होंने खुलेआम आरोप भी लगाया कि हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए बम विस्फोट, महाराष्ट्र के मालेगांव, पूर्णा, नांदेड़ और परभणी के बम विस्फोट हिन्दुओं ने ही किए थे। वे यह बताना भी नहीं भूले कि 'देश में ज्यादातर बम-विस्फोटों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रत्यक्ष भूमिका है।' हिन्दू आतंकवाद का पर्यायवाची शब्द 'भगवा आतंकवाद' भी गढ़ लिया गया। इसलिए देश में भगवा वस्त्र पहनने वाले सभी लोग आतंकवादी हो गए। इसे कहते हैं अद्भुत बुद्घि। शरद पवार की यह खोज भी इतिहास और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में एक अद्भुत खोज कही जा सकती है। अचरज की बात है कि देश के सेकुलर लोगों ने ऐसी खोजों के लिए पुरस्कार देने वाली किसी सेकुलर संस्था की अभी तक स्थापना कैसे नहीं की! कारनेजी, रॉकफेलर, फोर्ड फाउंडेशन जैसी कई विदेशी संस्थाएं ऐसे कामों के लिए प्रचुर धन देने को तैयार रहती हैं, फिर भी आज तक यह क्षेत्र अछूता क्यों रह गया, इस पर इन लोगों को अवश्य सोचना चाहिए।
विचारधारा की आलोचना
इन दिनों पवार संघ की हाफपैंट की बात कर रहे हैं। अब ब्राह्मणशाही, पेशवाई, हिन्दू आतंकवाद आदि शब्द पीछे छूट गए हैं और उन्हें दिन-रात केवल संघ की हाफपैंट ही याद आने लगी है। लोकसभा चुनाव-प्रचार के दौरान उन्होंने हाफपैंट के बारे में भाषण भी दिए थे। कल्याण के अपने भाषण में उन्होंने कहा था, 'क्या आप इन हाफपैंट वालों के हाथों में देश सौंपेंगे?' बेचारे मतदाता इतने नादान साबित हुए कि वे 'बुद्धिमान' पवार की बातों का आशय ही नहीं समझ पाए और उन्होंने भारी बहुमत देकर, शरद पवार के शब्दों में, हाफपैंट वालों के हाथों में देश सौंप दिया। लेकिन जो हार मान जाएं, वे शरद पवार कैसे? उन्होंने पुन: 6 सितंबर की सभा में हाफपैंट का मुद्दा उछाला। डा़ विजय गावित, बबनराव पाचपुते, भास्करराव खतगावकर, सूर्यकांत पाटिल, माधव किन्हलकर, ये पांचों नेता भाजपा में शामिल हो गए। इनमें से कुछ लोग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में थे। 'मैंने आज तक संघ को इतनी गालियां दीं, किन्तु फिर भी मेरे ही सहयोगी संघ की विचारधारा को मानने वाली पार्टी में खुशी-खुशी शामिल हो रहे हैं', यह देखकर यदि पवार के मन में प्रश्न उठा हो कि 'क्या मेरी तपस्या का फल यही है?', तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
जो नेता अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा में जा रहे हैं, उनके बारे में शरद पवार कहते हैं, विजयादशमी के कार्यक्रम में इन नेताओं को संघ की हाफपैंट पहनकर संचलन में देखने की मेरी इच्छा है। गौतम बुद्घ की शिक्षा है कि व्यक्ति को किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए क्योंकि द्वेष करने पर यह द्वेष ही जीवन भर हमारा पीछा करते रहता है। पवार के मामले में यह बात सौ प्रतिशत सही सिद्घ हुई है। अब उन्हें हर तरफ संघ की हाफपैंट ही दिखने लगी है। जिस प्रकार कंस को जल-थल में सर्वत्र श्रीकृष्ण ही दिखते थे और जिस तरह मुगलों को महाराष्ट्र में शिवाजी के वीर सैनिक संताजी-धनाजी ही दिखते थे, वैसी ही पवार की दशा हो गई है। यह दशा अच्छी नहीं होती। सेनापति को तो ऐसी दशा बिल्कुल भी शोभा नहीं देती, क्योंकि यह निर्णायक पराजय का संकेत होती है।
समाजसेवा के लिए सदैव तत्पर
