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महाराज वीर सिंह ने कहा कि राजकुमार भले ही मेरा पुत्र हो लेकिन जो अपराध उसने किया है उसके लिए केवल एक ही दंड है और वह है मृत्युदंड, इसलिए उसे मृत्युदंड दिया जाता है।
मृगों का कोई झुंड इस ओर आया है साधु! बेतवा के कगार पर ध्यान-मग्न महात्मा की शांति को भंग करते हुए ओरछा के राजकुमार प्रवीरराय ने उनसे प्रश्न किया, अपने घोड़े पर बैठे ही बैठे। हां, अभी-अभी कुछ मृग इस कुंज में आए हैं। क्यों, क्या बात है ? महात्मा ने आंखें खोलते हुए उससे पूछा।
उन्हें बाहर निकाल दो, मुझे उनका शिकार करना है। राजकुमार ने कहा। नहीं, युवराज ! तपस्वी ने उत्तर दिया 'इस वन में शिकार खेलना मना है, तुम लौट जाओ।' राजकुमार तो आखिर राजकुमार था उसे यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि एक साधु उसे नसीहत दे। उसकी त्योरियां चढ़ गईं। वह घोड़े से नीचे उतरा और म्यान से तलवार बाहर खींच ली। कहां हैं मेरे मृग? वह चिल्लाया, 'बता दे नहीं तो तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।'
महात्मा मौन थे। कुमार की मुट्ठी तलवार की मूठ पर कस गई। वह आगे बढ़ा। महात्मा के मुख पर हास्य की एक क्षीण रेखा पड़ी। दूसरे ही क्षण उनका सिर धड़ से अलग होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और बेतवा की धारा में बह गया। ओरछा के नरेश अपने महल की छत पर टहल रहे थे। टहलते हुए उन्होंने कुछ सैनिकों को दबी आवाज में फुसफसाहट करते हुए सुना। कौन है? उन्होंने पुकारा। बातें करने वाले सैनिक छत पर आए। वह डर के मारे कांप रहे थे। क्या बात है? वीरसिंह ने पूछा।
एक सैनिक बोला, महाराज बेतवा में एक महात्मा की हत्या कर दी गई है। वीरसिंह बोले, किसने किया। राजकुमार ने महाराज! प्रवीरराय ने पूछा क्यों?
सैनिक ने संक्षेप में सारी घटना महाराज वीरसिंह को बता दी।महाराज वीरसिंह की आंखें क्रोध से लाल हो उठीं। उन्होंने आदेश दिया, कुमार को तत्काल बंदी बनाकर कैद में डाल दिया जाए। कल उसका न्याय होगा। प्रवीरराय को बंदी बनाकर कैद में डाल दिया गया।
वीरसिंह शयन के लिए गए तो पलंग पर पड़े-पड़े करवटें बदलते रहे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। क्या बात है प्रभु! महारानी पंचम कुंवरि ने पूछा। महाराज बोले, रानी यदि कोई व्यक्ति किसी निरपराध तपस्वी की हत्या कर दे तो उसे क्या दंड दिया जाए? रानी ने कहा, प्राण दंड महाराज। यदि हत्यारा राज्य का कोई प्रमुख व्यक्ति हो तो? 'न्याय की दृष्टि में सभी समान हैं महाराज' रानी ने उत्तर दिया। वीरसिंह ने कहा, ठीक है कल एक ऐसा ही न्याय मुझे करना है।
दूसरे दिन महात्मा की हत्या किए जाने की बात सभी की जिह्वा पर थी। न्याय का दिन आया तो सारी प्रजा राजमहल में एकत्रित हो गई। राजा वीरसिंह रघुनाथ जी के मंदिर में चबूतरे पर बैठे थे। बंदी राजकुमार सैनिकों से घिरे हुए खड़ा था।
'तुमने महात्मा की हत्या की है प्रवीरराय ?' महाराज ने राजकुमार से पूछा। राजकुमार बोला, हां लेकिन उन्होंने मेरे मृगों को अपने कुंज में छिपा लिया था।' 'किंतु क्या तुम्हें यह पता नहीं था कि उस वन में शिकार खेलना निषेध है ? महाराज ने पुन: पूछा। राजकुमार कुछ नहीं बोला। वीरसिंह ने कड़कती आवाज में सैनिकों को आज्ञा दी, इसे सामने खड़े हुए दोनों खंभों के बीच में बांध दिया जाए। सारी प्रजा और राजदरबारी वहां खड़े होकर महाराज का न्याय देख रहे थे। सैनिकों ने राजकुमार को खंभों के बीच में बांध दिया।
महाराज वीर सिंह ने कहा कि राजकुमार भले ही मेरा पुत्र हो लेकिन जो अपराध उसने किया है उसके लिए केवल एक ही दंड है और वह है मृत्युदंड। इसलिए उसे मृत्युदंड दिया जाता है। इसी के साथ महाराज ने तलवार निकाली और राजकुमार की गर्दन काट दी। बंुदेलखंड की राजधानी ओरछा के महल में उस खंडहर में खड़े वे दोनों खंभे आज भी वीरसिंह के न्याय के गीत गा रहे हैं। ऐसी न्यायप्रियता भारतवर्ष के अलावा शायद ही कहीं ओर देखने को मिले।
ल्ल बाल चौपाल डेस्क
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