|
आलोक गोस्वामी
.न्यायपालिका की साख पर उंगली बाहर से नहीं उठी है, उसके शीर्ष पर रहे लोगों ने ही उठाई है। यह वो मुद्दा है जिस पर देश में चर्चा तेज हो गई है।
इक्कीस मई के टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की उनके नाम से छपी 'लीड'खबर ने न्यायपालिका पर बाहरी दबावों, राजनीतिक प्रभावों की ओर जो इशारा किया है उसने संसद से लेकर अखबार के कॉलमों में खूब जगह पाई है और रोजाना किसी न किसी रूप में बहस का विषय बना है। संसद में द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच जमकर आरोप-प्रत्यारोप हुए, अन्नाद्रमुक सांसदों ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से जवाब मांगा, पर सदन में मौजूद मनमोहन सिंह चुप्पी ओढ़े रहे। लोेकसभा दो बार स्थगित हुई। सदन में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इस मामले पर सरकार का पक्ष रखा और न्यायपालिका का दुरुपयोग करने पर कांग्रेस से जवाब मांगा। जो मुद्दा न्यायमूर्ति काटजू ने इस खबर में उठाया है वह है तो 10 साल पहले का, लेकिन इसने एक स्वतंत्र और निष्पक्ष माने जाने वाले लोकतंत्र के स्तम्भ में क्या कुछ चल रहा है उसे एक बार फिर से उघाड़ के रख दिया है। हालांकि प्रेस द्वारा इस समय यह मामला उछालने के बारे में पूछे गए सवालों को काटजू टालते रहे और बार-बार तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश से इस पर सफाई मांगे जाने की बात करते रहे। काटजू की मानें तो 2004 में मद्रास उच्च न्यायालय में एक अतिरिक्त न्यायाधीश के बारे में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति लाहोटी को पत्र लिखकर उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे होने के चलते उन्हें स्थायी तौर पर न्यायाधीश न बनाने संबंधी पत्र लिखा था। काटजू ने उनकी जांच कराने की मांग भी की थी। जांच हुई। आई. बी. ने आरोपों को सही पाया, लेकिन, बकौल काटजू, सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने, जिसमें न्यायमूर्ति लाहोटी, न्यायमूर्ति वाई. के. सब्बरवाल और न्यायमूर्ति रूमा पाल शामिल थीं, सरकार से दरख्वास्त की थी कि भ्रष्टाचार के आरोपी जज का कार्यकाल नहीं बढ़ाने की सिफारिश की थी। लेकिन आगे चलकर उस आरोपी जज को कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया गया। इतना ही नहीं, अगले मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सब्बरवाल के कार्यकाल में भी उस अतिरिक्त जज का कार्यकाल एक साल के लिए और बढ़ा दिया गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
इसके पीछे काटजू ने जो घटनाक्र म बताया है वह न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव का एक जीता जागता उदाहरण पेश करता है।
अपनी 'रपट' में काटजू लिखते हैं-'मद्रास उच्च न्यायालय में एक अतिरिक्त जज थे जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। उन्हें तमिलनाडु में सीधे जिला दण्डाधिकारी बना दिया गया था और जिला दण्डाधिकारी के तौर पर मद्रास उच्च न्यायालय के तमाम जजों ने उनके खिलाफ आठ टिपप्णियां दर्ज की थीं। लेकिन मद्रास उच्च न्यायालय के एक कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश ने एक बार में उन सब टिपप्णियों को काट दिया, जिसके बाद वह जज उच्च न्यायालय में अतिरिक्त जज बन गया। ' काटजू की मानें तो जब वे मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनकर 2004 में वहां गए थे तब वे संदर्भित जज अतिरिक्त न्यायाधीश ही थे। न्यायमूर्ति काटजू का कहना है कि उन्हें तमिलनाडु के एक राजनीतिक दल का समर्थन प्राप्त था क्योंकि जिला दण्डाधिकारी रहते हुए उन्होंने इस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता को जमानत दी थी। काटजू लिखते हैं कि उन्होंने उस जज पर लगे आरोप देखते हुए भारत के तब के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर उनकी जांच कराने को कहा। जांच हुई और मामला सच पाए जाने पर सरकार को चिट्ठी लिखी गई, उस अतिरिक्त जज का कार्यकाल न बढ़ाने की सिफारिश की गई।
