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रामलीला की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है तथा विश्व का एक बड़ा भूभाग उसका रंगमंच बन गया है। रामलीला के अधिकारी विद्वान श्री भानुशंकर मेहता जी के शब्दों में – 'रामलीला केवल खेली नहीं जाती, बल्कि व्यापक अर्थ में पढ़ी, सुनी, देखी जाती है। रामलीला एक जीवन्त अनुभव है। रामलीला एक सांस्कृतिक पर्व है, जो 'सत्यमेव जयते नानृतम्' का सन्देश लेकर आता है। वह उद्घोष करता है – 'अरे! समाज के लोगो! याद रखो, झूठ, अन्याय और अत्याचार पर सदा सत्य और न्याय की जीत होती है।' रामलीला समाज के उन्नयन का साधन है। (श्री रामलीला एक अध्ययन, पृष्ठ 38)
रूसी प्राच्यविद्, मनीषी, विद्वान अलेक्जेण्डर सेंकेविच के शब्दों में – रामायण विश्व साहित्य की उन कृतियों में से है, जो विभिन्न जाति के लोगों को समीप लाती है, संहार और अमानुषिकता का विरोध करती है और सामाजिक विषमता को अस्वीकार करती है। रामायण मानवीय मूल्यों से भरपूर महाकाव्य है, जो मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। रामायण के सत्य का पथ भारत के सत्य का पथ है। रामायण जैसी कृतियां सक्रिय मानवतावाद का आह्वान करती हैं, यही कारण है कि उसका महत्व राष्ट्रीय संस्कृति की सीमा में बंधा न रहकर विश्व-विराटता का रूप ग्रहण करता है।
रामकथा के मंचन की परम्परा उतनी ही प्राचीन है, जितने स्वयं श्री राम हैं। साहित्यिक दृष्टि से श्री राम का काल वाल्मीकि के समकालीन है। राम की यशोगाथा उन्होंने विभिन्न माध्यमों से अपने जीवनकाल में सुनी और उसे अपने 'रामायण' काव्य का आधार बनाया। राम द्वारा निर्वासित किये जाने के पश्चात् सीता इन्हीं वाल्मीकि के आश्रम में रहीं। वहीं लव-कुश का जन्म हुआ। राम, लक्ष्मण द्वारा राक्षसों का आतंक समाप्त करके तथा उनका संहार करने से ऋषियों, मुनियों और जनसामान्य ने जिस सुख-शान्ति का अनुभव किया, उसके कारण वह अपनी किशोरवय से ही चर्चित होने लगे थे। उनके उत्तरोत्तर कृतित्व यथा -अहिल्या-उद्धार, शिव-धनुष भंजन, रावण-मेघनाद वध तथा लंका-विजय से बंदी देवताओं ने भी राहत की सांस ली थी, इससे उनकी लोकप्रियता जन-जन में चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी। वाल्मीकि ने 'रामायण' में उक्त प्रसंगों को समकालीन इतिहास की तरह लिखा। गाथा-गायन की वैदिक परम्परा के अनुरूप अपने आश्रम में पोषित सन्तान तुल्य लव-कुश को, रामकथा गायन का संगीतमय प्रशिक्षण देकर उनके ही नाम पर 'कुशी-लव' परम्परा का प्रवर्तन किया। आगे चलकर भरतों, पाठकों, सूतों, मागधों, चारणों, हरबोलों तथा पटियों के माध्यम से चरित-गायन की परम्परा के रूप में यह विधा साहित्य में स्थापित हो गई। निष्कर्ष यह है कि उसी समय राम कँ कथा का मंचन 'गाथा-परम्परा' के रूप में दरबारों से राजपथ और गांव, गलियों तक व्याप्त हो चुका था।
