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वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ तथा संस्कृत विश्व की जीवन्त प्राचीनतम भाषा है। यह विश्व की जननी भाषा तथा विश्व संस्कृतियों तथा सभ्यताओं की कुंजी है। समूचे विश्व में अनेक भाषाविदों, पुरातत्ववेत्ताओं, इतिहासकारों तथा अन्य विद्वानों ने संस्कृत की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। जर्मन विद्वान प्रो. बॉप ने एक समय संस्कृत को विश्व की एकमात्र भाषा, डयूबास ने संस्कृत को आधुनिक यूरोपीय भाषाओं का उद्गम, मैक्समूलर ने भाषाओं की माता तथा विश्व प्रसिद्ध विल ड्यूरैंट ने भारत को वंशीय माता तथा संस्कृत को यूरोपीय भाषाओं की माता कहा है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि संस्कृत का उच्चारण ही व्यक्तियों को एक प्रकार की गौरव, शक्ति और बल देता है। संस्कृत प्रगति का स्थायी आधार, ज्ञान का अक्षय भण्डार तथा सम्पूर्ण यूरोपीय सभ्यताओं की नींव है। महात्मा गांधी ने लिखा, संस्कृत के ज्ञान के बिना कोई भी सच्चा भारतीय और बुद्धिमान नहीं हो सकता। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम का मानना है कि वैज्ञानिक तथा तकनीकी जानकारी के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है।
संस्कृत की उपेक्षा
1760 में कोलकाता में कम्पनी के शासन की स्थापना के साथ अंग्रेजी प्रशासक तथा ईसाई मिशनरी सम्पूर्ण भारत में संस्कृत भाषा तथा इसके विपुल साहित्य के प्रभाव, प्रसार तथा इसके वर्चस्व से आश्चर्यचकित हुए और भयभीत भी। अनेक भाषाओं के ज्ञाता, प्रसिद्ध प्राच्यविद् सर विलियम जोन्स (1746-1794) ने भारत में अंग्रेजी शासन की मजबूत पकड़ के लिए यहां के संस्कृत में लिखे कानूनों की जानकारी के लिए संस्कृत सीखी। साथ ही संस्कृत को प्रोटोलैंग्वेज कहकर विश्व में आर्यभाषा का विवाद भी खड़ा किया (देखें, एस.सी मित्तल, ब्रिटिश इतिहासकार तथा भारत, पृ. 64) शीघ्र ही अंग्रेजों के एक गुट- चार्ल्स ग्रांट, विल्बर फोर्स तथा लार्ड मैकाले ने उसका विरोध कर मार्च 1835 में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम जबरदस्ती बनाया। परिणामस्वरूप संस्कृत विद्यालय तथा पाठशालाएं बन्द कर दिये गये। संस्कृत की छात्रवृत्तियां खत्म कर दी गईं, परन्तु सरकारी उपेक्षा के पश्चात भी संस्कृत के प्रति लोगों का अनुराग कम न हुआ। उदाहरणत: प्राच्यवादी एच एच विल्सन ने लिखा, 'संस्कृत में ऐसी मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग सदा उसके दिवाने रहते हैं। जब तक विन्ध्य तथा हिमालय है, जब तक गंगा और गोदावरी है, तब तक संस्कृत है।'
19वीं शताब्दी के भारत में धार्मिक-सामाजिक जागरण, राष्ट्र चेतना तथा जागृति का मुख्य स्वर संस्कृत साहित्य ही रहा।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में संस्कृत को पुन: महत्व देने के कुछ प्रयत्न अवश्य हुए। भारतीय संविधान में डा. अम्बेडकर ने संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रयत्न किया (देखें, 10 सितम्बर, 1949 की संविधान सभा की कार्यवाही)पर विरोध होने पर संभव न हुआ। डा. राधाकृष्णन आयोग (1949) ने संस्कृत न पढ़ाये जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की।
माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-1953) ने भी संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने की मांग की। राजभाषा आयोग (1955-56) ने संस्कृत पढ़ाये जाने पर बल दिया। सन 1956 में संस्कृत आयोग की स्थापना की गई। इसने विस्तार से संस्कृत के विभिन्न आयामों पर बल दिया। इतना ही नहीं तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने 1956 में कुरुक्षेत्र में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना की।