ध्यान देने की बात है कि उस वक्त मनमोहन सरकार आंकड़ों की बैसाखी पर टिकी थी जिसमें तमिलनाडु की उस पार्टी का बड़ा योगदान था। जज का कार्यकाल न बढ़ाने की सर्वोच्च न्यायालय की सिफारिश का पता चलते ही, विदेश यात्रा पर निकले तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रवाना होने से पहले हवाई अड्डे पर ही दक्षिण की उस पार्टी के नेता ने बता दिया कि जज का कार्यकाल नहीं बढ़ा तो लौटने पर वे प्रधानमंत्री न रहेंगे, समर्थन खींच लिया जाएगा। चिंतित प्रधानमंत्री को उनके एक मंत्री (तब कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज थे) ने आश्वस्त किया कि चिंता न करें, सब 'ठीक' कर लिया जाएगा। भारद्वाज ने खुद ये बात कही है कि उन्होंने द्रमुक को साफ कहा था कि वे खुद उस जज की पदोन्नति की सिफारिश नहीं करेंगे, पर उन्होंने मामले को मुख्य न्यायाधीश के पाले में डाल दिया था। उसके बाद घटनाक्रम कुछ इस तरह घटा कि न केवल उस दाग लगे जज का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा बल्कि भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वाई. के. सब्बरवाल के कार्यकाल में भी उस जज को एक और साल के लिए अतिरिक्त जज बनाए रखा गया। ध्यान देने की बात है कि इस दौरान केन्द्र में मनमोहन सिंह सरकार सत्तासीन थी और द्रमुक संसद में उसकी तारणहार सहयोगी।
बात सिर्फ राजनीतिक दबाव या प्रभाव तक ही सीमित नहीं रही है, कितने ही 'माई लॉर्ड' या 'हुजूरे आला' पर घूस लेने, सिफारिशों पर काम करने से लेकर यौन शोषण तक करने के घृणित आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं। यहां तक कि महाअभियोग जैसी दुखद स्थिति देखने में आई। यहां कुछ मामलों पर गौर करने से हालात समझ आ जाएंगे। देश में एक सबसे बड़ी अदालत यानी सर्वोच्च न्यायालय है और 22 उच्च न्यायालय हैं जिनके करीब 650 माननीय न्यायाधीश एक 'इम्यून' आवरण में रहते हैं और अदालत में हों या बाहर उन्हें बेहद सम्मान के साथ देखा जाता है। बात कुछ साल पहले से शुरू करें तो 2002 के मध्य में, चण्डीगढ़ में तीन जज पंजाब लोक सेवा आयोग के बदनाम हो चुके अध्यक्ष रविन्द्र पाल सिंह सिद्धू के साथ 'नौकरी के बदले नकद' के उस मामले में संलिप्त पाए गए थे जिसने पंजाब में तब हड़क म्प मचा दिया था। दिलचस्प बात ये है कि तब के पंजाब और हरियाण उच्च नयायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अरुण बी. शौर्य ने जब तीनों दागी जजों अमर बीर सिंह गिल, मेहताब सिंह गिल और एम. एल. सिंह के खिलाफ रपट सौंपी तो भारत के तब के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी. एन. किरपाल, तीन महीने बाद अपनी सेवानिवृत्ति तक, उस रपट को दबाए रहे।
न्यायमूर्ति सौमित्र सेन का मामला भी खूब उछला था। 2003 में कलकत्ता उच्च न्यायालय में जज रहे सेन पर 32 लाख की रिश्वत का आरोप लगा था। सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे पी.डी. दिनाकरन पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने आरोप लगाया था कि उन्होंने अपने गृह नगर अरक्कोणम में अवैध संपत्ति जमा की हुई थी। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली पर अपने नीचे प्रशिक्षण ले रही युवती के यौन उत्पीड़न का आरेोप देश की सबसे बड़ी अदालत में दाखिल हो रही व्याधि की ओर इशारा कर गया था।
