|
नई दिल्ली। स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) पर आई खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट के बाद विदेशी फंड पर चलने वाली एनजीओ ने लॉबिंग शुरू कर दी है। उनकी तरफ से एक सुर में कहा जाने लगा है कि मोदी सरकार का मकसद एनजीओ पर लगाम लगाना है। इसके लिए गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए 9 सितंबर 2006 में एनजीओ को लेकर दिए गए नरेंद्र मोदी के भाषणों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने एनजीओ संचालकों को 'नोबल पिपुल' और 'फाइव स्टार एक्टिविस्ट' कहा था और यह भी जोड़ा था कि देश में आज एक एनजीओ इंडस्ट्री खड़ी हो गई है, जिनकी इमेज बिल्डिंग के लिए बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसियों की सहायता ली जा रही है।
विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ इंडस्ट्रीज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमलावर हो, लेकिन एक दूसरा सच यह भी है कि आईबी ने इनकी जांच पूर्व सत्ताधारी यूपीए सरकार के कहने पर की थी, जो खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् बनाकर देश की सारी योजनाओं को एनजीओ के हवाले करने में शामिल रही हैं। आईबी की रिपोर्ट को छोड़ भी दें तो हम पाते हैं कि पिछले 10 सालों में विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ की पूरी कार्यप्रणाली देश की विकास परियोजनाओं में रोड़ा अटकाने वाली रही है। मानवाधिकार, पर्यावरण सुरक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता, असमानता आदि के नाम पर देश की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को रोका गया है, चाहे वह गुजरात में नर्मदा नदी पर बनने वाली सरदार सरोवर परियोजना हो या फिर तमिलनाडु में परमाणु ऊर्जा संयंत्र वाली कुडनाकुलम परियोजना। आईबी ने अपनी रिपोर्ट में 7 बुनियादी संरचना से जुड़ी परियोजनाओं का उदाहरण दिया है, जो सिर्फ एनजीओ की अगुवाई में हुए विरोध प्रदर्शन के कारण रुकी हुई हैं।
इनकी पूरी गतिविधियों को तथ्यात्मक दृष्टिकोण से देखने पर प्रमाणित हो जाता है कि कुछ बड़े एनजीओ समाज सेवा में कम, विदेशी एजेंट की भूमिका में ज्यादा सक्रिय हैं। विदेशी एजेंट होने का आलम यह रहा कि विदेशी सहायता नियमन कानून (एफसीआरए) का उल्लंघन कर बिना पंजीकरण वाली कबीर एनजीओ को अमरीका की फोर्ड फाउडेशन कंपनी ने लाखों डॉलर का चंदा दे दिया। बाद में इसी कबीर के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने पहली एनजीओ कार्यकर्ताओं वाली सरकार देश की राजधानी दिल्ली में बनाकर यह दर्शा दिया कि अमरीका व यूरोप न केवल देश की विकास परियोजनाओं को रोकने में सफल हो रहे हैं, बल्कि इन एनजीओ इंडस्ट्रीज के बल पर भारत के अंदर सरकार निर्माण तक की क्षमता हासिल कर चुके हैं।
यहां हम कुछ ऐसे ही एनजीओ और एनजीओकर्म्िायों पर प्रकाश डाल रहे हैं, जो हाथी के दांत के सदृश दिखते तो समाज सेवा करते हुए हैं, लेकिन जिनकी वजह से विकास की परियोजनाएं या तो ठप पड़ी रहीं या फिर उनकी लागत और समय की बर्बादी हुई या फिर इन्होंने उस परियोजना का समर्थन करने वाली चुनी हुई सरकार को ही अस्थिर करने का अभियान छेड़ दिया है। आरटीआई के दायरे में नहीं आना, जवाबदेही तय नहीं होना और वित्तीय अनियमितता के कारण इन एनजीओ के असली मकसद से जनता अनजान रहती है। आईबी की इस रिपोर्ट को एनजीओ पर प्रतिबंध लगाने के दुष्प्रचार से इतर यदि हम सकारात्मक रूप से लें तो यह सरकार को एक मौका उपलब्ध कराती है कि वह एनजीओ को जवाबदेह व पारदर्शी बनाए एवं उन्हें सूचना कानून के दायरे में लाए ताकि अच्छे और नेक नीयत से काम करने वाले एनजीओ को और बेहतर तरीके से काम करने का अवसर उपलब्ध हो सके।