प्रश्न उठता है कि इतिहास की दृष्टि से यह परम्परा कितनी प्राचीन है। वर्तमान इतिहासकार इतिहास की गणना ईस्वी सन् को मानक मानकर ईसा पूर्व अथवा ईसा उपरान्त (ईस्वी) लिखकर करते हैं। भारतीय इतिहासकारों के एक वर्ग पर पाश्चात्य इतिहासकारों का प्रभाव है, जो उक्त परम्परा को पोषित करते रहे हैं। इन्होंने राम का काल ईसा से लगभग 700 वर्ष पूर्व का बताया किन्तु आधुनिक शोधों तथा सैटेलाइट से लिए गए तत्कालीन चित्रों से यह स्थापित हो चुका है कि राम का त्रेता युग लगभग 7000-6000 वर्ष ईसा पूर्व का है। इसका अर्थ यह हुआ कि राम-कथा मंचन की वाचिक परम्परा भी लगभग 7000 वर्ष प्राचीन है। रामकथा चार रूपों में प्राप्त होती है – साहित्यिक (ग्रंथों के रूप में), वाचिक (गायन के रूप में), चित्रित (चित्र तथा शिल्प के रूप में) तथा मंचीय (अभिनय एवं मंच पर कलात्मक मंचन के रूप में)।
रामायण काल के पश्चात् वेदव्यास द्वारा लिखित महाभारत में भी रामलीला के मंचन का उल्लेख मिलता है। उनके द्वारा रचित ब्रह्माण्ड पुराण के अन्तर्गत 'अध्यात्म रामायण' सर्वविदित है ही। सातवीं-आठवीं शताब्दी के संस्कृत नाटककार भवभूति के 'उत्तर रामचरितम्', 'महावीर चरितम्' तथा अन्य नाटक भी राम-कथा पर आधारित हैं। प्रथम दो नाटकों का प्रथम मंचन कालपी में कालप्रियनाथ यात्रा के समय सूर्य-मंदिर के प्रांगण में हुआ था। दोनों नाटकांे में सूत्रधार कहता है-
अघ खलु भगवत: कालप्रियनाथ यात्रामार्य मिश्रान विज्ञापय'मि'। इस प्रकार रामकथा का मंचन, मेलों के समय आयोजित होने का भी उल्लेख मिलता है। उल्लेखनीय बात यह है कि तब बुन्देलखण्ड की सामान्य जनता, जो मेला देखने जाती थी, उसके ज्ञानार्थ तथा मनोरंजनार्थ यह नाटक आयोजित होते थे। यानी जनता भी संस्कृत भाषा समझती थी तथा नाटकों की भाषा संस्कृत के रूप में जन-ग्राह्य थी। मेलों में मंचन से राम-कथा की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि इस कथा को मेले में आने वाले व्यापारियों, राज-परिवार के लोगों तथा यात्रियों के माध्यम से देश-विदेश में पहुंचते अधिक समय नहीं लगा। 'प्राच्य निबंधावली' (खण्ड 4, पृष्ठ 77-78) में पुरातत्ववेत्ता डा़ वी़वी़ मिराशी ने कालप्रियनाथ मंदिर कालपी में होना माना है।
गोस्वामी तुलसीदास से पूर्व ही दक्षिण में कंबन ने कम्ब रामायण की रचना नौंवीं शताब्दी में की। उसके नायक रसिक स्वभाव के हैं। आन्ध्र प्रदेश में तेलगू में रंगनाथ ने 'रंगनाथ रामायण' (तेरहवीं शती), केरल में मलयालम् में 'इरामचरितम्' (14वीं शती में) तथा कर्नाटक (कन्नड़) में कुमार वाल्मीकि द्वारा 'तोखेरामायण' (16वीं शती) में लिखी गयी। उसके पूर्व पश्चिम में गुजरात में आशा संत ने (14वीं शती में) गुजराती में 'रामलीलापदी' की रचना की। राजस्थानी में मेहोजी ने 'रामायण' (16वीं शती में) तथा मराठी में संत एकनाथ ने 'भावार्थ रामायण' की रचना (16वीं शती में) की। पूर्वांचलीय क्षेत्रों (महाबंगाल) में भी रामकथा 15-16वीं में