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मुूझे मां गंगा ने बुलाया है। वाराणसी आने के बाद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का यह पहला उदगार था। वैसे तो मां गंगा अपने भक्तों को बुलाती ही रहती है और वे खिंचे हुए चले आते हैं। इससे पहले भी मोदी को मां गंगा ने बुलाया होगा और वे आए भी होंगे,परन्तु इस बार मां गंगा ने एक विशेष अवसर और परिस्थिति में मोदी जी को बुलाया है।
गंगा की उत्तर प्रदेश में अधिकतर स्थानों पर दुर्दशा देखने के अपने अंतिम पड़ाव में हम इलाहाबाद पहुंचे। इलाहाबाद में भी गंगा का दर्द वही था जो सभी जगह देखा। कहने के लिए शोधित प्लांट लगे हैं पर क्षमता कम होने का रोना है। शहर में करीब 50 करोड़ लीटर से ज्यादा ज्यादा प्रदूषित पानी निकलता है जिसमें 20 करोड़ का ही शोधन हो पाता है। बाकी बचे पानी को गंगा में उड़ेल दिया जाता है। संगम होने से यमुना भी यहां आकर मिल जाती है गंगा में पानी की मात्रा को तो अधिक कर देती है लेकिन दर्द वैसे का वैसा ही रहता है।
वाराणसी प्रात: ही पहुंचकर मन में आया कि जब वाराणसी के घाट पर पहुंचेंगे तो वहां पर गंगा में स्नान करके थोड़ा मन को शान्ति मिलेगी। इसलिए दशाश्वमेध घाट पर पहुंचे पर जैसे ही गंगा में आचमन करते कि पास में ही शहर के अंदर से मल को लेकर दशाश्वमेध घाट और राजेन्द्र घाट के मध्य एक बड़ा नाला जो प्रति सकेण्ड की दर से सैकड़ों लीटर गंदा मल सीधे गंगा की गोद में चीरता हुआ समाहित होता दिखाई दिया। एक मिनट के लिए ऐसा लगा कि मानो मनुष्य ने ठान लिया है कि अब गंगा को समाप्त करके ही दम लेना है। ऐसे गंदे पानी को देखकर मन में तरह-तरह के प्रश्न खड़े हो रहे थे और पास में खड़े लोग भी मन ही मन एक दूसरे को कोस रहे थे । मन में जानने की इच्छा हुई कि ऐसे शहर के कितने गंदे नाले गंगा का घाव बढ़ाते हैं। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
वाराणसी अकेला ऐसा शहर है जहां सबसे ज्यादा 84 घाट हैं। वाराणसी में असी और वरुणा के मध्य 7 किमी. के प्रवाह क्षेत्र में गंगा विराजमान है और इन्हीं नदियों के संगम के कारण इस शहर का नाम वाराणसी पड़ा है। एक समय था जब बनारस क्षेत्र में वरुणा,असी,किरणा,धूतपापाआदि नदियां इसमें मिलकर इसके जल को प्रांजल बनाती थीं। आज असी तो लुप्त ही हो गई बची है तो वरुणा जो आज नाला बन गई है और अपने साथ शहर का विषाक्त जल और मल ढोते हुए गंगा में मिल जाती है। इस 7 किमी. के प्रवाह क्षेत्र में गंगा के हाल पर नजर डालंे तो गंगा की हालत ऐसे लगती है कि वह कह रही है कि अब बस करो,मुझमें अब सहन करने की शक्ति नहीं बची और अब मुझे माफ दो। आंकड़ों पर नजर डालें तो वाराणसी में अकेले 30 से 40 ऐसे बड़े नाले हैं,जो सीवर व मल का गंदा पानी अपने साथ लेकर गंगा को घाव देते हैं। असल में गंगा में नालों को गिराने की अनुमति स्वतंत्रता से पूर्व 1932 में हाकिन्स जो वाराणसी का मंडलायुक्त था ने दी थी, वह आज तक परिपाटी चली आ रही है। अकेले वाराणसी में ही 40 करोड़ लीटर से ज्यादा गंदा पानी गंगा में गिरता है,जिसमें 20 से 25 करोड़ लीटर का ही शोधन हो पाता है।
घाटों पर गंदगी का अंबार
