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चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत की राजकीय यात्रा से वापस गये अभी एक सप्ताह भी नहीं बीता है कि पूर्वी लद्दाख चुमार नामक स्थान पर चीनी फौजें पहले से अधिक संख्या में पहुंच गई हैं और उन्होंने कई नये तम्बू गाड़ दिये हैं। चीन की फौज उन्हें खाद्य सामग्री पहुंचा रही है। भारत से वापस लौटकर शी जिनपिंग ने चीन की विशाल सेना को क्षेत्रीय युद्धों में विजय पाने और चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति पूरी तरह वफादार रहने का आह्वान दिया है। चीन की इन आक्रामक हरकतों का परिणाम हुआ है कि भारत के नये सेनापति दलवीर सिंह सुहाग को अपनी भूटान यात्रा स्थगित करनी पड़ी है। यह उनकी पहली विदेश यात्रा होती। चुमार के पास नियंत्रण रेखा पर लगभग 1000 चीनी और 1500 भारतीय सैनिक आमने सामने खड़े हैं। तनाव की स्थिति पैदा हुई है।
भारत ने अतिथि देवोभव की अपनी प्राचीन परंपरा और अन्तरराष्ट्रीय संबंधों में शालीन शिष्टाचार की आधुनिक परंपरा का अनुसरण करते हुए चीनी राष्ट्रपति के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा दिये पर चीन के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक कूटनीतिक मुस्कराहट से आगे भारत के किसी हित को आगे बढ़ाने की बात नहीं की। न उन्होंने भारत में सौ बिलियन डालर के चीनी निवेश का वादा किया, न सुरक्षा परिषद् में भारत को सदस्यता पाने में मदद का और न जम्मू कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के आक्रामक इरादों पर अंकुश लगाने का और न पिछले साठ साल से भारत की छाती में नासूर बनकर बढ़ रहे सीमा विवाद को हल करने की दिशा में उन्होंने कोई पहल की। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्पष्ट शब्दों में यह कहने पर कि सीमा विवाद हल हुए बिना हम दोनों देशों के मैत्री संबंध आगे नहीं बढ़ सकते, चीनी राष्ट्रपति ने मात्र इतना कहा कि यह विवाद लम्बे इतिहास की देन है और उसे धीरे-धीरे ही सुलझाया जा सकेगा। उस दिशा में किसी ठोस पहल का उन्होंने कोई संकेत नहीं दिया। चीनी राष्ट्रपति के इस टेढ़े रुख पर भारतीय मीडिया और राजनीतिक क्षेत्रों में आलोचनात्मक स्वर उठना स्वाभाविक है, पर जो लोग चीन की कूटनीति के सूक्ष्म अध्येता हैं उन्हें इस पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। चीन अपने हितों के प्रति सदैव बहुत जागरूक रहा है। यहां तक कि उसने अपने कम्युनिस्ट साथी सोवियत संघ से भी सीमा विवाद पर कोई समझौता नहीं किया जिसके कारण स्टालिन और माओत्से तुंग के संबंधों में खटास आ गयी और 1962 तक रूस और चीन के रास्ते अंदर ही अंदर अलग हो गये।
भारत आज अपने को जिस विषम स्थिति में पा रहा है उसके लिए चीन से अधिक भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जिम्मेदार हैं। वे अपने को विश्व इतिहास और अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का गहरा जानकार होने का भ्रम पाल बैठै थे इसलिए उन्होंने चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व में उभरने के परिणामों को समझने में भारी भूल की। अक्तूबर 1949 में जब माओ के नेतृत्व में चीन पर कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ तब