व्याप्त हो चुकी थी। बंगला में कृतिवास कृत 'बंगला रामायण' तथा असम में माधवकंदली द्वारा रचित 'असमिया रामायण' (15वीं शती) तथा ओडीसा में सारला दास तथा बलराम दास कृत 'उडि़या रामायण' की भी रचना इसी कालखण्ड में हुई। गोस्वामी तुलसीदास ने, जनसामान्य को सुलभ कराने की दृष्टि से इस रामकथा को हिन्दी में 1631 ई़ में लिखकर पूर्ण किया। विदेशों में रामकथा एशिया, विशेषकर दक्षिण-पूर्वी देशों, में तेजी से लोकप्रिय हुई। इन्डोनेशिया में रामकथा तुलसी के पूर्व 11वीं शती में ही पहुंच चुकी थी। वाल्मीकि पर आधारित 'जावारामायण' की रचना वहां योगीश्वर ने की। मलेशिया में रामकथा 'हिकायत सेरीराम' का वोदाकिचन आक्सफोर्ड संस्करण (17वीं शती – 1633 ई़) में मिलता है। कम्बोडिया में रामकथा 'रियमकेर' तथा म्यांमार में रामकथा 'रामवत्थु' की रचना भी 17वीं शती में हुई। थाई में रामकथा 'रामकिएन' (हिन्दी अर्थ -रामकीर्ति) (18वीं शती में), लाओस में रामकथा 'फ्रलक-फ्रलाम' की रचना 19वीं शती में हुई। रूस में भी रामायण 19वीं शती में पहुंची।
दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में रामलीला चार से छह दिनों तक चलती है। इनमें अधिकांश रामलीलाएं सीताहरण से प्रारम्भ होती हैं। प्रमुख लीलाएं हैं-सीताहरण, रावण-जटायु युद्घ, बालि- सुग्रीव युद्घ, लंकादहन, राम- रावण युद्घ तथा सीता का अग्नि प्रवेश। इनका मंचन थाईलैण्ड तथा इण्डोनेशिया में मुखौटा लगाकर किया जाता है। इण्डोनेशिया में इसे 'बियांग वांग' (मुखौटा-नृत्य-नाटिका) कहते हैं। इन सभी रामलीलाओं में रावण का चरित्र महत्वपूर्ण ढंग से उभारा गया है। यद्यपि वह आसुरी शक्ति का प्रतीक है किन्तु उसे रूपवान, बलशाली तथा विलास-प्रेमी प्रतिनायक के रूप में चित्रित किया गया है। इन सभी में राम-रावण का युद्घ होता है, रावण मारा जाता है। केवल वर्मा की रामलीला ऐसी है, जहां रावण राम से क्षमा मांगकर युद्घ से विमुख हो जाता है। अंत में जीत राम की ही होती है। यहां की रामलीला के छह काण्ड सात रातों में मंचित होते हैं। वहां रामलीला के प्रति इतना अधिक श्रद्घाभाव है कि मनौती के रूप में रामलीला खेली (या बदी) जाती है। वहां मुसलमान भी रामलीला बोलता है। उक्त रामकथाओं में अवान्तर भेद भी हैं। इनमें अनेक अंतर्कथाएं जुड़ी हैं।
वनवासी जातियों तथा लोकांचलों में भी राम-कथा मंचन एवं गायन की सशक्त परम्परा है। चित्रकूट क्षेत्र में श्रीराम को भील तथा गोंड़ों का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ था। भीली रामलीला 'रामेनभाया' तथा गोंडी रामलीला 'रामनापिये' की कथाओं पर आधारित है। इनमें राम को अपने-अपने सामाजिक परिवेश से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है। इससे स्थानीय तत्वों तथा रीति-रिवाजों का समावेश मिलता है। उदाहरण के लिए बुन्देलखण्ड की रामलीलाओं में 'पैर-पखराई' (मण्डप के नीचे वर-वधू के कन्यापक्ष द्वारा पैर-पखारना