कुल 84 घाटों में कुछ प्रमुख घाटों को छोड़ दें तो अधिकतर घाटों से गंदगी के कारण निकलना तक मुश्किल है। सक्का घाट,पंचकोटि घाट,प्रभु घाट,तेलियर घाट,गाय घाट के पास,नया घाट पर अथाह गंदगी,कूड़ा-कचरा व मल सीढि़यों से लेकर गंगा के पास तक बिखरा पड़ा है और यह हल्की सी ही बारिश में रिस-रिस कर सीधे गंगा में जाता है। दशाश्वमेध घाट पर गंगा सेवा निधि नाम से एक ट्रस्ट है जो शाम की आरती की व्यवस्था देखता है। जब हमने उसके फील्ड मैनेजर किशन कुमार शर्मा से ऐसी गंदगी और गंगा में सीधे सीवर के गिरते नालों पर कुछ जानना चाहा तो तो उनका दो टूक जबाव था कि इसके लिए पूरे तरीके से नगर निगम जिम्मेदार है और नगर की भूमिका यहां बिल्कुल न के बराबर है। जिसके कारण प्रतिदिन गंगा में अथाह गंदगी जाती है। वहीं तेलियर घाट पर 40 सालों से रहने वाले अजय कुमार कहते हैं कि जब नरेन्द्र मोदी गंगा का आशीर्वाद लेने आए थे तब भी इन घाटों पर ऐसे ही अथाह मल के ढेर लगे थे। क्योंकि जब भी कोई प्रमुख व्यक्ति आता है तो दशाश्वमेध और उसके आस-पास के प्रमुख घाटों की सफाई करा दी जाती है। पर इन घाटों पर ऐसे ही गंदगी बिखर पड़ी रहती है।
मल से लबालब घाट
लालघाट,तेलियर नाला,राजेन्द्र घाट, मणिकर्णिका घाट, रविदास घाट, शिवाला घाट के पास भूमिगत नाले हैं,जिनसे शहर का सारा अथाह मल सीधे गंगा की गोद में गिरता है। इस 7 किमी के प्रवाह क्षेत्र में ऐसे दर्जनों नाले हैं,जो शहर का गंदा व विषाक्त जल गंगा में उड़ेलते हैं। हम राजेन्द्र घाट पर ही थे और हल्की बारिश होने लगी इतने में देखा कि पास में एक बड़ा नाला, जो अपने साथ सीवर का पानी लेकर सीधे गंगा के ह्दय को चीरता हुआ उसमें समा रहा है। हमने पास ही में लगे उ.प्र.जल निगम प्लांट के पम्प ऑपरेटर राजकुमार गुप्ता से इस गंदे पानी पर जब पूछा कि यह सीवर का पानी क्यों गंगा में जाने दे रहे हैं तो वे कहते हैं 'यह बारिश का पानी है और इसे मैं नहीं रोक सकता। अगर मैंने इसे रोका तो घाट की जो स्थिति होगी वह आप नहीं समझ सकते।'जबकि चित्र में स्पष्ट है कि नाले से अथाह सीवर का पानी गंगा में समा रहा है। लेकिन जब इस उत्तर से संतुष्टि नहीं हुई तो पास में ही घाट पर फूल लगाए बैठे रामदास कहते हैं कि यह लोग पहले पानी को डम्प कर लेते हैं और शोधित प्लांट को भेेजने के बजाए रात के समय डम्प किए हुए पानी को सीधे गंगा में छोड़ देते हैं। जिससे जनरेटर का तेल बचता है,इसे बेचकर यह अपनी जेब गर्म करते हैं। अब सच क्या है ये तो गंगा और उस प्लांट के लोग ही जानें। पेंग्विन प्रकाशन की पुस्तक 'दर-दर गंगे' की मानंे तो अकेले वाराणसी में प्रतिदिन 75 करोड़ लीटर सीवेज गंगा में सीधे मिलता है। साथ ही कोनिया,दिनापुर,व डिरेका में जो शोधित प्लांट हैं भी इतने पानी को शोधित नहीं कर पाते क्योंकि उनकी क्षमता से कई अधिक गुना यह पानी होता है।
घाटों पर शौचालय न के बराबर
प्रतिदिन इन घाटों पर हजारों लोगों का आना-जाना लगा रहता है,लेकिन 84 घाटों पर कुल तीन ही शौचालय देखने में आए,जो इतनी बड़ी संख्या के लिए नाकाफी हैं। शौचालय के
अभाव में आने-जाने वाले लोग गंगा के किनारे एवं घाटों पर ही गंदगी फैलाते हैं। सक्का घाट पर रहने वाले वेदी गुप्ता कहते हैं कि इन घाटों की पूरे साल में एक ही बार सफाई होती है वह भी देव दीपावली पर।
