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पिछले दो सौ वर्ष के दौरान दुनिया में 'तिरस्कार साहित्य'नामक साहित्य की एक विधा विकसित हुई है। यदि कोई पूछे कि यह 'तिरस्कार साहित्य' है कहां, तो ये आंखों से कहीं नहीं दिखेगा, पर विश्व के साहित्य जगत पर उसका वर्चस्व है और उसका असर किसी युद्घ से भी अधिक घातक है। यह तिरस्कार साहित्य यानी वह साहित्य जिसमें यूरोपीय लेखकों, हॉलीवुड की फिल्मों के पटकथा लेखकों, कवियों, नाटककारों द्वारा अपनी रचनाओं में अफ्रीकी, रेड इंडियन्स और फिलिपीनी, विएतनामी लोगों को नरमांसभक्षी के तौर पर पेश किया गया। जबकि दूसरी ओर यूरोपीय लोगों की छवि नैतिकता के प्रतिमान, परिपक्व विज्ञान के ज्ञाता की बनाई गई। अगर एक दो रचनाओं में ऐसा होता तो बात अलग थी। लेकिन ये धूर्तता उन्होंने लगभग हर विधा के अस्सी प्रतिशत साहित्य में रोपी है। उसका असर अमरीका में अधिक है। मूलत: इटली के निवासी क्रिस्टोफर कोलंबस ने सन् 1492 में अमरीका में कदम रखा था। स्वाभाविक रूप से वहां के लोगों को हराकर उसे पश्चिम की ओर आगे बढ़ना पड़ा। उन लोगों को जिस तरह पराजित किया गया, उसके अनुसार सभ्य लोगों और नरभक्षी लोगों की सीमाएं बदलती रहीं। अमरीका में कोलंबस के बाद अनेक बस्तियां बसीं। उन सबको वहां रहने के लिए दमदारी दिखाने की आवश्यकता थी। धीरे धीरे पूरी दुनिया में इस साहित्य की छाप गहराती गई। साहित्य में यह छाप छोड़ने का कारण बस इतना ही था। उन्हें जाहिर करना था कि विश्व के लगभग 75प्रतिशत हिस्से को गुलाम बनाने वाले यूरोपीय लोग ही विश्व के इतिहास, संस्कृति, नीति, विद्वता एवं पंथ का आरंभ करने वाले हैं। उन्हें विश्व के इतिहास में यह मान्यता स्थापित करनी थी कि उन्हें विश्व पर राज करने का हक है, क्योंकि उन्होंने विश्व को नीति, पंथ, इतिहास तथा संस्कृति दी है।
विश्व का इतिहास यूरोप से शुरू होता है, यह दिखाने के लिए उन्होंने विश्व पर सेमेटिक व हेमेटिक का शगूफा थोपा। उसकी नींव में है बाइबिल में नोहा की एक पौराणिक कहानी, जिसका हमने इसी स्तंभ में कई अवसरों पर उल्लेख किया है। लेकिन बिना किसी ऐतिहासिक आधार की इस कहानी पर विश्वविद्यालयों में संबंधित देशों के इतिहास यह मानकर रचे गए कि वही सच्चा इतिहास है। उसी के आधार पर भारत में भी आर्य-अनार्य का झूठा इतिहास गढ़ा गया। यद्यपि विश्व के अनेक देशों ने उस इतिहास को नकार दिया है, लेकिन अनेक देशों में शिक्षा, राजनीति उसी बिना आधार वाले इतिहास पर निर्भर है। यह सब किसलिए? बस, इसीलिए ताकि दुनिया पर लंबे समय तक यूरोपीय साम्राज्य कायम रहे। सत्य असत्य के परिमाणों की अधिक चिंता किए बिना इतिहास के पीछे पीछे तिरस्कार साहित्य भी विश्व पर थोपा गया। अर्थात् यह सब कोई कानून बनाकर अथवा कोई पत्रकार परिषद करके नहीं किया जाता। उसके लिए उन स्थानों की सरकारों, प्रशासन, शिक्षा व्यवस्था, पुरातन वस्तु अध्ययन केंद्र, पंथ-केंद्रों और साथ ही, मनोरंजन केंद्रों पर भी अपना आधिपत्य बनाना पड़ता है। यूरोपीय लोगों ने इसकी शुरुआत वषोंर् पहले की थी, लेकिन विश्वविद्यालयों, पंथ-केन्द्रों तथा रंगमंच आंदोलनों द्वारा इसे 18वीं सदी के अंत में मान्यता मिली।
