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पृथ्वी पर दुष्ट राजाओं का अत्याचार बढ़ गया था। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। गो, ब्राह्मण और साधु असुरक्षित हो गये थे। ऐसे समय में भगवान नारायण स्वयं परशुराम के रूप में जमदग्नि ऋषि के यहां अवतरित हुए। भगवान परशुराम को विष्णु के 10 अवतारों में से एक माना जाता है। वे शस्त्र और शास्त्र दोनों ही विद्याओं में निपुण थे। महेंद्र पर्वत पर जहां इन्होंने भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान योद्धाओं को शस्त्र विद्या सिखाई। उन दिनों राजा सहस्रबाहु अर्जुन था, जो कि बहुत अत्याचारी और क्रूर शासक था। भगवान परशुराम को उसकी दुष्टता का समाचार मिला तो उन्होंने सहस्रबाहु का वध किया। अनुकूल अवसर पाकर एक दिन सहस्रबाहु के पुत्रों ने उनके पिता की हत्या कर दी। रेणुका ने जब यह देखा तो वह जोर-जोर से रोने लगीं। भगवान परशुराम ने दूर से ही माता का करुण-क्रन्दन सुन लिया। क्रोधित परशुराम ने प्रण किया कि ऐसे राजाओं को उनके पाप का दण्ड उन्हें देना होगा। इसलिये उन्होंने अपने पिता के वध को निमित्त बनाकर 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया। इसके पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पिता को पुन: जीवित कर दिया । अंत में यज्ञ में जीती हुई पृथ्वी दान कर स्वयं महेन्द्र पर्वत पर चले गये।
परशुराम जिन दिनों भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, उस समय भगवान शिव अपने शिष्यों में से ऐसे प्रतिभाशाली छात्र की तलाश कर रहे थे, जो न्याय और धर्म के प्रति अटूट निष्ठावान हो, साथ ही निर्भय और पराक्रमी भी हो। सच्चा शिष्य ढूंढने के लिए भगवान शिव ने कुछ कठोर कार्य व आचरण आरंभ किया। इस प्रयोग को करके उन्होंने बारीकी से देखा, शिष्यों में से किसकी क्या प्रतिक्रिया होती है? कई तो चले गए तो कुछ सहन कर गए। परंतु केवल शिष्य परशुराम ही एक ऐसे थे, जिन्होंने भगवान शिव का विरोध किया। एक दिन बात बढ़ते-बढ़ते यहां तक आ पहुंची कि परशुराम उनके सामने अत्यधिक क्रोधित होकर खड़े हो गए। क्रोध से भरा देख भगवान शिव को विश्वास हो गया कि यही वह महापुरुष है, जो लोक में फैली अनीति और अधर्म को दूर कर सकता है। उन्होंने प्रसन्न होकर परशुराम को दिव्य परशु (फरसा) प्रदान किया और सहस्रबाहु से लेकर धरातल के समस्त आतताइयों को समाप्त करने का आदेश दिया। भगवान शिव के सहस्रनामों में से एक नाम ह्यखंड परशुह्ण भी इसीलिए पड़ा।
आचार्य द्रोणाचार्य को भी दी शिक्षा : बालक द्रोण महर्षि भारद्वाज के आश्रम में वेदाध्ययन करते थे। उन्हीं दिनों उन्हें ज्ञात हुआ कि जमदग्निनंदन परशुराम अपना सर्वस्व ब्राह्मणों को दान कर रहे हैं और ऐसा वे कई बार कर चुके हैं। उनको भी इच्छा हुई कि इस अवसर का लाभ उठाया जाए। उन्होंने निश्चय कर लिया कि भगवान परशुराम से धनुर्विद्या संबंधी पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर के वह संसार में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन सकते हैं।