तथा पूजन) की परम्परा है, मारिशस तथा बंगाल में 'शुभ दृष्टि' (मण्डप के नीचे प्रथम बार वर-वधू का एक दूसरे को मुस्कराकर देखना) तथा बंगाल, उडि़या, असम तथा तमिल में शंख-वलय (वर द्वारा वधू को पवित्र शंख की चूड़ी पहनाने) तथा उडि़या और बुन्देली में मुंह पर हल्दी लेपन की परम्परा है। इसी प्रकार अन्य अनेक लोकरीतियों तथा लोकाचारों का समावेश स्थानीयता के आधार पर हो जाता है। वाल्मीकि ने रामलीला का मंचन 'गाथा-गायन' शैली में प्रारम्भ किया-कराया। कालान्तर में यह विभिन्न शैलियों में विकसित हुआ। बंगाल,ओडीसा, आंध्र,केरल तथा कर्नाटक में यह उस क्षेत्र की 'पुतुल'कला' (कठपुतली) लोकशैली में विकसित हुई तो बंगाल, उड़ीसा तथा बिहार की आयुध कला आधारित 'छाऊ-नृत्य' शैली में इसका विकास हुआ। इसमें मुखौटा लगाकर पात्र युद्घ करते हैं। केरल में 'कथकली' तथा कर्नाटक और आन्ध्र में यक्षगान की पारम्परिक मुखौटा शैली में मंचन होता है। इन रामलीलाओं में सत्य-असत्य तथा अच्छाई-बुराई के बीच का संघर्ष चार चरणों में सामने आता है-विवाद-संवाद, चुनौती, भिड़ना तथा सशस्त्र युद्घ।
रामलीला की देश में प्रचलित शैलियों में अयोध्या शैली, ब्रज शैली, काशी शैली, हाड़ौती शैली, असमी शैली, मिथिला (मधुबनी) शैली, कर्नाटक (उडुपि) शैली, पर्वतीय शैली प्रसिद्घ हैं। उदयशंकर जी ने बैले शैली का विकास किया जो असमय ही काल-कवलित हो गयी। बुन्देलखण्ड तथा मध्य भारत क्षेत्र में इसका विकास 'अखाड़ा','स्वांग' तथा 'माच' शैलियों के माध्यम से हुआ। उत्तर भारत में मंच सजाकर अभिनय द्वारा रामलीला मंचन का स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास के समय से हुआ। वास्तविकता यह है कि उस समय रामलीला का मंचन मैदानी, जुलूसी तथा मंचीय त्रिवेणी-शैली में था। लीलाएं मैदान में होतीं, फिर जुलूस बनाकर चलती थीं। अंत में मंचीय स्वरूप ग्रहण कर लेती थीं।
गोस्वामी तुलसीदास के समय राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियां अत्यन्त विषम थीं। भारत में विदेशी आक्रान्ताओं के आने के बाद शासकों ने संस्कृति, कला-साहित्य को नष्ट करने तथा 'स्व' की भावना का मूलोच्छेदन करने का प्रयास किया। आस्था पर चोट की गई। मंदिर, मूर्तियों का भंजन, मंदिरों में होने वाली सांस्कृतिक परम्पराओं का विखण्डन, प्रजा में जाति-भेद बढ़ाकर वगार्ें-उपवगार्ें में विभाजन मंदिरों में वंचितों का प्रवेश बंद कराने का योजनाबद्घ प्रयास कराया गया। इन सबके विरुद्घ सांस्कृतिक जागरण के अग्रदूत गोस्वामी तुलसीदास बने। उन्होंने जन-जन तक राम का रक्षक एवं प्रेरक स्वरूप पहुंचाने के लिए रामकथा को दो नए आयाम दिये। प्रथम, रामकथा संस्कृत के बजाए जन-भाषा में लेखन तथा द्वितीय, रामकथा का मंदिरों में विद्वानों द्वारा गायन अथवा प्रस्तुतिकरण कराने के बजाए मैदान में जन-समूह के बीच रामलीला का मंचन। मंदिर में वंचितों तथा उपेक्षित जातियों के प्रवेश-निषेध से वह उन्हें सुलभ नहीं था। मैदान या जुलूसबद्घ होने पर कोई उन्हें देखने से रोक कैसे सकता था? वह जानते थे कि 'वाचिक' परम्परा के बजाए 'दृश्य-श्रव्य परम्परा' अधिक प्रभावी है अत: उन्होंने रामकथा को अपने ही निर्देशन में लिखित, वाचिक से आगे बढ़कर योजनाबद्घ मंचीय स्वरूप दिया। मैदानी, जुलूसी तथा मंचीय त्रिकोणीय परम्परा विकसित की। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप राम का लोकनायकत्व, वंचितों-उपेक्षितों के सहयोग से राक्षसों का संहार, उनके माध्यम से रामराज्य की स्थापना की कथा अधिक प्रासंगिक थी। अत: उन्होंने अपनी साधना स्थली काशी में असीघाट क्षेत्र में 'असी की रामलीला' प्रारम्भ की। इनमें रामजन्म, बाललीला, धनुष यज्ञ तथा रामविवाह की लीलाएं नहीं होती हैं। राम राज्याभिषेक की तैयारियों से लेकर वन-गमन, राक्षस संहार तथा रामराज्य स्थापना (राम राज्याभिषेक) तक की लीलाएं ही होती हैं।
तुलसी के पूर्व काशी में 'चित्रकूट-रामलीला' होती थी, जो मेघा भगत द्वारा प्रारम्भ की गई थी, ऐसा बाबू श्यामसुन्दर दास मानते हैं। तुलसी द्वारा 'असी की रामलीला' प्रारम्भ करने के बाद काशी कुछ ही समय में रामलीला का प्रमुख केन्द्र बन गया। वहां की रामलीलाओं में प्रमुख हैं – चित्रकूट-रामलीला, असी की रामलीला, रामनगर की रामलीला, लाट भैरव की रामलीला, नाटी इमली की रामलीला तथा तेजगंज की नकटैया रामलीला। रामनगर की रामलीला प्रारम्भ में काशी नरेश द्वारा राज्यकोष से पोषित थी। रियासतों की समाप्ति के पश्चात् इसे प्रदेश शासन से अनुदान प्राप्त होता है। यह काशी में गंगा के उस पार रामनगर के 10-12 किलोमीटर परिधि में अलग-अलग स्थानों पर होती है। प्रत्येक लीला के अनुरूप स्थलों पर ही लीला आयोजित होती है तथा जनसमूह पात्रों के साथ चलता है। इसमें राजसी वैभव के साधनों यथा रथ, पताका, घोड़ा, हाथी का प्राधान्य रहता है। भक्त लोग इसे 31 दिन की पूरी अवधि में अनुष्ठान के रूप में देखते हैं। प्रत्येक लीला का प्रारम्भ नारद-वाणी (सांस्कृतिक संगीतमय संवाद-गायन) तथा आरती से होता है और समापन भी भव्य आरती से होता है। स्थानीय निर्मित् ा मुखौटों का प्रयोग भी होता है।अयोध्या में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा पुनरावृति स्थापित रामलीला का स्वरूप अब वैसा नहीं रहा। उसकी एक प्रमुख विशेषता थी कि धनुषयज्ञ की रामलीला में राजा जनक का धनुष-यज्ञ सम्बन्धी घोषणा पत्र बन्दीजनों द्वारा अंग्रेजी सहित अनेक भाषाओं में पढ़ा जाता था ताकि दूर-दूर देशान्तरों से आए राजागण उसे भलीभांति समझ सकें। अब अयोध्या में उसके अतिरिक्त अनेक रामलीला-मण्डलियों द्वारा रामलीलाएं की जा रही हैं। इनमें महन्त जयरामदास की रामलीला का स्तर अच्छा है। अयोध्या शोध संस्थान द्वारा देश-विदेश की प्रमुख रामलीलाओं का मंचन 'अनवरत-रामलीला' कार्यक्रम के अन्तर्गत 20 मई 2004 से अनवरत किया जा रहा है। इसमें रामलीला की विविध शैलियों का दर्शन हो जाता है। इससे रामलीला के प्रति जनता का आकर्षण बढ़ा है।