ग्रीनपीस का दावा, विदेशी धन के कारण ही हम सत्ता को चुनौती देने में सक्षम होते हैं।
आईबी ने जिस ग्रीनपीस एनजीओ को देश के विकास का अवरोधक बताया है, वह एक इंटरनेशनल एनजीओ है और पर्यावरण की दिशा में काम करता है। आईबी ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को सलाह दी है कि ग्रीनपीस को विदेशी फंड लेने की दी गई इजाजत वापस ले ली जाए। ग्रीनपीस को मिलने वाले विदेशी चंदे को प्राथमिक सूची में डाला जाए ताकि पैसे का कोई भी लेन देन बिना इजाजत के संभव न हो सके। इस रिपोर्ट में कोयला खदान,ऊर्जा परियोजना, परमाणु ऊर्जा प्लांट के खिलाफ अभियान चलाने वाले 12 विदेशियों के नाम भी हैं, जो ग्रीनपीस सहित कुछ अन्य एनजीओ से सीधे जुड़े हुए हैं। आईबी की रिपोर्ट कहती है कि ग्रीनपीस ने देशभर में परमाणु प्लांट विरोधी माहौल तैयार किया। इतना ही नहीं, कोयला खनन को रोकने और कोल आधारित पावर प्लांट को रोकने का भी इसने जबरदस्त प्रयास किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीनपीस का अगला निशाना इंडिया के आईटी सेक्टर को रोकना है और इसे वह ई-कचरा के निस्तारण के नाम पर करने जा रही है।
दूसरी तरफ ग्रीनपीस इंडिया के कार्यकारी निदेशक समित आइच ने एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में आईबी के दावे को गलत बताया है और कहा है कि यह ग्रीनपीस इंडिया पर सुनियोजित हमला है। विदेशी फंडिंग पर नियमों के उल्लंघन मामले पर उनका कहना है कि रक्षा, खुदरा और मीडिया समेत सभी क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लाना और एनजीओ को विदेशों से मिलने वाली वित्तीय सहायता को संदेह की दृष्टि से देखना ठीक नहीं है। एनजीओ के लिए विदेशी फंडिंग दिक्कत बन जाती है, क्योंकि वे सत्ता को चुनौती देते हैं।
वैसे एक उदाहरण से ग्रीनपीस की विकास विरोधी गतिविधियों को समझा जा सकता है। हाल ही में मध्यप्रदेश के सिंगरौली में बड़ी संख्या में वनवासियों ने पर्यावरण को लेकर महान एल्युमिनियम परियोजना का विरोध कर रहे ग्रीनपीस के कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन कर अपना विरोध जताया था। प्रदर्शन में शामिल होने आए अमीलिया, नगवा, करकुआ एवं विधेर गांव के वनवासियों के हाथ में तख्तियां थीं, जिन पर 'ग्रीनपीस वापस जाओ, वापस जाओ,' 'ग्रीन पीस कहां से लाते हो पैसा, विकास में बनते हो बाधा' आदि नारे लिखे हुए थे। प्रदर्शनकारी वनवासियों का कहना था कि ग्रीनपीस महान परियोजना का विरोध कर हमें विकास से महरूम कर रही है। इनके कारण यदि इस परियोजना से जुड़ी कंपनी हिंडाल्को बंद हो गई तो वनवासियों के समक्ष रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जायेगा।
ग्रीनपीस हिंडाल्को की जिस महान एल्युमिनियम परियोजना का विरोध कर रही है, उसकी लागत करीब 9,200 करोड़ रुपये है। इस एल्युमिनियम स्मेल्टिंग संयंत्र की सालाना क्षमता 350 किलो टन होगी। साथ ही 900 मेगावाट की कैप्टिव ऊर्जा इकाई भी लगाई जानी है। प्रस्तावित 900 मेगावाट की कैप्टिव ऊर्जा इकाई के लिए कोयले की आपूर्ति महान कोल ब्लाक से की जाएगी। इस ब्लाक का आबंटन हिंडाल्को और एस्सार पावर लिमिटेड के संयुक्त उद्यम महान कोल लिमिटेड को किया गया है।
