डॉ. मुखर्जी की पुण्य तिथि (23 जून) पर विशेष
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महान प्रशासक मुखर्जी
प्रो. बलराज मधोक
पं. नेहरू की मुस्लिम तुष्टीकरण एवं पाक-संबंधी नीति से मुखर्जी का सदैव विरोध रहा। यह विरोध उस समय और भी बढ़ गया जब 1950 में पूर्वी पाकिस्तान में योजनापूर्वक हिन्दुओं का कत्लेआम किया जा रहा था, किन्तु इधर भारत सरकार पाक प्रधानमंत्री श्री लियाकत अली खां को भारत आने का निमंत्रण दे रही थी। मुखर्जी की समझ में न आ सका कि ऐसे व्यक्ति को, जिसके हाथ लाखों निरपराध हिन्दुओं के खून से रंगे हुए हों, भारत बुलाने की क्या आवश्यकता है। अंत में यह अनुभव कर कि मंत्रिमण्डल में रहते हुए वे देश का, राष्ट्र का, समाज का, देशवासियों का किंचित भी कल्याण नहीं कर सकते उन्होंने 1 अप्रैल को अपना त्यागपत्र प्रधानमंत्री की सेवा में प्रस्तुत कर दिया।
पं. नेहरू ने जोश में आकर उसे स्वीकार भी कर लिया। किन्तु उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल उन जैसी महान प्रतिभा से विलग होने को तैयार नहीं थे। अत: उन्होंने डॉ. मुखर्जी से बार-बार अनुरोध किया कि वे अपना त्यागपत्र वापस ले लें। बाद में स्वयं नेहरू ने उनकी आवश्यकता अनुभव कर मंत्रिमण्डल में बने रहने का उनसे अनुरोध किया, किन्तु मुखर्जी दृढ़ निश्चय से किंचित भी नहीं टले। बाद में उन्होंने संसद में अपने त्यागपत्र के सम्बंध में जो भाषण दिया वह इतना भविष्य प्रदर्शक, हृदयस्पर्शी एवं तर्कपूर्ण था कि उसके तथ्य आज भी भारत-पाक सम्बधों में सही उतरते हैं।
हुतात्मा -श्यामा प्रसाद मुखर्जी
' श्री निर्मल चटर्जी
शेख अब्दुल्ला ने प्रजा परिषद के आन्दोलन को साम्प्रदायिक बताकर सरलतापूर्वक दबाना प्रारम्भ किया और इस बात की उपेक्षा की कि आन्दोलन वास्तव में राजनैतिक था। यदि जम्मू आन्दोलन न हुआ होता, सहस्रों लोगों ने बलिदान न किया होता तथा श्यामा प्रसाद एवं उनके साथियों ने वीरता प्रदर्शित न की होती तो एक बड़ा भारी विश्वासघात हुआ होता और भारत को कश्मीर से हाथ धोना पड़ता। जम्मू आन्दोलन में भारत तथा उसके राजनैतिक नेताओं के समक्ष इस रहस्य का उद्घाटन कर दिया कि शेख अब्दुल्ला की स्वायत्त शासन की मांग का अभिप्राय वास्तव में समस्त आभारों को भुलाकर कश्मीर के लिए प्रभुसत्ता संपन्नता प्राप्त करना था। जिस समय श्यामा प्रसाद को बंदी बनाकर रखा गया था उस समय शेख ने दिल्ली समझौते को पूर्ण रूप से ठुकराने का प्रयास किया तथा एक भाषण में उन्होंने कहा 'हमें सर्वोच्च न्यायालय जैसी तुच्छ वस्तुओं के संबंध में विचार नहीं करना। हमें भारत के साथ नवीन संबंध स्थापित करने हैं।' अब यह सबको स्पष्ट ही हो चुका है कि अपने परम मित्र को इस प्रकार रुख बदलतेदेखकर भीनेहरू को लंदन जाने से पूर्व श्रीनगर की ओर पग बढ़ाने पड़े थे। भारतीय प्रधानमंत्री के स्वागतार्थ एक भी भारतीय ध्वज नहीं लगाया गया था तथा भारतीय राष्ट्रीय गान भी नहीं गाया गया था और इस प्रकार भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा अपने मित्र को सही मार्ग पर लाने का जो प्रयास किया गया वह बुरी तरह असफल रहा। शेख अब्दुल्ला कश्मीर को स्विट्जरलैंड की भांति एक स्वतंत्र राज्य बनाना चाहता था जिसका अर्थ था उसे अंतरराष्ट्रीय झगड़ों का अड्डा बनाना। भारत विरोधी आन्दोलन को प्रोत्साहित करने के लिए सबकुछ किया गया जिसके कारण बाध्य होकर सदर-ए- रियासत को उन्हें अपदस्थ करके बंदी बनाना पड़ा। श्यामा प्रसाद का महान बलिदान व्यर्थ सिद्ध नहीं हुआ। कश्मीर अभी भी भारत का अंग है। श्यामा प्रसाद तथा उनके साथियों का आधारभूत सिद्धांत स्वीकार किया जा चुका है।
कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री द्वारा राज्य का भारत में अंतिम एवं पूर्ण विलय घोषित किया जा चुका है। जिन सिद्धांतों के निमित्त हमने संघर्ष किया तथा श्यामा प्रसाद ने स्वजीवन बलिदान किया उसका यही निष्कर्ष था।
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