रामकथा के मंचन में बुन्देलखण्ड की चर्चा यहां प्रासंगिक है। राम की जन्मभूमि भले ही अयोध्या हो, उनकी मुख्य लीला भूमि विन्ध्य का यह क्षेत्र ही है, जहां उन्होंने वनवास के प्रारम्भिक लगभग साढ़े बारह वर्ष बिताए। रामकथा के गायकों में वेदव्यास और बाबा गोस्वामी तुलसी की जन्मभूमि यहीं थी। वाल्मीकि का आश्रम भी इस अंचल में था, जहां सीता निर्वासन-काल में रहीं तथा लव-कुश का जन्म हुआ। बुन्देलखण्ड के समस्त राम-कथा गायकों का वर्णन प्रस्तुत करना दुरूह कार्य है। बारहवीं शताब्दी में जैन कवि रद्धू ने सोनागिरि में रहकर प्राकृत भाषा में रामायण की रचना की। चौदहवीं शताब्दी में ग्वालियर के विष्णुदास ने वाल्मीकि रामायण को सरल ब्रजभाषा में प्रस्तुत किया।़.़.़.़. रसिककवि प्रेमसखी ने 'सीताराम नखशिख ग्रंथ' चित्रकूट में ही लिखा था।़.़.़.़. ओरछा वह पवित्र स्थल है, जहां राजा-राम स्वयं विराजमान हैं, ़.़.़.़. ओरछा के राजाओं की रामनाम अंकित कुछ मुद्राएं उपलब्ध हैं। ़.़.़.़. ओरछावासी कवि केशवदास ने सं़ 1658 (सन् 1601 ई़) में 'रामचंद्रिका' की रचना की जिसके संवाद आज भी रामलीलाओं में व्यवहृत होते हैं।़.़.़.़. ओरछा राज्य की भांति बुन्देलखण्ड की अन्य रियासतों ने भी अपने-अपने नगर में राममंदिरों का निर्माण कराया और उनके आश्रित कवियों ने रामकथा विषयक साहित्य का सृजन किया ़.़.़.़. बुन्देलखण्ड में न केवल रामकथा से सम्बन्धित ग्रंथों की भरपूर रचना हुई अपितु उसके प्रचार-प्रसार के लिए यहां की रियासतों द्वारा प्रतिवर्ष रामलीला का आयोजन भी होता रहा है। दतिया, मैहर, चरखारी, छतरपुर राज्यों तथा गोविन्दगंज जबलपुर की रामलीला की प्रसिद्घि रही है। ़.़.़.़. बुन्देलखण्ड की कई रियासतों में रामकथा का चित्रांकन हुआ। रामकथा की अभिव्यक्ति के, जो प्रमुख प्रकार हैं – काव्यमय, चित्रमय एवं लीलामय, बुन्देलखण्ड में ये तीनों प्रकार अपनाये गये। राम वन गमन प्रसंग तो रामकथा को साकार रूप में संजोये हुए है। ओरछा में राम आज भी राजा हैं। उन्हें 'रामराजा' कहा जाता है तथा प्रतिदिन बंदूकों की सलामी दी जाती है। शासकीय प्रोटोकाल में ओरछा की सीमा में अन्य किसी को भी सलामी देना निषिद्घ है।
राजपोषित तथा मठ-महंत पोषित रामलीलाओं से भिन्न एक विशिष्ट रामलीला जालौन जनपद उ.प्र. के कोंच नगर की है, जो 1851 ई़ से अब तक जनसहयोग से ही मंचित होती है। कोई पात्र, शृंगारी अथवा दृश्य बनाने वाले व्यावसायिक नहीं होते हैं। सभी नि:शुल्क तथा श्रद्घाभाव से प्रभुलीला में योगदान करते हैं। इसको किसी राजघराने, सरकार या मठ का कोई योगदान नहीं मिलता है। पहले यह रामलीला नगर के चारों ओर बिखरे बाग-बगीचों के प्राकृतिक वातावरण में होती थी। उस दिन का व्यय वह बगीचा मालिक वहन करता था। मूर्तियों के आवास से बगीचे तक जाने-आने के मार्ग में जनता मूर्तियों की टीका आरती में जो श्रद्घानिधि देती थी, उससे ही मंचन आदि पर व्यय होता था। बाद में गल्ला व्यापारियों ने तय किया कि वह मण्डी में आने वाले माल पर निश्चित प्रतिशत राशि 'धर्मादा' मद में जमा करेंगे, उससे नगर के दो मंदिरों, धर्मशाला तथा रामलीला को अंशदान मिलेगा। 