द्रोणाचार्य भगवान परशुराम की सेवा में महेन्द्र पर्वत पर पहुंच गए। उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी गए। आचार्य ने शिष्यों सहित भगवान परशुराम को प्रणाम किया और निवेदन किया कि ह्यहे गुरुवर! मैं महर्षि अंगिरा के गोत्र से ऋषि भारद्वाज का पुत्र द्रोण हूं। आप से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उपस्थित हुआ हूं।ह्ण इस पर भगवान ने कहा कि ह्यमेरे पास जो कुछ भी था, सब ब्राह्मणों को दे चुका हूं। अब मेरे पास देने को कुछ नहीं रहा, केवल मेरा शरीर और अस्त्र-शस्त्र ही शेष हैं। इन वस्तुओं में से तुम जो चाहो, मांग लो।ह्ण द्रोणाचार्य ने प्रार्थना की, ह्यहे भृगुनंदन! मैंने अब तक सभी सामान्य विद्याएं अपने पिताश्री से ग्रहण कर ली हैं। आप मुझे धनुर्विद्या की विशेष शिक्षा देने की कृपा करें और मुझे प्रयोग, रहस्य और उपसंहार-विधि की वह शिक्षा दें, जो केवल आप ही जानते हैं। शिक्षा के साथ ही सारे अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान करने की कृपा करें।ह्ण भगवान परशुराम ने द्रोण की प्रार्थना सहर्ष स्वीकार की और द्रोणाचार्य को सभी विद्याएं सिखा कर दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान किए।
कर्ण को विद्यादान : भगवान परशुराम महेन्द्र पर्वत पर पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम कर रहे थे। कर्ण ने जाकर दूर से ही उन्हें दण्डवत प्रणाम किया और अत्यन्त विनयपूर्वक निवेदन किया, ह्यप्रभो! मैं भृगुवंश में उत्पन्न ब्राह्मण बालक हूं। आप की शरण में विद्या अध्ययन के उद्देश्य से उपस्थित हुआ हूं। आप कृपा कर मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करें।ह्ण भगवान परशुराम ने उन्हें शिष्य स्वीकार किया। कर्ण को उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना तथा अन्य सभी विद्याएं क्रियात्मक रूप से सिखा दीं। भगवान परशुराम शिष्य कर्ण की योग्यता और उसकी सेवा से संतुष्ट थे, लेकिन जब उन्हें ज्ञात हुआ कि कर्ण ब्राह्मण नहीं क्षत्रिय है तो उन्होंने उसे श्राप दे दिया कि आवश्यकता पड़ने पर युद्ध में वह उनसे छल से प्राप्त विद्याओं को भूल जाएगा। इसी कारण महाभारत के युद्ध में कर्ण अर्जुन से लड़ते हुए अपनी विद्याओं को भूल गया था। जिसके कारण ही अर्जुन कर्ण का वध करने में सफल हो सके।
भगवान परशुराम मन्दिर-देवगढ़ : देवगढ़ में भी प्राचीन दशावतार का मन्दिर है। यह स्थान झांसी से 130 तथा ललितपुर से 33 किलोमीटर की दूरी पर है। यह गुप्तकाल के समय का मन्दिर है तथा ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व का है। मन्दिर के भीतर दशों अवतारों-मत्स्य, कच्छप, वाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि सभी की मूर्तियां स्थापित हैं।
तिरुअनंतपुरम : तिरुअनंतपुरम के राजकीय संग्रहालय में भगवान के दशावतारों की हाथी दांत से निर्मित सुंदर मूर्तियां सुरक्षित रखी हुई हैं। इनके मध्य एक लम्बे आकार में भगवान परशुराम की खड़ी मूर्ति है।
मंगेश महादेव-गोवा : गोवा में एक गांव है कुडथाल। इसे कुट्ठाल भी कहते हैं। इसका प्राचीन नाम कुशस्थल है। इस गांव में मंगेश महादेव का विशाल मन्दिर था, परन्तु पुर्तगालियों के शासनकाल में मन्दिर को नष्ट कर दिया गया था। इस महादेव मन्दिर का भगवान परशुराम से विशेष संबंध है। भगवान परशुराम ने अनेक महायज्ञों का अनुष्ठान किया था,उसी क्रम में एक महारुद्र यज्ञ इसी सह्याद्रि पर्वत क्षेत्र में सम्पन्न कराया था।
परशुरामेश्वर शिव मंदिर : सातवीं सदी में निर्मित ह्यपरशुरामेश्वर शिव मंदिरह्ण भुवनेश्वर का प्राचीनतम शिव मन्दिर है।