हाल ही का एक मामला सहारा प्रमुख का है जिसमें जज पर राजनीतिक दबाव डाले जाने के साफ संकेत मिले थे। और ऐसे एक नहीं कितने ही मामले हैं जो न्यायपालिका में गिरते स्तर की तरफ इशारा करते हैं। देश के 22 उच्च न्यायालयों में से 12 के जजों पर अनैतिक आचरण के आरोप सामने आए हैं।
स्थिति दुखद है, पर ऐसी नहीं कि काबू न आ सके। न्याय के इन मंदिरों की ओर उठती उंगलियों से इनसे जुड़े रहे वरिष्ठ न्यायमूर्तियों, अधिवक्ताओं और बार काउंसिल के सदस्यों को चिंता होना कोई अचरज की बात नहीं है। पंजाब और हरियाण उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति रामा जॉयस कहते हैं, 'न्यायपालिका के सामन आज जो स्थिति बनी है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। जजों को निष्पक्ष और स्वतंत्र होना चाहिए।' न्यायमूर्ति काटजू के लगाए आरोपों के संदर्भ में पाञ्चजन्य से बात करते हुए उन्होंने कहा, 'न्यायमूर्ति काटजू का आरोप बड़ा कष्ट देता है कि न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव डालने की कोशिश की जाती है। इसमें सारा सच हो या कुछ अंश सच हों, लेकिन इसमें कुछ तो बात होगी। मुझे याद है, कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गोविन्द भट्ट ने राजनीतिक दबाव में आने से साफ इनकार कर दिया था। तब न्यायालय में न्यायाधीशों के सात पद खाली थे। उस वक्त एक राजनीतिक पार्टी ने उन पर अपने एक पसंदीदा वकील को जज बनाने को कहा। न्यायमूर्ति भट्ट ने सातों पद खाली रखे, एक पर भी नियुक्ति नहीं की। बाद में सरकार बदली, वह पार्टी सत्ता में आई और उसी वकील को जज बनवा लिया। उस वक्त भट्ट पद पर नहीं थे।'
इसी तरह विधि विशेषज्ञ डा. भरत झुनझुनवाला हालात चिंताजनक बताते हैं पर संतोष इस बात का है कि ये व्याधियां आज सामने तो आ रही हैं। होती ये पहले भी थीं पर सामने नहीं आ पाती थीं। उनका कहना है कि जज निष्पक्ष और नैतिक रूप से एकदम खरे हों इसके लिए उनके चयन के लिए उत्तरदायी कॉलिजियम में एक अहम निखार लाने की जरूरत है। वे कहते हैं, 'न्यायपालिका में जिस तरह की खामी आने की चर्चा चल रही है उसमें पहली बात तो यह है कि उसे सुधारा तो जाए पर उसकी आजादी पर आंच नहीं आनी चाहिए। न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव या सरकारी दखल का विरोध होना चाहिए। साथ ही, मैं उस न्यायिक कमीशन का भी विरोध करता हूं जो कानून के जरिए बनाए जाने की बात चल रही है। कारण यह है कि उसमें दो-तीन सदस्य सरकार की तरफ से चुने जाएंगे, जिससे उस पर परोक्ष सरकारी दखल बनी रहेगी। सरकार की दखल हम नहीं चाहते, फिर भी न्यायपालिका पर किसी तरह का आंतरिक नियंत्रण तो होना चाहिए। क्यों न एक ऐसा 'कमीशन' बनाया जाए जिसमें, उदाहरण के लिए, देश के सबसे बड़े मजदूर संघ का प्रमुख ले लें, उम्र में सबसे बड़े शंकराचार्य को लें, बार काउंसिल या मेडिकल काउंसिल के प्रमुखों को लें, अर्जुन पुरस्कार विजेता खिलाड़ी को ले लें आदि आदि। ऐसे 6-7 लोग, जो वैधानिक रूप से चिन्हित हैं, उन्हें और 2-3 जजों को इस नियुक्ति करने वाले कमीशन में शामिल करें। इनमें कम से कम सरकार का दखल तो नहीं होगा।' डा. झुनझुनवाला कहते हैं कि न्यायपालिका में तमाम तरह की अनैतिकता को दूर करने के चक्कर में हम कोई बड़ी गलती न कर बैठें। समाधान ये है कि 'बार'इन मुद्दों को उठाए। हमें न्यायिक स्वतंत्रता को खत्म नहीं करना है, अन्यथा बहुत ज्यादा नुकसान हो जाएगा।