1927 ई़ में इस समिति को 'धर्मादा रक्षिणी सभा' नाम दिया गया। 'धर्मादा रक्षिणी सभा' के अन्तर्गत गठित 'रामलीला समिति' द्वारा ही इस रामलीला का मंचन आयोजित किया जाता है। इस रामलीला की अनेक विशेषताऐं तथा मर्यादाएं हैं। यूनेस्को द्वारा भारत की मैदानी रामलीला को वर्ष 2005 में विश्व विरासत घोषित किया गया। उसके बाद अयोध्या शोध संस्थान ने इसका वीडियो ग्राफिक, फोटोग्राफिक अभिलेखन (21 दिन का) कराया, पुस्तक भी प्रकाशनाधीन है।
उत्तर प्रदेश की मैदानी रामलीलाओं में, उपर्युक्त के अतिरिक्त निम्नांकित स्थानों की रामलीलाएं भी महत्वपूर्ण हैं, इनका भी अभिलेखीकरण अयोध्या शोध संस्थान ने किया है-बक्सी का तालाब, ऐशबाग तथा मडि़यांवा (लखनऊ), जसवन्तनगर (इटावा), अकबरपुर (कानपुर देहात), साहबगंज (फैजाबाद), छतरपुर (म़ प्ऱ) आदि। पारम्परिक रामलीलाओं ने सांप्रदायिक सद्भाव को मजबूत किया है। बक्सी के तालाब में मुसलमानों की बहुसंख्यक सहभागिता है, तो ऐशबाग में सिखों की। कोंच में हिन्दू-मुस्लिम सिख सभी साथ-साथ करते हैं। वहां सभी जातियों का अद्भुत समन्वय तथा कार्य आवंटित है। दिल्ली में रावण, मेघनाद आदि के पुतले अधिकांश मुसलमान बनाते हैं। उनका लगभग 300 करोड़ का व्यवसाय है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयाग की रामलीला ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहां की रामलीला में चौकियां निकाली जाती थीं। इनके विविध विषय होते थे। स्वदेशी-विदेशी वस्त्रों से लेकर राजनेताओं तक की झांकियां होती थीं। रामलीला मंचन से देश के अनेक साहित्यकार तथा कलावंत जुड़े रहे हैं। उदाहरणार्थ हिन्दी के सुप्रसिद्घ समालोचक डा. रामविलास शर्मा, सदर बाजार झांसी की रामलीला में महर्ष्िा विश्वामित्र का अभिनय करते थे। रामकथा को आधुनिक काल में सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म निर्माता रामानन्द सागर ने रामायण धारावाहिक बनाकर किया। उसके प्रसारण के समय सड़कों पर अघोषित कर्फ्यू जैसा सन्नटा हो जाता था तथा जनता टी़वी़ सैटों के सामने एकाग्र होकर रामायण धारावाहिक देखती थी। रामकथा की लोकप्रियता का यह अद्भुत उदाहरण है। त्रिनिदाद एण्ड टुबेगौ की सिटी यूनिवर्सिटी में रामलीला अध्ययन विभाग है, जहां एक वर्ष का पाठ्यक्रम है। वहां की प्रो़ इन्द्राणी रामप्रसाद दो वर्ष पूर्व कोंच की रामलीला का विशेष अध्ययन करने आईं थीं। उन्होंने अनेक स्थानों की मैदानी रामलीलाओं पर शोध कार्य किया है।- अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
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