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सब्र है कि टूटने लगता है। मन को लाख समझाओ पर समझता नहीं,क्योंकि हमारी जनसंख्या सवा अरब है और उसमें फुटबॉल के 11 विश्वस्तरीय खिलाड़ी पैदा करना कोई बड़ी बात नहीं,लेकिन हम इसमें भी पीछे हैं। एक समय था,जब वर्ष1951 में नई दिल्ली में एशियाई खेलों का आयोजन हुआ था। जुनून इसे कहा जाता है कि भारत ने नंगे पैर फुटबॉल खेला और स्वर्ण पदक जीतकर एशिया में अपनी श्रेष्ठता पर मुहर लगाई। वर्ष 1956 का साल भारतीय फुटबॉल के लिए बड़ी उपलब्धि लेकर आया-मेलबर्न ओलंपिक में टीम चौथे स्थान पर रही। ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई एशियाई टीम ओलंपिक के सेमीफाइनल में पहंुची हो। भारत ने आस्ट्रेलिया को हराया और नेविल डिसूजा ओलंपिक मे हैट्रिक जमाने वाले पहले और अकेले एशियाई खिलाड़ी बने। वहीं1962 में जकार्ता में हुए एशियाई खेलों में मिले स्वर्ण पदक को भारतीय फुटबॉल की आखिरी बड़ी उपलब्धि माना जाता है। यह वह समय था,जब भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम युग चल रहा था। इस दौरान उसने एशियाई खेलों में फुटबॉल के ताज पर कब्जा जमाया था। 1964 में भारत दूसरे स्थान पर रहा था। इस काल में भारतीय खिलाडि़यों की रफ्तार देखते ही बनती थी और भारत एशिया की सबसे तगड़ी फुटबॉल टीम हुआ करती थी। चुन्नी गोस्वामी,तुलसीदास बलराम,पी.के बनर्जी,साहू मेवालाल ,गोलकीपर छी आओ और जरनैल सिंह का खेल एशिया में मानक माना जाता था,लेकिन इसके बाद से भारतीय फुटबॉल अर्श से फर्श पर आ पहंुचा। आज जब ब्राजील में फुटबॉल विश्व कप चल रहा है और दुनिया के 32 देशों के खिलाड़ी अपनी ठोकरों से दुनिया को जीतने की कोशिश कर रहे हैं, तो सबा अरब की आबादी वाला मुल्क सिर्फ दर्शक की भूमिका में है। कितनी अजीब बात है कि भारत 11 विश्वस्तरीय खिलाडि़यों को पैदा करने में असमर्थ रहा,जबकि जनसंख्या के लिहाज से देखें तो देश में लगभग 30 प्रतिशत नागरिक 10 से 24 वर्ष की आयु के हैं। ज्यादा खुली जगह व युवा जनसंख्या के बावजूद भारत में फुटबॉल पेशेवराना तौर पर सफल नहीं हो सका है। आखिर कमी कहां है? क्यों यह खेल दिन-प्रतिदिन पिछड़ता चला जा रहा है? वे कौन से रोड़े हैं, जो उसे आगे बढ़ने से रोक रहे हैं? फुटबॉल को किन खेलों से भारत में चुनौती मिल रही है? फिर भी भारतीय फुटबॉल संघ इंडिया फुटबॉल फेडरेशन(एआईएफएफ) का दावा है कि भारतीय टीम कतर में होने वाले 2022 के विश्व कप में सहभागी होगी। लेकिन सच्चाई पर नजर डालें तो भारतीय फुटबॉल के हालात इस समय जितने खराब हैं, वैसे अब तक कभी नहीं रहे। फीफा की 207 देशों की रंैकिंग में भारत 154 वें पायदान पर है। सेनेगल, रवांडा, घाना, हैती, जांबिया, बोत्सवाना, उत्तर कोरिया एवं अफगानिस्तान जैसे बेहद कम जनसंख्या और क्षेत्रवाले देश रैंकिग के मामले में भारत से बहुत ऊपर हैं। हर चार साल बाद फुटबॉल का विश्व कप आता है और देश में इस खेल के बारे में कुछ सवाल छोड़ जाता है और यह बहुत खलता है कि कभी हमारा भी स्वर्णिम अतीत हुआ करता था।
फुटबॉल की दुर्दशा के कारणों पर एक नजर
न प्रशिक्षक न खिलाड़ी
देश के पास एक नेशनल लीग है,जो अब भी संघर्ष कर रही है। 33 राज्यों में केवल12 ऐसे राज्य हैं,जहां लोकल लीग है। साथ ही इतने बड़े देश में खिलाडि़यों को प्रशिक्षित करने के लिए सिर्फ कुछ हजार प्रशिक्षक हैं,जबकि कम से कम इतनी बड़ी आबादी पर लगभग पचास हजार प्रशिक्षक होने चाहिए।