आज उन सैकड़ांे विश्वविद्यालयों,पंथ-केन्द्रों और साहित्य आंदोलनों पर नजर डाली जाए तो उसमें दिखाया जाता है कि यूरोपीय लोग हैं सद्गुणों के प्रतिमान, जबकि अन्य चार महाद्वीपों के निवासी हैं जानवरों की तरह जीने वाले लोग। लेकिन यूरोपीय लोगों द्वारा किए गए नरसंहार और देश-विदेश में अपनी लूट पर उन्होंने कुछ नहीं लिखा। आज भी इस विषय का यदि कोई अध्ययन करे तो उसे दरकिनार किया जाता है। फिल्मी दुनिया में जो रुचि रखते हंै, उन्हें पता होगा कि किसी फिल्म में यदि भारतीय दरिद्रता, सामाजिक दुरावस्था दिखाई जाती है तो उसकी यूरोप की कई गैर सरकारी संस्थाएं खूब मदद करती हंै। लेकिन भारतीय वेद साहित्य का यूरोपीय भाषाओं पर प्रभाव दिखाने जैसा विषय हो तो उसे कोई प्रतिसाद नहीं मिलता।
आज भी अमरीका के पुराने जमाने से रहते आए मूल निवासियों को 'डेंजरसली सेवेज' यानी खतरनाक हिंसक माना जाता है। लेकिन अमरीका तो महज एक उदाहरण है। यूरोपीय देशों का जो परिचय सारे विश्व को मिला वह केवल लूटने वाले देश के रूप में मिला। लेकिन यह जानने के बाद कि वहां सतत लूटा जा सकता है, वहां का राज भी हथियाया जा सकता है, वहां का इतिहास भी बदला जा सकता है और उसी तरह वहां की कहानियों, उपन्यासों, फिल्मों, इन सबके आधार पर वहां आधिपत्य की नई दीवारें खड़ी की जा सकती हैं, तो उन्होंने उस रास्ते पर बढ़ना शुरू किया। विश्व में उस समय 55 देशों में अंग्रेजों का साम्राज्य होने के कारण अंग्रेजी साहित्य में बडे़ पैमाने पर उसका उपयोग किया गया। पंथ के उपदेशकों ने अपनी बाइबिल कथाओं में इसी तिरस्कार साहित्य का प्रसार किया। इस संदर्भ में भारत की जाति व्यवस्था पर हमले होना स्वाभाविक था। लेकिन खुलेआम भारतीय देवी-देवताओं को मृतप्राय, मानवाधिकार का हनन करने वाले कहा गया। भारतीय लोग अनेक देवताओं की पूजा करते हैं, यह आरोप लगाया गया। इसी की आड़ में मिशनरियों ने लाखों हिन्दुओं के मतांतरण किए। वास्तव में मिशनरियों के प्रचार साहित्य की नींव में ही 'दूसरे पंथ का तिरस्कार' छुपा है, ऐसा प्रतीत होने लगा। मिशनरियों ने इस तरह के तिरस्कार साहित्य की नींव रखी और यूरोप की अनेक सरकारों ने उसे सर आंखों पर विठाया। भारत में उसका प्रचार दो स्तरों पर होता दिखाई देता है। एक तो वंचितों के लिए जो संस्थाएं स्थापित की गईं, उनमें इस तरह के तिरस्कार साहित्य को भारतीय पृष्ठभूमि में रचा गया और अप्रत्यक्ष रूप से भारत विरोधी प्रचार शुरू हुआ। दूसरी तरफ भारत में लाखों चर्चों के साप्ताहिक कार्यक्रमों में बाइबिल की पृष्ठभूमी में उस साहित्य का प्रयोग शुरू हुआ। इस तिरस्कार साहित्य से नए पंथ के आगमन की तैयारी होने लगी। यह विषय भारतीय लोगों के सामने कैसे रखा जाए, इस बारे में लाखों मिशनरियों को प्रशिक्षित किया गया। आज भी भारत में लाखों स्थानों में गरीब बस्तियों में उसका प्रचार किया जा रहा है। अमरीका में दक्षिण एशिया पर अध्ययन करने वाले जो विश्वविद्यालय हैं उन्होंने उसका पाठ्यक्रम बनाया है। भारत के अल्पसंख्यकों, वंचितों एवं महिलाओं को आकृष्ट करने हेतु सैकड़ों पुस्तकें छापी गई हैं। इस संदर्भ में इस पर व्यापक अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है कि भारत के अलग अलग राज्यों में वहां के स्थानीय साहित्य पर इस तिरस्कार साहित्य का क्या प्रभाव हुआ है।
एक बात तो तय है कि आम लोगों के मन में यह बात पैठ चुकी है कि यूरोपीय वर्चस्व पैदा करने में इस साहित्य ने खास भूमिका अदा की है। भारत का विभाजन करने का जो प्रयास मिशनरियों का चल रहा है उसमें इस साहित्य की प्रमुख भूमिका है। मुख्य रूप से तमिल साहित्य में उत्तर भारत तथा श्रीलंका के विरोध में जो माहौल बना है वह इसी साहित्य के जरिए बनाया गया है।