वर्ल्ड बैंक से फंडिंग और सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना, यही है मेधा पाटकर की कहानी सरदार सरोवर नर्मदा नदी पर बना 800 मीटर ऊँचा बांध है। नर्मदा बचाओ आंदोलन चलाकर मेधा पाटकर ने इस परियोजना का लगातार विरोध किया, जिसकी वजह से यह परियोजना छ: साल तक लटकी रही। 1988 में योजना आयोग ने सरदार सरोवर परियोजना का बजट 6406़04 करोड़ रुपए निर्धारित किया था, लेकिन मेधा पाटकर के विरोध के कारण इस परियोजना की लागत बढते-बढ़ते वर्ष 2008 तक 39, 240़45 करोड़ रुपए हो गई। मेधा पाटकर ने इस परियोजना को वनवासियों के लिए नुकसानदायक बताया था, लेकिन आज इस परियोजना के कारण ही दाहोद जिले में नर्मदा नदी से वनवासी फल व सब्जियों की खेती कर रहे हैं। मेधा ने पुनर्वास का मुद्दा उठाकर गुजरात से लेकर दिल्ली तक धरना-प्रदर्शन करते हुए इस परियोजना को ठप कर दिया था, लेकिन आज यह परियोजना पूरा होने को है और कोई भी व्यक्ति बेघर नहीं हुआ है। बल्कि गुजरात सरकार के पुनर्वास कार्यक्रम को पूरी दुनिया ने सराहा है।
बार-बार अदालत के जरिए मेधा पाटकर परियोजना को लटकाती रहीं, लेकिन अक्तूबर 2000 में सर्वोच्च न्यायालय न् ो सरदार सरोवर बांध परियोजना को रोकने से मना कर दिया। इसके बाद मेधा पाटकर, उनके वकील प्रशांत भूषण एवं वामपंथी लेखिका अरुंधती राय ने देश की सवार्ेच्च अदालत पर ही हमला बोल दिया। इन तीनों ने फरवरी 2001 में फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रदर्शन किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अदालत की अवमानना माना और तीनों को दोषी ठहराते हुए क्षमा मांगने को कहा। अरुंधती राय ने अदालत से माफी मांगने से इंकार कर दिया और मीडिया के जरिए सर्वोच्च न्यायालय पर हमला बोल दिया। इसके बाद मार्च 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने अरुंधती को एक दिन के लिए जेल की सजा सुना दी।
सरदार सरोवर परियोजना का उद्देश्य गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंचाना और मध्य प्रदेश के लिए बिजली पैदा करना है। हाल ही में मोदी सरकार ने नर्मदा बांध की ऊंचाई 17 मीटर बढ़ाने की अनुमति प्रदान कर दी, जिसे पिछली यूपीए सरकार वषोंर् से रोके पड़ी थी। कंक्रीट से बने बांध की करीब 122 मीटर ऊंचाई तक का निर्माण काम पूरा हो चुका है। इस पर करीब 17 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाकर इसकी ऊंचाई को 138 मीटर किया जाना है। गेट लगाने से इस बांध के पानी की संग्रहण क्षमता 9 मिलियन घन फीट बढ़ेगी। साथ ही, 6़8 लाख हेक्टेयर की अतिरिक्त सिंचाई क्षमता सृजित होगी तथा 40 प्रतिशत अधिक बिजली का उत्पादन होगा। इस निर्णय से गुजरात के साथ-साथ मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व राजस्थान को सिंचाई व पीने का पानी मिलेगा, वहीं मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात को 1450 मेगावाट बिजली भी मिलेगी।
गुजरात सरकार के मुताबिक, बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ने और इस पर गेट नहीं लगने से सालाना 3 हजार 788 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। लेकिन इससे मेधा पाटकर को क्या, उन्होंने सरकार के इस फैसले का फिर से विरोध करने की घोषणा कर दी है।