प्रशिक्षण की कमी
फुटबॉल के लिए देश में उच्च स्तरीय प्रशिक्षण की व्यवस्था न होना इस खेल में एक बड़ा अवरोध उत्पन्न करता है, जबकि अन्य देशों में फुटबॉल खिलाडि़यों को उच्च स्तरीय प्रशिक्षण दिया जाता है।
खिलाडि़यों के लिए सुविधाओं की कमी
एक तरफ तो सरकार से लेकर बाजार तक सभी क्रिकेट खिलाडि़यों पर पैसा लुटाने के लिए हरदम तैयार दिखते हैं। पर फुटबॉल खिलाडि़यों के लिए न तो सरकार और न ही बाजार उनकी ओर ध्यान देता है। यहां तक कि कभी-कभी उनको मूलभूत सुविधाओं तक के अभाव में खेलना पड़ता है। देश की जनता उनसे विश्व स्तर पर श्रेष्ठ प्रदर्शन की उम्मीद लगाये रहती है। उस समय हमें यह याद नहीं रहता कि बिना सुविधा के ये खिलाड़ी हर तरह से संपन्न विदेशी टीमों से कैसे लड़ेंगे ? और जब लड़ते हुए परास्त होते हैं तो पूरा देश उनकी आलोचना में खड़ा हो जाता है,पर यह कोई नहीं सोचता कि आखिर उनकी यह हालत क्यों है?
खराब बुनियादी ढांचा एवं क्रिकेट से चुनौती
पूर्व प्रशिक्षक ओलंपियन एवं फुटबॉलर एस.एस हकीम कहते हैं कि 'हमें कोई इमारत खड़ी करनी है तो सबसे पहले उसकी नींव मजबूत करनी होगी क्योंकि नींव के दम पर ही पूरी इमारत खड़ी रहती है। लेकिन भारत में इस 'नींव'यानी कि फुटबॉल का बुनियादी ढांचा ही कमजोर है। कारण सिर्फ एक है कि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। यहां फुटबॉल खेलने के लिए मैदान तक नहीं हैं। खेलने के लिए मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है। ऐसे में खिलाडि़यों से कोई उम्मीद लगाना समझ में नहीं आता'? साथ ही क्रिकेट भी एक चुनौती है। यह सच है कि यहां फुटबॉल को क्रिकेट जैसी लोकप्रियता कभी नहीं मिली। क्रिकेट के महत्वपूर्ण मैचों को कभी-कभी 35 से 40 करोड़ तक लोग टेलीविजन पर देखते नजर आते हैं और इसका ब्रांड वैल्यू तीन बिलियन डॉलर से भी ज्यादा होता है। साथ ही क्रिकेट ने अपना मुकाम प्रदर्शन की बदौलत भी हासिल किया है। वहीं क्रिकेट को नियंत्रित करने वाली संस्था बीसीसीआई ने अपने कार्य को इतना अत्याधुनिक और व्यावसायिक कर दिया है,उससे किके्रट को बेहद मजबूती मिली है।
लचर प्रबंधन, इच्छा शक्ति की कमी
दुर्भाग्य से भारत में फुटबॉल खेल अधिकारी एवं राजनेताओं की गुटबाजी का शिकार होकर रह गया है। अस्सी के दशक के बाद से इस खेल में राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़ा। सरकार में बैठे वे लोग इसके कर्ता-धर्ता बन बैठे,जिनका इस खेल के साथ दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। इस कारण वह न तो खेल के विषय में और न ही खिलाडि़यों के मनोभाव को पहचान पाते हैं और जब तक रहते हैं तब तक खेल की तरफ ध्यान न देकर सिर्फ राजनीति ही करते रहते हैं।
खेलनीतियों में व्यापक सुधार
हमारे यहां प्राथमिक स्कूलों में क्षेत्रीय खेलों को बढ़ावा नहीं मिलता,जबकि खेल की नर्सरी स्कूल के छात्र ही होते हैं। देश में फुटबॉल को विश्व मंच पर अगर उपस्थिति दर्ज करानी है तो सरकार को अपनी नीतियों में प्रभावी बदलाव लाना होगा।
इन राज्यों में यही खेल है जुनून
पश्चिम बंगाल,गोआ,केरल,मणिपुर,मिजोरम और सिक्कि म जहां खेल के नाम पर फुटबॉल ही सब कुछ है। यहां यह खेल एक जुनून और नशे की तरह है। -अश्वनी कुमार मिश्र-
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