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भारतीय परंपरा में भगवती दुर्गा को सृष्टि की आदि शक्ति और भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना गया है। देवी ने जहां सृष्टि के प्रारम्भ में समाज को रक्तबीज और महिषासुर आदि राक्षसों के अत्याचारों से बचाया, वहीं श्रीराम ने ऋषि-मुनियों और सामान्यजन को खर-दूषण और त्रिशरा जैसे राक्षसों के उत्पातों से बचाया। दानवों का संहार कर उन्होंने लोक में धर्म और न्याय पर अवलंबित रामराज्य की स्थापना की।
नवरात्र और रामलीला के उत्सव परस्पर एक दूसरे से गुंथे एवं परिपूरक प्रतीत होते हैं। दोनों ही पर्व लोक में उत्साह ऊर्जा, विश्वास का भाव जागृत करने वाले हैं, दोनों ही जन और समाज के साथ देश को भी स्वाभिमान और आत्मगौरव का दायित्व बोध कराते हुए शक्ति का अहसास कराने वाले ऊर्जा पर्व हैं। कवि निराला ने 'राम की शक्ति पूजा' के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम और शक्ति स्वरूपा दुर्गा के इसी संबंध को अभिव्यक्त किया है-
होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन।
यह कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।। आज देश को शक्ति और शील के इस पावन पर्व पर पुन: आत्मगौरव, आत्मविश्वास तथा अपनी एकता की सामूहिक पहचान दिखाते हुए सिंह गर्जना की आवश्यकता है। शक्ति और मर्यादा के इन्हीें मूल्यों के स्मरण एवं अनुगमन हेतु प्रस्तुत है पाञ्चजन्य का यह विशेष आयोजन-
नवरात्र और दशहरे को इस संस्कृति में शक्ति उपासना का पर्व माना गया है, जिसमें ईश्वरीय तेज के नारी रूप की पूजा की जाती है। जब धरती के उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य उत्तर से दक्षिण की ओर चलना शुरू कर देता है, इसे दक्षिणायन कहते हैं। जून से दिसंबर तक के दक्षिणायन हिस्से को साधना पद कहा जाता है। इस काल को नारीत्व-प्रधान माना जाता है, जिसमें पृथ्वी स्त्री-प्रधान भूमिका निभाती है। इन छह महीनों के दौरान जो भी पर्व और त्योहार मनाए जाते हैं, ज्यादातार वे सभी स्त्री-तत्व वाली ऊर्जा से जुड़े होते हैं। इस उपमहाद्वीप की पूरी संस्कृति इसी विचार से संयोजित है। जहां हर महीने कोई न कोई त्योहर होता है।
साल के इस स्त्री-प्रधान आधे हिस्से की पहली तिथि, 23 सितंबर को शारदीय विषुव (जहां दिन रात बराबर होते हैं) के तौर पर जाना जाता है। और इसके बाद पड़ने वाली पहली अमावस्या को महालय अमावस्या कहते हैं। यह अपने उन सभी पूर्वजों, पितरों व पिछली पीढ़ी के उन लोगों के प्रति सम्मान और आभार व्यक्त करने का खास दिन है, जिनका हमारे जीवन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर योगदान रहा है। यह आभार हम श्राद्ध के तौर पर प्रकट करते हैं। दरअसल, इस समय में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में नई फसल आना शुरू हो जाती है। ऐसे में नई फसल का पहला हिस्सा हम अपने पूर्वजों व पितरों को आभार के रूप में भेंट करते हैं।
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साथ ही, महालय अमावस्या से देवी काल की शुरुआत हो जाती है। इस दिन से लेकर उत्तरायण की शुरुआत तक का जो चौथाई हिस्सा है, उसे देवी पद के नाम से भी जानते हैं। इस चौथाई हिस्से में धरती का उत्तरी गोलार्द्ध काफी सौम्य हो जाता है, क्योंकि इस दौरान सूर्य की किरणें पूरे साल की तुलना में सबसे कम पहुंचती हैं। इसलिए इन दिनों हर चीज ज्यादा गतिशील न होकर, थोड़ी मंद पड़ जाती है। महालय अमावस्या का अगला दिन नवरात्र या दशहरा का पहला दिन माना जाता है, जो पूर्ण रूप से देवी से जुड़ा है। कर्नाटक में दशहरा में चामुंडा की पूजा होती है, जबकि बंगाल में दुर्गा की। इसी तरह इस दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न देवियों की उपासना होती है, लेकिन मूल रूप से दशहरा या नवरात्र का समय देवी आराधना या शक्ति की उपासना से जुड़ा है।