परन्तु 1960 के दशक से भारत में संस्कृत का निष्कासन तेजी से प्रारंभ हुआ। अंग्रेजी पढ़ी लिखी नौकरशाही तथा पश्चात्य रंग में रचे-पचे शासक वर्ग ने विभिन्न आयोगों के प्रस्तावों को कूड़े की टोकरी में डाल दिया। दिल्ली जैसे विश्वविद्यालय में संस्कृत तथा कृषि में आए अंकों को महत्वहीन माना जाने लगा। राजीव गांधी की नव शिक्षा नीति ने संस्कृत को प्राय: मृतभाषा बना दिया। आज जो संस्कृत की दुर्गति हो रही है वह सर्वविदित है। मेरठ जैसे विश्वविद्यालय में संस्कृत में एमफिल का अध्ययन बंद कर संस्कृत में शोध कार्यों पर ताले डाल दिये गए हैं। संस्कृत के सम्पूर्ण भारत में कुल लगभग एक दर्जन विश्वविद्यालय हैं परन्तु कुछ ऐसे भी हैं जहां उच्च पदों पर वे लोग आसीन हैं जो संस्कृत के विद्वान भी नहीं हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि संस्कृत केवल एक भाषा ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति तथा जीवन प्रणाली की एक महान विरासत है। इसने भारत को विश्वगुरु बनाया। इसके अभाव में, भारत के शैक्षणिक विस्तार, सांस्कृतिक तथा संस्कारित वातावरण, नैतिक उत्थान तथा विदेशों में मधुर संबंधों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उदाहरणत: विदेश मंत्रालय में जहां विदेशी मंत्री, विदेश राज्य मंत्री, विदेश सचिव तथा पर्याप्त मात्रा में भारतीय राजदूत ऐसे हों जो संस्कृत साहित्य से परिचित न हों, तो कैसे वे भारतीय हितों का प्रतिनिधित्व तथा विश्व कल्याण के बारे में सोच सकेंगे। संस्कृत ज्ञान के अभाव का अर्थ है, अतीत से नाता टूटा होना। ऐसे भी अनुभव आते हैं कि जब कोई विदेशी भारत के सांस्कृतिक दूतों से गीता के किसी श्लोक अथवा संस्कृत साहित्य की कोई जानकारी चाहता है तो वे कुतर्क देने लगते हैं। अनेक बार भारत के तथाकथित सेकुलरवादी संस्कृत को भारत में अरबी तथा फारसी के समकक्ष बताकर अपने बेहूदे तर्क तथा अपनी अज्ञानता को छिपाने का प्रयास करते हैं और यह तब है कि विश्व के 46 देशों में उनके 250 विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाती है। संक्षेप में संस्कृत की उपेक्षा एक भयंकर संस्कृति विरोधी तथा राष्ट, विरोधी
कृत्य है।
हिन्दी की दुर्गति
एक बार कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बड़े दु:खी मन से कहा था, 'संसार में भारत ही एक ऐसा देश है जहां शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से दी जाती है' (देखें, 1936 में कोलकाता विश्वविद्यालय में उनका दीक्षान्त भाषण) उन्हें क्या पता था कि स्वतंत्रता के पश्चात भी यही क्रम चलता रहेगा। गांधी जी ने भी कहा था- यह समस्या 1938 में हल हो जानी चाहिए थी अथवा 1947 में तो अवश्य ही हल हो जानी चाहिए थी' (हरिजन, 2 नवम्बर, 1947) शिक्षा का माध्यम शीघ्र ही राजनीतिक अखाड़े की वस्तु बन गई। चुनाव शतरंज जीतने की एक गोट बन गई। आज भाषा में भी राजनीति घुस गई है (देखें प्रो. शेरसिंह- शिक्षा समस्या विशेषांक, आगरा, पृ. 133)
संस्कृत की भांति, हिन्दी भी सदैव भारतीय चेतना का स्रोत रही है। मध्यकाल में सूर, तुलसी, कबीर, रविदास, जायसी, रसखान ने भारतीय समाज में स्वाभिमान, आत्मगौरव की भावना जगाई तथा चैतन्य फैलाया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने राष्ट्र की उन्नति के लिए कहा- निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, रामचन्द्र शुक्ल,महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा वर्तमान में महान लेखक मैथिलीशरण गुप्त तथा रामधारी सिंह दिनकर ने समाज में चेतना जगाई, पंत, प्रसाद, महादेवी, निराला ने राष्ट्र को संघर्ष के लिए प्रेरित किया। राष्ट्रीय आन्दोलन में अंग्रेजी से टकराव राष्ट्रीय भावना का प्रतीक रहा। सर सैयद अहमद खां को लाला लाजपतराय का हिन्दी के प्रश्न को लेकर विवाद प्रसिद्ध है। महात्मा गांधी ने 1909 में हिन्द स्वराज्य में अंग्रेजी भाषा के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था- हजारों व्यक्तियों को अंग्रेजी सिखाना उन्हें गुलाम बनाना है। डा. सम्पूर्णानन्द ने सांस्कृतिक उन्नति तथा राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक बतलाया कि अंग्रेजी को हम जितना जल्दी विदा करें उतना ही राष्ट्र के लिए हितकर होगा (देखें, द आर्गनाईजर 26 जनवरी 1965)