आखिर सवाल उठता है कि मेधा पाटकर 80 के दशक से ही सरदार सरोवर बांध का विरोध क्यों कर रही हैं। इसके पीछे की सच्चाई यह है कि ऊर्जा की बड़ी जरूरत को पूरा करने वाली इस पूरी परियोजना को रोकने में अमरीका और वर्ल्ड बैंक की जबरदस्त भूमिका है। इंटरनेशनल एन्वायरन्मेंट कम्युनिटी ने 1987 व 1989 में मेधा पाटकर की दो अमरीकी यात्राओं को फंड किया था। एन्वायरन्मेंट डिफेंस फंड के लोरी उडाल ने मेधा पाटकर और वर्ल्ड बैंक अधिकारियों के बीच बैठक का आयोजन किया था। उडाल ने ही भारत के गुजरात में निर्मित होने वाले इस बांध को रोकने के लिए उत्तरी अमरीका, यूरोप, जापान और आस्ट्रेलिया में नर्मदा एक्शन कमेटी का निर्माण व विस्तार किया था, जिसका कुल मकसद पर्यावरण व पुनर्वास के नाम पर इस पूरी परियोजना को बंद कराने का था ताकि भारत ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर न बन सके।
परमाणु ऊर्जा विरोधी पी. उदयकुमार
तमिलनाडु के तिरुनेवेली जिले में स्थित कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र रूस के सहयोग से लगना है। आर्थिक संकट में फंसा अमरीका इस संयंत्र का ठेका चाहता था, लेकिन बाजी रूस के हाथ लग गई। जिसके बाद अमरीकी चंदे से कुछ एनजीओ व बुद्घिजीवियों को इसके विरोध में खड़ा किया गया, जिसमें सबसे बड़ा नाम पी़. उदयकुमार का है। पी. उदयकुमार देश के एनजीओ के सबसे बड़े ब्रांड बने अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी से कन्याकुमारी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। पी. उदयकुमार ने विदेशी सहयोग से सड़क से लेकर अदालत तक इस परियोजना को रोकने की जबरदस्त कोशिश की, लेकिन आखिर में 6 मई 2013 को देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय ने इन अमरीकी एजेंटों को निराश कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कुडनकुलम परमाणु प्लांट को यह कहते हुए मंजूरी दे दी कि प्लांट लोगों के कल्याण और विकास के लिए है। सर्वोच्च न्यायालय ने दलील दी है कि देश और लोगों के विकास को देखते हुए इस प्लांट पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। वर्तमान और भविष्य में देश में परमाणु प्लांट की जरूरत है। इसलिए कुडनकुलम प्लांट को बंद नहीं किया जा सकता है।
इस परियोजना को रोकने में अमरीकी दिलचस्पी का खुलासा खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। पूर्व प्रधानमंत्री ने साइंस पत्रिका को दिए अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि, परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम इन एनजीओ के चलते समस्या में पड़ गया है। इन एनजीओ में से अधिकांश अमरीका के हैं। वे बिजली आपूर्ति बढ़ाने की हमारे देश की जरूरत को नहीं समझते। जिन पर उठती रही उंगलियां
व्यक्ति संस्थाएं
– अरविंद केजरीवाल ल्ल ग्रीनपीस
– सी. उदय कुमार ल्ल एक्शन एड
– तीस्ता सीतलवाड़ ल्ल कबीर
– स्वामी अग्निवेश ल्ल सबरंग ट्रस्ट
– अरुणा रोड्रिग्ज ल्ल सिटीजन मनीष सिसौदिया फॅार जस्टिस
– सुमन सहाय एण्ड पीस
आंदोलन से प्रभावित योजनाएं/कार्य
– न्यूक्लियर पावर प्लांट्स
– यूरेनियम खनन
– कोयले से चलने वाले ऊर्जा संयंत्र (सीएफपीपीएस)
– मेगा इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट्स (पॉस्को व वेदान्ता)
– नर्मदा सागर बांध
– अरुणाचल प्रदेश में लघुविद्युत परियोजनाएं
टिप्पणियाँ