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कुरुक्षेत्र की पावन भूमि आदिकाल से ही प्रसिद्घ रही है। जहां अनेक ऋषिमुनियांे ने इसे अपने तप व त्याग से पवित्र किया है। पुराणों में वर्णन किया है कि कुरुक्षेत्र में दान-पुण्य करने का फल अन्य तीर्थों के मुकाबले 13 गुणा ज्यादा प्राप्त होता है। ऐसी भी मान्यता है कि इस भूमि पर मृत्यु के बाद पुनर्जन्म नहीं होता और व्यक्ति जीवन और मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। कुरुक्षेत्र में सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग चारों युगों के तीर्थ हैं। ऐसे स्थल जहां ऋषिमुनियों ने तपस्या की वे तीर्थस्थल आज भी उन्हीं ऋषिमुनियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसे सर्वतीथार्ें में अग्रजन्मा व नर्दक यानी निष्पाप भूमि भी कहा जाता है। पक्षिराज गरुड़ ने इस स्थली पर तपस्या करके विष्णु से हरियान पद पाया था और इसी कारण से कुरुक्षेत्र की भूमि को हरियाणा भी कहा जाता है। विद्वानों का मानना है कि जहां हरियाणा हरित प्रदेश का प्रतीक है, वहीं हरियान पद से विभूषित होकर भी इसे हरियाणा पुकारा जाने लगा। राजा कुरु ने तप त्याग और तितिक्षा से युक्त होकर इस भूमि पर हल चलाया, इसी कारण इस स्थान का नाम कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्घ हो गया। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर विश्व के कल्याण के लिए श्रीमद्भगवद् गीता का संदेश भी इसी पवित्र भूमि पर दिया। भीष्म पितामह और परशुराम के मध्य घोर संग्राम भी यहीं हुआ। भगवान वेदव्यास ने पंचमवेद महाभारत की रचना भी यहीं पर की। महाराज मनु के अनुसार सरस्वती नदी तथा द्विष्वति नदी का मध्यवर्ती क्षेत्र ही कुरुक्षेत्र का परिधि क्षेत्र है, जो 48 कोस में फैला है और इसमें अनेक तीर्थ स्थान आते हैं। जो अपने-अपने महत्व को स्वयं दर्शाते हैं और उनका विवरण पुरातन ग्रन्थों में मिला है। वर्तमान में पूर्व-उत्तर में यमुना व सरस्वती, दक्षिण में पानीपत एवं जींद, पश्चिम में पटियाला, का मध्य भाग है। कहा जाता है कि राजा कुरु ने इस क्षेत्र को आध्यात्मिक ज्ञान, विज्ञान एवं संस्कृति का केंद्र बनाया और सातवीं सदी में राजा हर्षवर्धन ने यहां थानेसर को अपनी राजधानी बनाया।
पवित्र नदियां और वन
इस पवित्र भूखंड में ऐसी अनेकों नदियां हैं, जिनमें कभी अथाह जल हुआ करता था। इन नदियों में से सरस्वती नदी की मौजूदगी तो प्रमाणित भी हो चुकी है। उसके वैज्ञानिक प्रमाण भी लोगों के सामने आ चुके हैं। सरस्वती के पृथ्वी के भूगर्भ में प्रवाहित होने के संकेत भी मिले हैं। इसे दुबारा धरा पर लाने के लिए कुछ प्रयास भी किए जा रहे हैं, लेकिन इस क्षेत्र में सरस्वती के अलावा और भी ऐसी नौ नदियां हैं। जो बिल्कुल लुप्त हो चुकी हैं। इस स्थान पर कभी 09 नदियां होने के प्रमाण मिले थे। जिनमें वैतरणी नदी पूंडरी के पास, अपगा नदी कैथल के गदली गांव के पास, अंशुमती कैथल में ही प्रसिद्घ हनुमान मंदिर के पास, कौशिकी गांव म्यौली के पास, दृषदवती फरल से ईशान कोण में, चित्रांगदा चोर कारसा व चोचड़े के बीच में हैं, जबकि स्वर्णगंगा अधली, बरणावती थानेसर के बारणा गांव के पास है, जिसका अरुणाय के पास सरस्वती नदी में संगम होने का प्रमाण मिलता है। वर्षा ऋतु में उपरोक्त नदियों के प्रवाह के चिन्ह होने की बात भी बताई गई है। लोगों का मानना है कि यदि यहां अनुसंधान किया जाए और शास्त्रानुसार बताए गए स्थानों पर संबंधित विभाग खोज करें तो इन नदियों को दुबारा जीवित किया जा सकता है।
जीवन के सभी चक्र मौजूद हैं इस धरा पर
7 वन, 7 चक्र, 7 स्थल, 7 स्थली, 7 कूप का दर्शन कहते हैं कि जो ब्रह्मांड में है वह सब हमारे शरीर में मौजूद है, मानव शरीर में जो सातों चक्र बताए गए हैं वे सब कुरुक्षेत्र की इस पावन भूमि में अपनी मौजूदगी दिखा रहे हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से व्यक्ति पर इनका जो प्रभाव पड़ता है वह सर्वविदित है, लेकिन जिस प्रकार इस भूखंड पर संपूर्ण सृष्टि के दर्शन को दर्शाया गया है, उससे इसकी महत्ता और भी ज्यादा प्रकट होती है।