अन्य प्रदूषित करने वाली चीजें
आंकड़ों के मुताबिक मणिकर्णिका घाट एवं हरिश्चन्द्र घाट पर करीब 33000 शवों के अतिंम संस्कार किये जाते हैं। इसके लिए करीब 1600 टन लकड़ी खाक होती है, जिससे 700 टन राख उत्पन्न होती है जो गंगा में प्रवाहित कर दी जाती है। वहीं करीब 6000 मरे हुए पशु भी गंगा में डाले जाते हैं। साथ ही 3000 टन अधजला मांस भी गंगा को समर्पित कर दिया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े स्वयं बताते हैं कि वाराणसी में पानी के स्तर में बराबर गिरावट दर्ज हो रही है। पेयजल में वायोकेमिकल ऑक्सीजन की डिमांड मानक 3 मिलीग्राम प्रति लीटर होनी चाहिए लेकिन बनारस की गंगा में 5 से 8 मिलीग्राम प्रति लीटर है। इसी कारण जल में औषधीय गुण समाप्त होते जा रहे हैं।
खतरे में गंगा के जलीय-जीव
एक तरफ प्रदूषण तो दूसरी ओर जलीय जीवों का शिकार उनकी जान के दुश्मन बन बैठे हैं। गंगा में कई दुर्लभ प्रजातियां मिलती हैं,जो अब न के बराबर ही रह गई हैं। डाल्फिन,कछुए,सूंस,केंचुए,घडि़याल व इसके अलावा मछलियों की सैकड़ों प्रजातियां गंगा में पाई जाती हैं जो अब न के बराबर ही रह गई हैं।
गंगा की महत्ता
1922 में इंग्लैड के सम्राट एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में जाते समय जयपुर के नरेश सवाई माधो सिंह(द्वितीय) अपने साथ चांदी के दो कलशों में हरिद्वार से गंगा जल भरकर ले गए थे। चालीस साल बाद 1962 में इसे खोला गया तो यह बिलकुल स्वच्छ मिला। गंगा के जल में स्व शोधन की क्षमता अन्य नदियों की तुलना में चार गुना अधिक है। इसमें अनेक विशिष्ट औषधीय गुण समाहित होते हैं। हिमालय से निकलने वाली गंगा में विभिन्न खनिज लवण जैसे जिंक, आयरन, कॉपर,मैग्नीज, कार्बोनेट,बाइकार्बोनेट एवं पेड़ -पौधे व जड़ी बूटियों, दारूहल्दी,खस,द्रोण पुष्पी, नीलगिरि, कुटज, नागदामिनी, सर्पगंधा, ब्राह्मी, मकोय, घृतकुमारी, अपराजिता आदि का सत हिमालय से गंगा निकलने पर इसमें मिलता रहता है,जिससे यह जल सामान्य न होकर विशिष्ट हो जाता है।
गंगा के गुनहगार
हमे समझना होगा कि प्रकृति के शोषण के विरुद्ध किया गया विकास विनासकारी सिद्ध होगा,किसी भी प्रवाहमान जल धारा का 33% जल निर्विघ्न रूप से प्रवाहित होते रहना चाहिए। तभी उसके अस्तित्व की रक्षा सम्भव है।
—डॉ.चन्द्र प्रकाश सिंह
संयोजक,अरुंधती अनुसंधान पीठ,इलाहाबाद
पहले तो गंगा विद्युत परियोजनाओं के बड़े-बड़े बांधों से अपनी जान बचाकर जब मैदानी क्षेत्र की ओर आती है तो जगह-जगह निकली नहरें उसके जल को निचोड़ लेतीं हैं। हरिद्वार से नरौरा के बीच में पांच नहरें सिचाई के नाम पर गंगा का 40160 क्यूसेक पानी निकाल लेती हैं। इसका हश्र ये होता है कि गंगा पानी के अभाव में यहीं से बेदम हो जाती है और पानी की कमी के चलते उसमें वेग ही नहीं रहता। नरौरा के बाद गंगा जैसे तैसे आगे बढ़ती भी है तो आगे उसमें पानी की कमी को पूरा करते हुए बड़े-बड़े नाले अपने साथ करोड़ों लीटर विषाक्त जल और मल लाते हैं और उसे कुरूप बना देते हैं। प्रदूषण बोर्ड के आंकड़ों और आंखों देखे आंकड़ों में काफी भिन्नता नजर आती हैं। कानपुर,उन्नाव,कन्नौज,इलाहाबाद एवं वाराणसी में देखें तो देखने में आता है कि शहर के आस-पास सैकड़ों नाले हैं, जिनसे शहर व टे्रनरियों का विषाक्त जल सीधे गंगा में गिरता है। प्रदूषण बोर्ड के आंकड़ों की मानंे तो 6087 मिलियन लीटर गंदा पानी उत्तराखंड़ से प.