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नवरात्रि के नौ दिन मूल रूप से तीन गुणों- रजस, तमस और सत्व- में बांटे गए हैं, जो त्रिगुण के नाम से भी जाने जाते हैं। किसी भी जीव के अस्तित्व के लिए ये तीन गुण ही मुख्य आधार हैं। रजो, तमो और सतो, इन तीनों गुणों के बिना कोई अस्तित्व संभव नहीं है। यहां तक कि एक अणु भी इन गुणों से मुक्त नहीं है। हर अणु में इन तीनों गुणों या तत्वों की ऊर्जा, स्पंदन व प्रकृति का कुछ न कुछ अंश पाया जाता है। अगर ये तीनों तत्व मौजूद नहीं होंगे तो कोई भी चीज टिक नहीं सकती, वह बिखर जाएगी। अगर आपमें सिर्फ सतो गुण ही है तो आप यहां एक पल के लिए भी टिक नहीं पाएंगे, तुरंत गायब हो जाएंगे। इसी तरह से अगर आप में सिर्फ रजो गुण होगा तो भी यह काम नहीं करेगा और अगर आप में सिर्फ तमस ही होगा तो आप हमेशा निष्क्रिय रहेंगे। इसलिए हर चीज में ये तीनों ही गुण मौजूद हैं। अब सवाल यह है कि आप इन तीनों को किस अनुपात में मिलाते हैं। तमस का शाब्दिक अर्थ है, निष्क्रियता और ठहराव। रजस का आशय है, सक्रियता और जोश। जबकि एक तरह से सत्व का मतलब है, अपनी सीमाओं को तोड़ना, विसर्जन, विलयन व एकाकार। तीन मुख्य आकाशीय पिण्डों, सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा, से हमारे शरीर की मूल संरचना का गहरा संबंध है। पृथ्वी को तमस का, सूर्य को रजस का और चंद्रमा को सत्व का प्रतीक मानते हैं। जो लोग अधिकार, सत्ता, अमरत्व व ताकत की कामना करते हैं, वे देवी के तमस रूप की आराधना करेंगे, जैसे काली व धरती माता। जो लोग धन-दौलत, ऐश्वर्य, जीवन व सांसारिकता से जुड़ी चीजों की कामना करते हैं, वे स्वाभाविक तौर पर देवी के रजस रूप की आराधना करेंगे, जिसमें देवी लक्ष्मी व सूर्य आते हैं। लेकिन जो लोग ज्ञान, चेतना, उत्कर्ष, और नश्वर शरीर की सीमाओं से ऊपर उठने की कामना करते हैं, वे देवी के उस सत्व रूप की आराधना करेंगे, जिसका प्रतीक सरस्वती और चंद्रमा हैं। नवरात्रि के पहले तीन दिन तमस के माने जाते हैं, जिसकी देवी प्रचंड और उग्र हैं, जैसे दुर्गा या काली। इसके अगले तीन दिन रजस या लक्ष्मी से जुड़े माने जाते हैं जो बहुत सौम्य हैं, लेकिन सांसारिकता से जुड़े हुए हैं। जबकि आखिरी तीन दिन सत्व से जुड़े माने जाते हैं, जिसकी देवी सरस्वती हैं, जो विद्या और ज्ञान से संबंधित हैं।
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इन तीनों गुणों में अपनी जिंदगी निवेश करने के तरीके से आपके जीवन की दशा व दिशा तय होती है। अगर आप तमस पर ज्यादा जोर देते हैं तो आप जीवन में एक खास तरीके से ताकतवर होते हैं, इसी तरह से अगर आप रजस पर जोर देते हैं तो आप एक अलग तरीके से शक्तिशाली होते हैं, लेकिन अगर आप सत्व में निवेश करते हैं तो आप पूरी तरह से बिल्कुल एक अलग तरीके से समर्थ बन जाते हैं। दूसरी ओर अगर आप इन तीनों ही तत्वों से ऊपर उठ जाते हैं तो फिर मामला शक्ति का नहीं, बल्कि मुक्ति से जुड़ जाता है।
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नवरात्र के बाद दशहरा का अंतिम यानी दसवां दिन है- विजयादशमी, जिसका मतलब है कि आपने इन तीनों ही गुणों को जीत लिया है, उन पर विजय पा ली है। यानी इस दौरान आप इनमें से किसी में नहीं उलझे। आप इन तीनों गुणों से होकर गुजरे, तीनों को देखा, तीनों में भागीदारी की, लेकिन आप इन तीनों से किसी भी तरह बंधे नहीं, आपने इन पर विजय पा ली। यही विजयादशमी का दिन है। इस तरह से नवरात्र के नौ दिनों का आशय जीवन के हर पहलू के साथ पूरे उत्सव के साथ जुडऩा है। अगर आप जीवन में हर चीज के प्रति उत्सव का नजरिया रखेंगे तो आप जीवन को लेकर कभी गंभीर नहीं होंगे और साथ ही आप हमेशा उसमें पूरी तरह से शरीक होंगे। दरअसल, आध्यात्मिकता का सार भी यही है। – सद्गुरु जग्गी वासुदेव (प्रस्तुति : अ.वि.)
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