संघ की हाफपैंट अपने देश में एक प्रतीक बन गई है। यह प्रतीक है शुद्घता का, सात्विकता का, समर्पण का और निस्वार्थ भावना से सामाजिक कार्य करने का। शरद पवार और उनके साथी, जो सफेद कपड़े पहनते हैं, उनके लिए यह हाफपैंट पूर्णत: विरोध का प्रतीक है। यह हाफपैंट स्वयंसेवक को अपने पैसों से खरीदनी पड़ती है। संघ में वह मुफ्त बांटी नहीं जाती। हाफपैंट पहनने वाले को कुछ व्रत पालन करने होते हंै। वे किसी तरह का नशा नहीं करता और जीवन बहुत सादगी से जीते हैं। अपने निजी उद्योग, व्यापार, व्यवसाय के द्वारा स्वयंसेवक नैतिक मागोंर् से बहुत धन कमाते हैं। लेकिन उनके घरों में संपत्ति का प्रदर्शन नहीं किया जाता। मैं मुंबई में विले पार्ले इलाके के पूर्व नगर संघचालक स्व़ वसंतराव दीक्षित के घर जाया करता था। वे मुंबई के एक क्लीयरिंग हाऊस के मालिक थे। लेकिन उनके घर में संपत्ति का प्रदर्शन शून्य था। डा. जगमोहन गर्ग अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त तकनीकी विशेषज्ञ थे। गाजियाबाद में मैं उनके घर चार दिन रहा था। गाजियाबाद में उनके तीन कारखाने थे। उनका घर बड़ा था, लेकिन उनका रहन-सहन किसी सामान्य मध्यमवर्गीय व्यक्ति जैसा ही था। यही हाफपैंट पहनने वाले डा़ अशोकराव कुकड़े न केवल महाराष्ट्र के, बल्कि पूरे भारत के एक प्रसिद्घ शल्य-चिकित्सक हैं। उनकी सादगी तो ऐसी है कि जब कभी मैं लातूर जाता हूं, वे स्वयं मुझे लेने रेलवे स्टेशन आते हैं। यदि मैं ऐसे लोगों के नाम गिनाने लगूं, तो यह पूरी पत्रिका छोटी पड़ जाएगी। हाफपैंट पहनने वाले समाज सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। उनके कार्य का निष्पक्ष विश्लेषण करने वाले लोग संघ का नामकरण करते हैं-'रेडी फॉर सेल्फलैस सर्विस'। चाहे आंध्र प्रदेश का चक्रवात हो, गुजरात का भूकंप, उत्तराखंड का प्रलय या हरियाणा में दो हवाई जहाजों की टक्कर, ऐसे सभी स्थानों पर राहत और बचाव कार्य के लिए ये हाफपैंट वाले ही सबसे पहले पहुंचते हैं। स्वयं पवार भी किल्लारी के भूकंप के दौरान यह देख चुके हैं। यह बात अलग है कि वहां भी पवार ने हाफपैंट वालों को कार्य करने से रोका था, उनके कार्य में बाधाएं उत्पन्न की थीं। अपनी निस्वार्थ सेवा भावना के द्वारा इस हाफपैंट ने समाज में विश्वसनीयता प्राप्त की है।
शरद पवार जैसे लोग दावा करते हैं कि वे राजनीति में समाज सेवा के उद्देश्य से आए हैं, लेकिन आश्चर्य है कि इस तरह समाजसेवा करते-करते ऐसे लोग कई चीनी मिलों के मालिक बन जाते हैं, शिक्षा-संस्थानों के मालिक बन जाते हैं, निर्माण-व्यवसाय के मालिक बन जाते हैं और इस सेवा के माध्यम से इतनी संपत्ति जमा कर लेते हैं, जिसकी गिनती तक हम जैसे सामान्य लोग नहीं कर सकते। सफेद कपड़ों के पीछे एक काला व्यक्तित्व छिपा होता है, जो सरलता से दिखाई नहीं पड़ता। विभिन्न जातियों के बीच विवाद को उकसाने वाला, पांथिक कलह को बढ़ावा देने वाला, किसानों का शोषण करने वाला, वंचितों, गरीबों, भोले-भाले लोगों को गलत राह पर बढ़ाने वाला, उनकी बुद्घि को भ्रमित करने वाला एक स्याह व्यक्ति होता है। हाफपैंट वालों के संदर्भ में ऐसा नहीं होता।
देश भर में संघ के तीन हजार से अधिक प्रचारक हैं (हाफपैंट पहनने वाले)। उनका बैंक खाता नहीं होता, शरीर पर पहने कपड़ों और एकाध पेन के अलावा उनके पास कोई संपत्ति नहीं होती। उनका सर्वस्व देश के लिए समर्पित होता है। उनका आदर्श अपने सामने रखकर मेहनत से कमाई गई संपत्ति मुक्तहस्त से दान करने वाले लाखों हाफपैंट वाले लोग आज इस देश में हैं। यह हाफपैंट देश की सात्विकता का, कल्याण का और शाश्वत धर्म का प्रतीक बन गई है। उसका अस्तित्व इस देश की सनातन सभ्यता का अस्तित्व है। इतना ही नहीं, बल्कि इस हाफपैंट का अस्तित्व देश को हर प्रकार से सामर्थ्यवान बनाने का अस्तित्व है। सबसे पहले हिन्दू समाज के दोष दूर हों, उसके आधार पर अन्य समाजों के लोगों को अपना बनाया जाए। उनकी उपासना पद्घतियों को अबाधित बनाए रखते हुए उन्हें
राष्ट्रीय जीवनधारा में समाहित किया जाए। यहां कोई वंचित, शोषित, गरीब न रहे। सभी की एक ही पहचान हो कि हम हिंदुस्थान के हिन्दू हैं। अपनी विशिष्टताओं के साथ जीवन जीने वाले इस राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं। संघ की हाफपैंट इस स्वप्न को साकार करने का अपराजित विश्वसनीय अमर साथी है। यदि सफेदपोश नेताओं को इससे डर लगता हो,तो इसमें हम क्या कर सकते हैं?
टिप्पणियाँ