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति पर्वत राव कहते हैं, आज न्यायपालिका पर जो सवाल खड़े हुए हैं वे बेशक दुखदाई हैं। पर उनका मानना है कि अधिकांश न्यायाधीश निष्ठावान और समर्पित होते हैं। न्यायपालिका किसी भी तरह के दबाव से मुक्त रहनी चाहिए। न्यायमूर्ति राव ने पाञ्चजन्य से न्यायमूर्ति काटजू द्वारा सामने लाए गए मुद्दे पर बात करते हुए कहा, 'अभी जो मुद्दा उठा है वह भी राजनीतिक दबाव के संदर्भ में ही है। पर यह कोई नई बात नहीं है। न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के अंतर्गत एक 'कॉलिजियम' करता है। पर इस पर राजनेताओं का, पार्टियों का दबाव देखा गया है। न्यायाधीशों पर प्रभाव डालने की कोशिश की जाती है। न्यायाधीशों को पूरी दृढ़ता से निष्पक्ष रहना चाहिए। जजों को घूस दिए जाने के उदाहरण भी सुनने में आते हैं, लेकिन ऐसा नीचे की अदालतों में ही ज्यादा देखने में आता है। अधिवक्ता परिषद की तरफ से हमारा यही कहना है कि न्यायपालिका में अच्छे लोग आने चाहिए क्योंकि तकाजा नैतिकता का है। समाज को इसमें अपनी भूमिका निभानी होगी।'
इलाज का फायदा तब होता है जब वह रोग के लाइलाज होने से पहले किया जाए।
नासूर जल्दी भरा नहीं करते। भारत में लोकतंत्र निरोग और स्वस्थ रहे उसके लिए इसके चारों खंभों-कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया-की मजबूती बनी रहनी जरूरी है। किसी भी खंभे को किसी बाहरी जोर-आजमाइश से बेअसर रखा जाए, उसके कड़े इंतजाम वक्त रहते होने ही चाहिए। न्याय के मंदिर उसी पवित्रता के साथ मस्तक उन्नत रखे रहें, इसी में देश का भला है।
न्यायमूर्ति काटजू के आरोप में पूरा नहीं, कुछ तो सत्य होगा। ये बहुत दुखद स्थिति है।—न्यायमूर्ति रामा जॉयस
सरकार की दखल हम नहीं चाहते, फिर भी न्यायपालिका पर कोई आंतरिक नियंत्रण तो होना चाहिए। — डा. भरत झुनझुनवाला
अधिकांश न्यायाधीश निष्ठावान और समर्पित हैं। न्यायपालिका हर तरह के दबाव से मुक्त रहनी चाहिए। —न्यायमूर्ति पर्वत राव
मद्रास उच्च न्यायालय में एक अतिरिक्त जज थे जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। उन्हें तमिलनाडु में सीधे जिला दण्डाधिकारी बना दिया गया था और जिला दण्डाधिकारी के तौर पर मद्रास उच्च न्यायालय के तमाम जजों ने उनके खिलाफ आठ टिपप्णियां दर्ज की थीं। लेकिन मद्रास उच्च न्यायालय के एक कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश ने एक बार में उन सब टिपप्णियों को काट दिया, जिसके बाद वह जज उच्च न्यायालय में अतिरिक्त जज बन गया।
— न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू
न्यायपालिका का दुरुपयोग करने पर कांग्रेस को जवाब देना होगा।
-रविशंकर प्रसाद, कानून मंत्री, भारत
मैंने अपनी जिंदगी में कभी कुछ गलत
नहीं किया। हर चीज रिकार्ड पर है।
-न्यायमूर्ति आर. सी. लाहोटी
न्यायाधीशों पर लगे गंभीर आरोप
ए.के. गांगुली
ासर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली पर 14 दिसंबर , 2012 को एक छात्रा ने छेड़खानी का आरोप लगा, जो उनके पास इंटर्नशिप करने के लिए
गई थी।
स्वतंत्र कुमार
सर्वोच्च न्यायालय के इन पूर्व न्यायाधीश पर एक महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाया था,जब कुमार सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे तब यह महिला मई 2011 में उनकी
इंटर्न थी।
निर्मल यादव
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश यादव पर 2008 में घर पर 15 लाख रुपए पहुंचने से जुड़े मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने इनके खिलाफ आरोप निर्धारित कर दिए।
निर्मल यादव
सौमित्र सेन
कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश सौमित्र सेन पर2010 में लगभग 24 लाख रुपए के गबन का आरोप लगा। उस समय वह वकील थे और कोलकाता उच्च न्यायालय ने उन्हें रिसीवर नियुक्त किया था।
ऐसा नहीं है कि आरोपों के घेरे में बस ये चार न्यायाधीश ही हैं, पर ये वे हैं जिनके मामले खूब उछले थे, जिनको लेकर न्याय-मंदिरों की छवि धूमिल हुई थी और जिनके बारे में जानकर देश की जनता के मन में कई सवाल खड़े हुए थे।
टिप्पणियाँ