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मुल्ला-मौलवियों के आतंक और उनकी तथाकथित अदालतें बनाम पंथ आधारित जमातों के फैसलों से मुस्लिम समाज को कितने मानवीय कष्ट झेलने पड़ते हैं यह जानने और समझने की आवश्यकता पड़े तो सहारनपुर की इमराना,मेरठ की गुडि़या और भद्रक की नजमा से जाकर अवश्य पूछना चाहिए। उन जैसी असंख्य दुर्भाग्यशाली युवतियों की दिल हिला देने वाली जीवन की सच्ची घटनाओं को जानना हो तो अरुण शौरी द्वारा लिखित पुस्तक 'द फतवाज' के कुछ पन्ने अवश्य पलट लें जिसे पढ़कर इस बात का अनुमान हो जाएगा कि देश की सर्वोच्च अदालत ने हिन्दुस्तान की मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में कितना बड़ा काम किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपना बहुप्रतीक्षित फैसला दिनांक 9 जुलाई को सुनाकर मुस्लिम महिलाओं को बड़ी राहत पहुंचाई है। यद्यपि इस ऐतिहासिक फैसले का कोई बहुत अधिक महत्व हमारे मौलानाओं के लिए नहीं है, लेकिन उन्हें इस बात का अहसास अवश्य हो गया है कि आज नहीं तो कल स्वतंत्र भारत में कानूनी आजादी रंग लाएगी। 9 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया फैसला भारतीय मुसलमानों को यह विश्वास दिला देगा कि उनके दुखों का अंत निकट है। कोई स्वार्थी और समाज का ठेकेदार अब उनके आंतरिक जीवन में आग नहीं लगा सकेगा? इस बात पर भी भरोसा हो जाएगा कि आज नहीं तो कल इस देश में समान नागरिक कानून आकर रहेगा। अदालत का दो टूक फैसला था कि न्याय के मामले में गैर अदालती संस्थाओं को किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होगा। पति पत्नी के मामले में किसी भी तीसरी बाह्य ताकत को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा। न्यायधीश मदन मोहन की पीठ ने अपना निर्णय देते हुए कहा कि काजियों की संस्था जिसे दारूल कजा कहा जाता है वह उस समय तक कोई राय अथवा आदेश नहीं दे सकती जब तक उससे इस संबंध में पूछताछ न की जाए। पति पत्नी के मामले में कोई भी तीसरा व्यक्ति तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकता जब तक कि उनमें से कोई एक अथवा दोनों बाहर वालों की सहायता लेना न चाहें। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का स्वागत अनेक संगठनों ने और देश के जाने माने मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने किया है। यानी दूसरे शब्दों में विवाह और तलाक के कानून सभी भारतीयों के लिए समान हों ताकि समान नागरिक कानून का मार्गप्रशस्त हो, लेकिन मुस्लिम मौलाना यह मानने के लिए तैयार नहीं, यदि वे इस मार्ग को नहीं अपनाते हैं तो फिर मुस्लिम महिला को सुरक्षा किस प्रकार मिल सकती है? समान नागरिक कानून को स्वीकार करना ही केवल इसका स्थायी हल है। इसलिए मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा वर्ग सर्वोच्च न्यायालय की इस व्यवस्था को नकार तो नहीं रहा है लेकिन समस्त नागरिकों के लिए समान कानून हो यह भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
एक फतवा पति-पत्नी को पराया कर देता है। लेकिन मौलाना और तथाकथित मौलवियों के आगे किसकी चलती है? हलाला करने वाले मौलाना दोनों समय-निकाह करने और फिर तलाक देते समय एक बड़ी रकम इन बेचारी मजबूर महिलाओं से ऐंठते हैं। देश की अनेक मुस्लिम बस्तियों में ऐसे अड्डे हैं जहां हलाल की कमाई खाने वाले मौलाना रहते हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय का वर्तमान फैसला एक क्रांतिकारी निर्णय है। समस्त समझदार और नेक नीयत मुसलमान इसकी प्रशंसा कर रहे हैं। -मुजफ्फर हुसैन
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