नव स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होने के कारण नेहरू की लोकप्रियता चरम पर थी और विश्व चीन में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना से सिहर उठा था। कोई भी बड़ा देश चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने को तैयार नहीं था। चीन अपने को अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में अछूत की स्थिति में पा रहा था। तब नेहरू ने मार्क्सवाद के नशे में सबसे पहले चीन को कूटनीतिक मान्यता प्रदान कर दी। वह अवसर था जब नेहरू को इतिहास की सही समझ लेकर चीन की विस्तारवादी प्रवृत्ति पर संयम का अंकुश लगाना चाहिए था। यदि नेहरू ने आचार्य कौटिल्य के मंत्र को आत्मसात किया होता तो वे समझ पाते कि दो विशाल शक्तिशाली देशों के बीच मैत्री भाव बनाये रखने के लिए दोनों के बीच एक मध्यवर्ती(बफर) स्वशासी राज्य का बने रहना बहुत आवश्यक है। इस सत्य को पहचान कर ही ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत की स्वाधीनता को हड़पने के चीन के प्रयासों पर अंकुश लगा दिया था और एक मध्यवर्ती स्वशासी क्षेत्र के रूप में तिब्बत के अस्तित्व को बनाये रखा था, इसीलिए भारत की पूरी उत्तरी सीमा पर चीन से सीधा सम्पर्क नहीं आने पाया।
पर हमारे चतुर सुजान प्रधानमंत्री ने इतिहास से कोई सबक न सीखने में ही अपनी बुद्धिमत्ता समझी और 1950 में चीन के साथ संधि करके तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता को मान्य कर लिया। चीन स्वयं उस समय तक तिब्बत पर केवल वर्चस्व की स्थिति मानता था पर नेहरू ने उसे शब्द की जगह प्रभुत्व शब्द को संधिपत्र में लिख दिया। नेहरू की इस भूल का लाभ उठाकर चीन ने तिब्बत को अपना अधिकार क्षेत्र घोषित कर दिया। अक्तूबर में ही उसने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। बेचारे तिब्बत ने 30 अक्तूबर को भारत से सहायता की याचना की पर नेहरू चुप रहे। सरदार पटेल ने अपने अमदाबाद भाषण में इसे आक्रमण की संज्ञा दी और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन को कहा कि नेहरू से विदेश नीति के प्रश्न पर संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी है। 9 नवम्बर को स्वामी दयानंद पर एक पुस्तक के लोकार्पण कार्यक्रम में सरदार ने पुन: तिब्बत पर चीनी आक्रमण का उल्लेख करते हुए कहा, 'एक शांतिप्रिय देश पर हमला किया गया है। वह शायद ही टिक पाये। हमने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा होगा, पर चीन ने हमारे परामर्श को नहीं माना…तिब्बत एक धर्म प्रेमी देश है। तिब्बत की ओर से कोई आक्रामक पहल नहीं हुई। ताकत के नशे में धुत देश ही यह हमला कर सकता है (राजमोहन गांधी, पटेल पृ. 530) अपनी मृत्यु के लगभग एक मास पूर्व सरदार ने नेहरू को चीन नीति के खतरों पर प्रकाश डालने वाला एक लम्बा पत्र भेजा। यह पत्र एक अमूल्य ऐतिहासिक दस्तावेज है जो विदेश नीति के क्षेत्र में नेहरू के बौद्धिक दिवालियेपन और सरदार की कूटनीतिक दूरदर्शिता का प्रमाण देता है।'