भारत एक बहुत बड़ा देश है इसलिए यहां यूरोपीय लोगों के आक्रमण का विचार श्रीलंका से लेकर श्रीनगर तक और कराची से लेकर कामाक्षी तक, हर एक भाषायी समूह और भौगोलिक संदर्भ में करना पड़ा होगा। लेकिन यूरोपीय लोगों का लक्ष्य केवल भारत ही नहीं था। अफ्रीका, अमरीका और एशिया, इन तीनों महाद्वीपों में यही कुछ चल रहा था। अफ्रीका के लोगों को यदि जेब्रा-घोड़ों का कच्चा मांस खाते हुए दिखाया जाता था तो वहीं भारतीय लोगों को सांप का कच्चा मांस खाते हुए दिखाया जाता था। लेकिन पिछले 40 वर्ष में विएतनाम एवं हाल में इराक में भी इसी तरह का तिरस्कार साहित्य आगे आया है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि इस तरह का गढ़ा गया साहित्य यूरोप में ही आलोचना का केंद्र बनता जा रहा है, क्योंकि सत्य की सीमा काफी हद तक लांघी जाती रही है। लेकिन जब इस तरह का पर्दाफाश होता है तब संपूर्ण साहित्य को दोषी करार देने की बजाए केवल उस लेखक पर 'संकुचित दिमाग वाला', 'साहित्य का उद्दिष्ट न समझने वाला' आदि लेबल चिपका कर, इस तरह की प्रवृत्ति के कारण विश्व में दो महायुद्घ हुए जैसी बातों पर जोर दिया जाने लगता है। लेकिन जिन देशों में यह साहित्य वितरित किया जाता है वहां से उसे वापस नहीं लिया जाता। इसका और एक महत्वपूर्ण उदाहरण है भारत। यहां बडे़ पैमाने पर मतांतरण करने वाले जेवियर और डिनोबिली के मतांतरण के तरीकों पर वेटिकन में आलोचना की गई, लेकिन उन्होंने मतांतरण बंद नहीं किए। अधिकांश समय यह देखा गया है कि उस साहित्य में दिए जाने वाले संदर्भ अर्धसत्य होते हैं और बढ़ा-चढ़ाकर छापे गए होते हैं।
भारत पर अंग्रेजों ने लगभग 150 वर्ष राज किया। उससे पहले भी वषोंर् तक धीरे धीरे उनका असर बढ़ रहा था। लेकिन विश्व को उनके नियंत्रण में मानने वाले साहित्य पर यहां बाद में भी प्रतिवाद नहीं हुआ। स्वतंत्रता के बाद 60-65 वर्ष के कालखण्ड में भारत में ज्यादातर अंग्रेजों का अप्रत्यक्ष वर्चस्व मानने वालों ने ही राज किया। तब भी उसका प्रतिवाद नहीं हुआ, लेकिन 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक द्वारा उजागर किए गए इस विषय पर अब रोशनी पड़नी और इसका प्रतिवाद होना आवश्यक है। अलग अलग आक्रमणों के तरीकों में उसका समावेश होता है, उसे भूलाया नहीं जा सकता। आर्थिक आक्रमण, प्रत्यक्ष युद्घ, झूठे इतिहास के आधार पर किया गया आक्रमण या शिक्षा के क्षेत्र में जिस तरह आक्रमण है, उसी तरह दुष्प्रचार पद्घति द्वारा भी यह आक्रमण किया जाता है।
सदियों तक विश्व के अनेक देशों को लूट कर मदमस्त होने वाले यूरोपीय लोगों को लगने लगा है कि 'विश्व को न्याय देने की जिम्मेदारी' उन पर है। आज उस जिम्मेदारी के बारे में भी चर्चा करने का समय आया है। इसमें एक बात ध्यान में रखने की है कि भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन संस्थाएं आज भी इस विषय को हाथ लगाने के लिए तैयार नहीं हैं। आज भी उनकी आंखों पर पश्चिमी चश्मा चढ़ा रहता है, लेकिन इस आक्रामक 'तिरस्कार साहित्य' का प्रतिकार किए बिना इस देश को प्राप्त स्वतंत्रता परिपूर्ण नहीं मानी जा सकती। - मोरेश्वर जोशी
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