देश के शिक्षाविदों तथा राष्ट्रचिंतकों ने भारत में शिक्षा, संस्कृति के उत्थान के लिए बच्चों को हिन्दी या मातृभाषा में ही शिक्षा देने पर बल दिया। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के माध्यम का क्रम बतलाते हुए इसे मातृभाषा, हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के क्रम में रखा।
भगिनी निवेदिता ने महाकवि रवीन्द्रनाथ को अपने परिवार की एक कन्या का अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश कराते हुए विरोध में कहा, क्या तुम उसे मेम बनाना चाहते हो साथ ही कहा, विदेशी शिक्षा के कारण अपनी राष्ट्रगत विशेषताएं नष्ट हो जाती हैं। ऐनी बेसेंट ने मातृभाषा का समर्थन करते हुए कहा, अंग्रेजी भाषा ने एक ऐसे वर्ग का निर्माण किया जो भारतीयता से हटकर शासन का हिमायती बन गया। श्री मां ने सदैव मातृभाषा में शिक्षा देने की बात कही। राजगोपालाचारी जैसे विद्वान भी दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा के
अध्यक्ष बने।
यह आश्चर्यजनक है कि स्वतंत्र होने के पश्चात हिन्दी को न विश्व भाषा बनाने के लिए प्रयत्न हुए, न इसे भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा बनाया गया बल्कि इसे केवल राजभाषा का स्थान दिया गया तथा उसके साथ यह भी नत्थी कर दिया गया कि अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजी भी राजभाषा के रूप में रहेगी। तभी से ये पन्द्रह वर्ष अभी तक पूरे नहीं हुए, इसके लिए श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर इसका सम्मान अवश्य बढ़ाया। सच तो यह है कि संविधान की धारा 35.1 में हिन्दी के प्रचार का उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार को दिया गया है। इसकी निरंतर उपेक्षा की गई। भाषा का प्रश्न राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया। हिन्दी शीघ्र ही राजनीति की दासी बन गई। भारत की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या, दो प्रतिशत अंग्रेजी पढ़े लिखों का शिकार बन गई। अंग्रेजी ही सरकारी दफ्तरों, अदालतों, बैंकों, विद्यालयों, प्रतियोगिताओं की भाषा बनी रही। दफ्तरों में अंग्रेजी लैपटॉप की भरमार हो गई। गांव से महानगर तक मातृभाषा अथवा हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी प्रगति तथा लाभ का मार्ग समझी जाने लगी। उत्तर प्रदेश में तो मायावती शासनकाल में लार्ड मैकाले के जन्मदिवस (25 अक्तूबर) को इंगलिश देवी का एक मंदिर भी स्थापित कर दिया गया। दूसरी सरकार उर्दू को उच्च स्थान देकर, आर्थिक सुविधाएं देकर, राजनीतिक रोटियां सेंकने को प्रयत्नशील है। ताज्जुब तो यह है कि भारत जैसे देश में भी हिन्दी दिवस मनाये जाने लगे। जो शीघ्र ही पुण्य दिवस का स्वरूप ले रहा है जहां अंग्रेजी में हिन्दी के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अनुसार यह भारत की दुर्दशा नहीं तो क्या है?
सारांश में यह कहना गलत न होगा कि संस्कृत एवं हिन्दी के प्रति यह उपेक्षा, उदासीनता तथा जानबूझकर अवहेलना आत्मघातक तथा राष्ट्रविरोधी है। इसने जहां की युवा पीढ़ी को भारत की सांस्कृतिक विरासत में वंचित कर दिया, वहां उनकी मौलिकता तथा प्रतिभा को भी कुंठित कर दिया है। इसने विश्वव्यापी भारत की छवि को धूमिल किया, भाषा के बाजारीकरण का आत्मघाती सिलसिला तथा भाषा का चुनाव नीति का मोहरा नहीं बनाया जाना चाहिए। प्रश्न है आखिर भारत तथा इसकी युवा पीढ़ी कब चेतेगी? -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
(लेखक वरिष्ठ शिक्षाविद् एवं इतिहासकार हैं)
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