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आवरण कथा से संबंधित- अंतत: बनेगा राष्ट्रीय युद्ध स्मारक

by
Jul 12, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Jul 2014 16:39:56

एक लंबे अंतराल के बाद राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के निर्माण को लेकर केन्द्रीय बजट में बड़ी घोषणा हो गई। वित मंत्री अरुण जेटली ने राष्ट्रीय युद्ध स्मारक और संग्रहालय के लिए 100 करोड़ रुपये का प्रस्ताव रखा। जाहिर है, वित मंत्री की इस घोषणा से उन तमाम सैनिकों और देशवासियों को राहत मिलेगी जो स्मारक का इंतजार कर रहे हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि देश एक अदद राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के लिए आधी सदी से इंतजार कर रहा है।
कुछ दिन पहले भारत-चीन युद्ध के नायक से.नि. कर्नल वीएन थापर से मुलाकात हुई। वे कारगिल युद्ध में शहीद हुए अपने बेटे विजयंत थापर के नाम पर बनी नोएडा की एक सड़क पर लगे तमाम पोस्टरों को उखाड़ कर लौटे थे। हर हफ्ते उनका यह तय कार्यक्रम होता है। दरअसल, उस सड़क पर, जहां शहीद विजयंत थापर का नाम लिखा है, पोस्टर लगा दिए जाते हैं। डबडबायी आंखों से कर्नल थापर कहने लगे, युद्ध के बाद शहीदों की कुर्बानी अक्सर भुला दी जाती है। सिर्फ करीबी रिश्तेदार और दोस्त ही उन्हें याद करते हैं। वह आंखें पोंछें, उससे पहले उनकी पत्नी तृप्ता थापर शिकायती लहजे में बोल पड़ती हैं,
अपने योद्घाओं को याद करने के लिए हम एक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक तक नहीं बना सके। इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है। अलबत्ता, इसे लेकर बातें और वादें खूब
होते हैं।
वाजिब शिकायत
इस बात को लेकर जरूर सवाल उठना चाहिए कि युद्ध स्मारक बनाने का फैसला लेने में इतना वक्त क्यों लगा। पूछा जा सकता है कि जब एशियाई खेलों से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों तक के आयोजन में भारी धनराशि खर्च हो सकती है, तो फिर शहीदों की याद में स्मारक बनाने के रास्ते में क्या चीज आड़े आ रही थी। अब सरकार को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक को बनाने में विलंब से बचना होगा।
आजादी के बाद देश की सेनाओं ने चीन के खिलाफ 1962 में और पाकिस्तान के खिलाफ 1948, 1965, 1971 और 1999 में जंग लड़ी। 1987 से 1990 तक श्रीलंका में ऑपरेशन पवन के दौरान भारतीय शांति सेना के शौर्य को भी नहीं भुलाया जा सकता है। 1948 में 1,110 जवान, 1962 में 3,250 जवान, 1965 में 364 जवान, श्रीलंका में 1,157 जवान और 1999 में 522 जवान शहीद हुए। ऐसे जवानों की भी कमी नहीं है जो अलगाववाादियों को पस्त करते हुए शहीद हुए, लेकिन बदले में बेरुखी के अलावा और कुछ नहीं मिला।
हालांकि कुछ लोग युद्ध स्मारक को बनाने के पक्ष में नहीं हैं। वे मानते हैं कि यह एक तरह से भारत का अमरीकरण करने की दिशा में एक और कदम होगा। वे युद्ध स्मारक की मांग को सिरे से खारिज करते हैं। उनका मानना है कि युद्ध स्मारक के अपने आप में दो पहलू हैं। पहला, शहीदों को याद रखना। दूसरा,युद्ध के विचार को जीवित रखना। क्या दूसरे विचार को सही माना जा सकता है। कतई नहीं। जंग की विभीषिका के विचार को खत्म करना होगा।
बहरहाल, यह भी एक राय है। पर देश तो चाहता है कि युद्ध स्मारक बने। कहने की जरूरत नहीं कि रणबांकुरों को लेकर कुल मिलाकर सरकारों का रुख बेहद ठंडा रहा है। इससे अधिक निराशाजनक बात क्या हो सकती है कि पाठ्यपुस्तकों में उन युद्धों पर अलग से अध्याय तक नहीं हैं, जिनमें हमारे जवानों ने जान की बाजी लगा दी। हां, गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस के मौके पर जवानों को याद करने की रस्म अदायगी हम जरूर कर लेते हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि अब सेना को नीचे दिखाने की चेष्टा हो रही है। सुकना और आदर्श घोटालों के चलते सेना के तीन अंगों को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश की गई । मतलब, सेना के प्रति सम्मान का भाव रखना तो दूर, अब उसे खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब लुधियाना के मुख्य चौराहे पर 1971 की जंग के नायक शहीद फ्लाइंगऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों की आदमकद मूर्ति के नीचे लगी पट्टिका को उखाड़ दिया गया था। काफी दिनों के बाद ही नई पट्टिका लगाने की जरूरत महसूस की गई। जबकि लुधियाना सेखों का गृहनगर है और अदम्य साहस और शौर्य के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
सेखों के भतीजे अवतार सिंह कहते हैं, लंबी जद्दोजहद के बाद लुधियाना प्रशासन ने पट्टिका लगाने के बारे में सोचा। यह सिलसिला यहीं नहीं थम जाता। मोदीनगर (उत्तर प्रदेश) में 1965 युद्ध के नायक शहीद मेजर आशा राम त्यागी की मूर्ति देखकर तो किसी भी सच्चे भारतीय का कलेजा फटने लगेगा। इस तरह से दिल्ली सरकार ने भी शायद ही कभी कोशिश की हो कि 1971 की जंग के नायक अरुण खेत्रपाल के नाम पर किसी सड़क या अन्य स्थान का नामकरण किया जाए।
कारगिल युद्ध के बाद राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के निर्माण की मांग ने जोर पकड़ा। हालांकि चीन के खिलाफ जंग के बाद भी स्मारक बनवाने की मांग हुई थी। पहले स्मारक को इंडिया गेट परिसर में बनी छतरी के पास ही बनाने की बात थी। पर अब इसे नेशनल स्टेडियम से सटी जगह पर बनाया जाएगा। इस पर करीब 50 हजार शहीदों के नाम अंकित करने का प्रस्ताव है। इसमें वे शहीद भी शामिल होंगे जो अलगाववादियों से मुकाबला करते हुए शहीद हुए। खैर, यह अफसोस की बात तो है कि अंग्रेजों ने विश्व युद्ध में शहीद भारतीय सैनिकों की याद में इंडिया गेट बनवाया। वहां सभी शहीदों के नाम अंकित हैं, पर हमें अपने योद्घाओं के लिए स्मारक बनाने के लिए इतना वक्त लगा।
कहते हैं देर आयद पर दुरुस्त आयद। राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के निर्माण पर फैसला लेकर केंद्र सरकार ने शायद इसी कहावत को चरितार्थ किया है। राष्ट्रीय युद्ध स्मारक और संग्रहालय की डिजाइन जाने माने आर्किटेक्ट चार्ल्स कोरिया तैयार करेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रीय युद्ध स्मारक जब बनकर तैयार होगा तो वह भव्य और शानदार होगा। शायद तभी हम साबित कर पाएंगे कि इस मुल्क में शहीदों की अनदेखी नहीं होती।
-विवेक शुक्ला

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