बंगाल तक ऐसे ही नालों से गिरता है। बोर्ड के मुताबिक उत्तराखंड में लक्सर नाला,बदायूं नाला,सीसामऊ नाला,वजीदपुर नाला,कानपुर में परमिया नाला, उन्नाव का सिटी जेल नाला ,फतेहपुर में पंडू नाला,मिर्जापुर में खानदहा नाला, इलाहाबाद में रसूलाबाद नाला, वाराणसी में नगवा और वरुणा नाला गंगा में अथाह गंदगी और विषाक्त पानी झोंकते हैं।
द डिपार्टमेंट ॲाफ एटामिक एनर्जी नेशनल सेंटर फॉर कंपोजिशनल कैरेक्टराइजेशन ॲॉफ मैटीरियल्स (एन.सी.सी.एम)ने 2013 में गंगा कुंभ मेले के दौरान लिए गए थे। पानी जांच करने पर पाया गया कि पानी में कैंसर कारक तत्व मौजूद हैं। असल में ये जहरीले तत्व की अधिकतम मात्रा कानपुर की फैक्ट्रियों से आती है। यह संस्था भाभा एटामिक रिसर्च संेटर के अन्तर्गत काम करती है।
यह सत्य है कि विनाश से जुड़ा विकास फलदायी नहीं होता । सरकारों के लोभ का पर्याय उत्तराखंड का टिहरी बांध भी फलदायी नहीं है। क्योंकि भू-वैज्ञानिकों की मान्यता के विपरीत खतरनाक भूकम्पीय क्षेत्र में टिहरी बांध है7 अगर भविष्य में कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो राख के पहाड़ टूटेंगे,जिससे बंाध टूटेगा और नीचे हाहाकार की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। इस कारण इसे विकास नहीं बल्कि विनाश को आमंत्रित करने वाला कहा जाता सकता है।
—प्रो. ओम प्रकाश सिंह, निदेशक, महामना मदनमोहन मालवीय पत्रकारिता संस्थान,वाराणसी
पैसा बहाने से नहीं धारा बहाने से बचेगी गंगा
उत्तर प्रदेश में दशकों से गंगा पर नजर रखे हुए एवं लंबे समय तक बी.बी.सी से जुड़े रहे रामदत्त त्रिपाठी ने पाञ्चजन्य से खास बात करते हुए कहा कि असल में समस्या यह है कि गंगा के लिए जितनी भी योजनाएं बनती हैं वे सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहती हैं। सफाई के नाम पर राज्यों को जो भी पैसा मिलता है वह शासन-प्रशासन,इंजीनियरों और ठेकेदारों की भेंट चढ़ जाता है,जिससे गंगा का स्वरूप वैसा ही बना रहता है। हमारी सरकारें शहरीकरण को बढ़ावा दे रहीं हैं। उससे इतना अधिक सीवेज निकलता है जो अन्तत: सीधे गंगा और यमुना में ही डाल दिया जाता है। अब ऐसी परिस्थिति में गंगा कैसे निर्मल होगी? हमारी सरकारों को कृषि,ऊर्जा शहरीकरण जैसे क्षेत्रों पर स्पष्ट नीति के साथ चिंतन करना होगा। साथ ही गंगा की सहायक नदियों को प्रदूषित होने से बचाना होगा क्योंकि गंगा इन्हीं के संगम से बनती है। हमारी आशा है कि गंगा एक्शन प्लान में जो गलतियां हुईं हैं वो उमा भारती से नहीं होगी। क्योंकि पैसा बहाने के बजाए पानी बहाने से गंगा निर्मल होगी। आज तक हम अंग्रेजों की परम्परा पर ही चलते आए हैं,उन्होंने नहरों की शुरुआत की तो हम उसे आज तक आगे बढ़ाते जा रहे हैं। अंग्रेजों ने गंगा के पास टे्रनरियां लगाने की परम्परा जो डाली आज भी हम उसे ढोते आ रहे हैं। हमें अंग्रेजी नीति को बदलकर देश की संस्कृति और गंगा की अविरलता और निर्मलता बनाये रखने पर जोर देना होगा।
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