परशुरामेश्वर महादेव (पुरा महादेव) : उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले से 15 मील दूर बालौनी कस्बा है,जहांं से दो मील उत्तर की ओर हरनद पर जमदग्नि मुनि का आश्रम है। जो पुरा महादेव नाम से प्रसिद्ध है। हरनद को हिण्डन भी कहते हैं।
परशुराम शोध संस्थान—रीवा : मध्यप्रदेश के रीवा में परशुराम शोध संस्थान की स्थापना हुई है। इसके द्वारा भगवान परशुराम पर शोध कार्य किया जा रहा है। शिवसागर मिश्र ने कहा था कि, शस्त्र और शास्त्र का महत्व राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ह्यदिनकरह्ण ने बहुत पहले समझ लिया था। 1962 में चीनी हमले के काल में उन्होंने इसी उद्देश्य से ह्यपरशुराम की प्रतीक्षाह्ण नामक काव्य-पुस्तिका रची थी।
उत्तरकाशी : उत्तरकाशी में जमदग्नि एवं रेणुका का मंदिर है। जहां महर्षि जमदग्नि की प्रतिमा सिर रहित है। यह उस कथा की द्योतक है, जो सहस्रार्जुन द्वारा उनका वध करके सिर काट लेना बताती है।
महेन्द्र पर्वत : इस पर्वत का नाम रामायण, महाभारत, पुराणों एवं काव्यग्रंथों में आता है। पर्वतों में इसका नाम प्रमुख रूप ये आता है—ह्यमहेन्द्रो मलय: सह्य: शक्तिमानृक्षवांस्तथा। कलिंग से आरंभ होने वाली पूर्वी घाट की शृंखला जो पूर्व की ओर जाती है, उसका नाम महेन्द्राचल पर्वत है। आज भी गन्जम के समीप यह ह्यमहेन्द्रमलैह्ण कहलाता है। चेन्नै से कोलकाता रेलवे लाइन पर मण्डासारोड स्टेशन है। मण्डासा महेन्द्र का ही बिगड़ा हुआ नाम है।
शाश्वत जननायक भगवान परशुराम : संसार में लौकिकता ही सार है उसी आशय की आपूर्ति ह्यधर्मरक्षाह्ण की स्थापना के लिए 10 अवतारों की प्रामाणिकता है, जिसमें भगवान परशुराम एक अवतार हैं। भगवान परशुराम वैदिक और पौराणिक इतिहास मेंे सबसे शक्तिशाली और बड़े व्यापक चरित्र वालेहैं। उनका वर्णन सतयुग के समापन से कलियुग के प्रारम्भ तक मिलता है इतना लम्बा चरित्र, इतना लम्बा जीवन किसी और ऋषि या अवतार का नहीं मिलता।
त्रेता में भगवान राम तथा द्वापर में श्रीकृष्ण व बलराम ने शस्त्रधारी परिवार में ही जन्म लिया था परन्तु सतयुग के भगवान परशुराम ब्राह्मण कुल मंे जन्म लेकर भी शस्त्रधारी राम थे क्योंकि यह पूर्व नियोजित था कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर वे शस्त्रधारी राम बनेंगे। यह भी पूर्व नियोजित था कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भगवान परशुराम क्षत्रियोचित कार्य करेंगे। क्षत्रिय कर्म कठोर है, इस कारण ब्राह्मण इसे स्वीकार नहीं करते थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भगवान परशुराम को छोड़कर शेष सभी अवतार किसी न किसी निमित्त अर्थात विशेष प्रयोजन के लिये ही हुए, वे कार्य पूर्ण हो जाने पर स्वर्गधाम को गमन कर गए, जबकि भगवान परशुराम का अवतार निमित्त कार्य के अतिरिक्त नित्य एवं सतत कार्य के प्रयोजन की पूर्ति भी करता है। वह चिरंजीवी हैं तथा ऋषियों, मुनियों एवं महापुरुषों के माध्यम से लोक कल्याणार्थ सतत कार्यरत हैं। पुराणों के अनुसार भगवान परशुराम आज भी महेन्द्र पर्वत पर निवास करते हैं। लोक कल्याणार्थ अदृश्य रूप में वह आज सम्पूर्ण समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं।
ल्ल महेश चन्द्र शर्मा
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