पर नेहरू जी ने चीन के विस्तारवादी इरादों पर रोक लगाने के लिए कोई कूटनीतिक या सैनिक कदम नहीं उठाया। विश्व जनमत को भी इस बारे में जाग्रत नहीं किया। उल्टे 1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई का भारत में शानदार स्वागत किया। उनके साथ पंचशील नामक संधि पर हस्ताक्षर किये और हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा भारत में गुंजाया। किंतु इस नारे की आड़ में चीन भारत की उत्तरी सीमाओं का अतिक्रमण करता रहा। उसने लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र में हजारों वर्ग मील भारतीय भूमि पर अधिकार कर लिया। वहां एक पक्की सड़क भी बना ली। किंतु भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ये सब जानकारियां पाकर भी अनजान बने रहे, उन्होंने चुप्पी साध ली।
1959 में पहली बार यह जानकारी सामने आयी। संसद में भारी हंगामा हुआ। किंतु नेहरू ने तब भी अपनी भूल नहीं मानी उल्टे हजारों वर्ग मील भारतीय क्षेत्र पर चीन के सैनिक कब्जे के विरुद्ध भारत सरकार की निष्क्रियता को उचित ठहराने के लिए नेहरू ने लोकसभा में तर्क दिया कि उस क्षेत्र में घास का एक पत्ता भी पैदा नहीं होता और वहां एक भी मनुष्य नहीं रहता। यानी वह भारतीय क्षेत्र पूरी तरह बंजर और निर्जन है। अत: यदि चीन ने उस पर कब्जा कर लिया तो क्या हानि है, किसी प्रधानमंत्री से ऐसे कथन की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इससे संसद में खलबली मच गयी। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता महावीर त्यागी उठकर खड़े हो गये और उन्होंने अपनी चिकनी सपाट खोपड़ी को दिखाकर नेहरू जी से पूछा कि मेरे सिर पर एक भी बाल नहीं है तो क्या इसे भी किसी को देना चाहेंगे? उस समय भले ही सदन खिलखिलाकर हंसा हो पर महावीर त्यागी के कथन में व्याप्त वेदना पूरे देश के मन में समा गयी।
जिस समय भारतीय संसद भारतीय क्षेत्र पर चीन के अतिक्रमण पर चर्चा में व्यस्त थी उसी समय चीन पूरे सैन्य बल के साथ निहत्थे शांति प्रिय तिब्बत पर टूट पड़ा। धर्मगुरु दलाई लामा को हजारों-हजारों तिब्बती निर्वासितों के साथ भारत में शरण पाने के लिए भागना पड़ा। उन दिनों मैं लखनऊ में था। पाञ्चजन्य का प्रत्येक अंक तिब्बत पर कम्युनिस्ट चीन के अत्याचारों से भरा होता था। हम लोगों ने तिब्बत पर पूरा एक विशेषांक ही आयोजित किया था। दिल्ली की ओर ट्रेन से जाते हुए दलाई लामा का दर्शन करने के लिए हजारों की भीड़ लखनऊ रेलवे स्टेशन पर इकट्ठा हुई थी। कम्युनिस्टों के अलावा सभी राजनीतिक नेता जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय, महावीर त्यागी आदि कई कांग्रेसी नेता तिब्बत पर चीन के आक्रमण की तुलना द्रौपदी के चीर हरण से कर रहे थे। पर वे सब मिलकर भी चीनी आक्रमण का प्रतिरोध नहीं कर सकते थे। वह प्रतिरोध तो केवल सरकार के स्तर पर ही हो सकता था पर सरकार के सूत्र तो पूरी तरह नेहरू के पास केन्द्रित थे।
उत्तरी सीमा के बारे में नेहरू जी की नीति कितनी अदूरदर्शी थी और राष्ट्रहित विरोधी थी इसका अनुभव मुझे 1965 में अ.भा.समाचार पत्र सम्पादक सम्मेलन के गौहाटी अधिवेशन में जाकर हुआ। उस अधिवेशन में हम सब लोगों को अरुणाचल (तब नेफा) के बोमडीला नामक स्थान पर ले जाया गया। 1962 में चीनी सेना ने इस पर कब्जा कर लिया था। वहां हमें यह स्थल दिखाया गया। एक रात बंकरों में सुलाया गया, पहली बार हमें कड़ाके की ठंड में बंकर के भीतर सोने का अनुभव मिला। अधिवेशन के बाद हम सात-आठ लोग सिक्किम की राजधानी गंगटोक की यात्रा पर निकल गये। उस यात्रा में हमारे दल में लखनऊ के दैनिक स्वतंत्र भारत के सम्पादक योगेन्द्रपति त्रिपाठी और पुणे के मराठी दैनिक तरुण भारत के सम्पादक च.