कुरुक्षेत्र की भूमि पर सात वन-अदिति वन, व्यास वन, देव वन, फलकी वन, सीता वन, मधुवन काम्यकवन आदि हैं।
मूलाधार चक्र-सीवन गांव में, स्वाधिष्ठान चक्र- सोंथा गांव में, मणिपुर चक्र- मुस्तापुर में, विशुद्घि चक्र- कोहा की पाल में, अनाहत चक्र- हवतपुर गांव, आज्ञा चक्र- आहंू गांव में और चक्रव्यूह चक्र- अमीन गांव में बताए गए हैं।
इसके अलावा कपिस्थल- कैथल में, गोमती स्थल- गुमथला में, वटस्थल- बड़थल, भूर्भुव: स्थल- भैंसी माजरा, ब्रह्मस्थल- थाणा, कर्ण स्थल- कर्ण का उजड़ खेड़ा एवं यज्ञस्थल- सीतामाई में बताया गया है।
इस पवित्र स्थली पर अंजनस्थली- अंजनथली, व्यास स्थली-बस्थली, गौड़ स्थली-गुड़थली, पुलस्त्य स्थली- पोलड़थे, रेणुका स्थली- हरनायचा(अरणैचा), मंकण स्थली-मांगणा, श्री स्थली- मटौर में हैं।
इस क्षेत्र में सात कूप चंद्रकूप-कुरुक्षेत्र, देवीकूप-थानेश्वर, रुद्रकूप-शेरगड़, व्यासकूल-बसथली, गंगाकूप-मांगणा, मधुश्रवाकूप- पिहोवा, कोटी त्रयेदेवकूप- थानेसर से 4 कोस अस्तिपुर के जंगल में, कौंत कूप- कोहा की पाल नाम से विख्यात है।
गीता स्थली ज्योतिसर में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाया था ज्ञान का मर्म भगवान श्रीकृष्ण की कर्मभूमि कुरुक्षेत्र से करीब पांच किलोमीटर की दूरी पर ज्योतिसर नामक स्थान है। महाभारत युद्ध के दौरान जब अर्जुन युद्ध से विमुख हो गए तब भगवान कृष्ण ने उन्हें गीता के ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा 'हे अर्जुन विचलित न हो अपने कर्तव्य का पालन करो '
ज्योतिसर 2 शब्दों से बना है, जिसमें ज्योति से अभिप्राय ज्ञान व सर से अभिप्राय स्थली है, इसी तरह इसे ज्योतिसर के नाम से जाना गया है। यहां रथ पर सवार भगवान कृष्ण की प्रतिमा मौजूद हैं और साथ में सरोवर भी स्थित है। महाभारत का धर्मयुद्घ 5500 वर्ष पूर्व लड़ा गया और उस समय भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जो गीता का ज्ञान दिया था, उसका साक्षा वटवृक्ष आज भी यहां अटल खड़ा हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को इस वृक्ष के नीचे खड़े होकर श्रीमदभगवदगीता का उपदेश दिया था। दूर दराज से रोजाना हजारों की संख्या में श्रद्धालु इस वट वृक्ष के दर्शनों के लिए आते हैं और मन्नत मांगते हैं। वे वृक्ष की टहनियों पर परांदे बांधकर यहां मन्नत मांगते हैं। जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो वे यहां पर फिर से दर्शनों के लिए आते हैं। यहां पर वट वृक्ष के बढ़ने के बाद उनकी संख्या हो गई है। वृक्ष के मध्य में ही भगवान शिव का मंदिर भी मौजूद है। यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है। जिसे मोहम्मद गौरी ने तोड़ दिया था। भवन तो उसने तोड़ दिया लेकिन भगवान की प्रतिमा आज भी यहां पर है धीरे-धीरे मंदिर के चारों तरफवट वृक्ष ने आकार ले लिया।
हजारों वर्ष गुजरने के बाद भी वटवृक्ष ऐतिहासिक धरोहर के रूप में बना हुआ है, लेकिन चकाचौंध और सौंदर्य वृक्ष के स्थायित्व व अस्तित्व पर भारी पड़ रही है। जिसे संभालना अति आवश्यक है। प्रशासन ने वृक्ष के चारों ओर मार्बल लगाकर सुंदरता और वृक्ष के पत्तों पर जाल डाल दिया है ताकि उस पर पक्षी न बैठें और नीचे का स्थान गंदा न हो।
इसको लेकर श्रद्धालुओं में रोष है उनका कहना है कि वट वृक्ष दीर्घायु तभी रह सकता है, जब आस-पास की भूमि कच्ची हो ताकि ऊपर की टहनियों से लटकती उसकी जटाएं वृक्ष को सहारा दे सकें और उसके लिए नए तने का निर्माण कर सकें। ऐसे में यहां मार्बल लगाए जाने से वटवृक्ष की जटाएं जमीन में नहीं जा पा रही हैं। जिससे वटवृक्ष कमजोर पड़ गया है। दूसरी तरफ वटवृक्ष पर बिछे जाल के चलते इस पर पक्षी नहीं बैठ सकते, प्रशासन की इस मानसिकता को लेकर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं।
यहां आने वाले श्रद्धालुओं का कहना है कि सौंदर्यीकरण होना चाहिए लेकिन ऐसे सौंदर्यीकरण का कोई लाभ नहीं जिसके कारण महाभारत के साक्षी इस वटवृक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए और भावी पीढ़ी इसे निहारने से वंचित हो जाए। डा. गणेश दत्त वत्स (हरियाणा)
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