प.मिशीकर भी थे। सिक्किम तब भारत का भाग नहीं था। वहां भारत के पोलिटिकल एजेंट के नाते एक आईएफएस अधिकारी अवतार सिंह से भेंट हुई। वे मानों भारत के पत्रकारों के सामने अपने मन की पीड़ा उड़ेलने का अवसर ढूंढ रहे थे। उन्होंने अपने सभी स्थानीय कर्मचारियों को हटाकर एक लॉन में बैठकर हम लोगों को बताया कि भूटान और सिक्किम में पोलिटिकल एजेंट के नाते नियुक्ति के पहले मैं नेहरू का अंधभक्त था पर यहां आने के बाद जब मुझे भूटान और सिक्किम के साथ नेहरू जी के विदेश मंत्रालय का पत्राचार पढ़ने को मिला तब मैंने पाया कि यदि नेहरू जी भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री न होते तो ये दोनों क्षेत्र स्वेच्छा से भारत का अंग बन चुके होते। अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लोभ में नेहरू जी ने ही भारत में विलय की उनकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया।
तिब्बत की स्वाधीनता के अपहरण से प्रोत्साहित होकर चीन ने पूर्वांचल के सीमांत प्रदेश में पैर फैलाना शुरू कर दिया, सीमा को विवादित कहकर वहां चीनी चौकियां स्थापित कर डालीं जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया भारत में होने लगी। तब नेहरू जी ने अपने प्रिय मित्र और रक्षामंत्री कृष्णा मेनन को और अपनी गिरती लोकप्रियता को बचाने के लिए बिना पूर्व तैयारी के शस्त्र वस्त्र आदि से रहित भारतीय सैनिकों को पूर्णतया सज्जित चीनी सेनाओं को भारतीय क्षेत्र से बाहर खदेड़ने का आदेश दे दिया जिसका परिणाम 1962 में स्वाधीन भारत की पहली सैनिक पराजय में हुआ। इस अपमानजनक प्रसंग पर अनेक सैनिक विशेषज्ञों एवं अधिकारियों ने अपने अनुभव लिखे हैं। एक विदेशी लेखक नेविल मैक्सवेल ने तो भारत का चीन युद्ध जैसा शीर्षक ही अपनी पुस्तक में दे डाला। 1962 के युद्ध के बारे में हैन्डरसन रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का साहस कोई भी भारत सरकार अब तक नहीं बटोर पायी है।
1949 में भारत चीन के साथ प्राचीन धार्मिक संबंधों को पुनरुज्जीवित कर सकता था। चीन के विरुद्ध विश्व जनमत को अपने पीछे खड़ा कर सकता था, तिब्बत, जो अपने को भारत का पुत्र मानता है, के प्रति पूरे विश्व की सहानुभूति थी, भारत उसके पहरुवा की स्थिति में था। पर नेहरू जी अपने ही विचारों की दुनियाा में खोये हुए थे। वे न वर्तमान का यथार्थवादी विश्लेषण कर सकते थे न भविष्य में झांक सकते थे। उन्होंने मार्क्सवाद का चश्मा पहन लिया था और कम्युनिस्ट उन्हें कंधों पर बैठाकर नचा रहे थे। उनकी अदूरदर्शी चीन नीति का महंगा मूल्य भारत आज तक चुका रहा है। कोई भी सरकार यदि भारतीय भूमि से चीनी अतिक्रमण को हटाने के लिए कोई भी कूटनीतिक या सैनिक कदम उठाती है तो चीन का नाराज होना स्वाभाविक है जैसा कि इस समय नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा और राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की वियतनाम यात्रा से चीन चौकन्ना हुआ लगता है। (25 सितम्बर, 2014) – देवेन्द्र स्वरूप
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