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-मुजफ्फर हुसैन-
भारत में आज चुनावी सभाओं में जिस तरह प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी जनता के बीच देश के मुद्दे ले जा रहे हैं और उन पर अपनी नीति स्पष्ट कर रहे हैं उससे इन चुनावों में अमरीकी चुनावों की एक झलक जरूर दिखती है। वहां भी राष्ट्रपति पद का दावेदार अर्थ,विदेश,उद्योग, कानून वगैरह पर अपनी नीतियां जनता के सामने बताता है और उनके आधार पर समर्थन देने की अपील करता है। भारत में चुनावों के कुछ दिलचस्प पहलू उजागर हुए हैं। वैसे दुनिया का हर बड़ा और विकसित देश अपना वर्चस्व बढ़ाने और हस्तक्षेप करने की नीति अपनाता रहा है। उसी तरह अमरीका की बड़ी कंपनियांे और औद्योगिक संगठनों की यह महत्वाकांक्षा बनी रहती है कि भारत में ऐसी सरकार आए जो उनके हथियार और अन्य उत्पाद बेधड़क खरीदती रहे। इसीलिए अपने वित्तीय स्वार्थों के तहत धरती के नीचे ऐसा सबकुछ चलता रहता है। यही तो वह समय होता है जब दूसरे देशों की जासूसी कंपनियां अपने मोहरे चलने के लिए अपनी चाल निर्धारित कर लेती हैं। इसीलिए विदेशी घुसपैठ का मार्ग प्रशस्त हो ही जाता है। अमरीका जिस तरह से हम भारतीयों का आदर्श बनता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि एक दिन राष्ट्रपति प्रणाली की गूंज भारत में भी सुनाई पड़े तो आश्चर्य की बात नहीं। हम ब्रिटेन से स्वतंत्र हुए थे, इसीलिए उसकी अनेक बातों की वहां के संविधान की हम पर छाप है। केवल रानी के स्थान पर हमारा चुना हुआ राष्ट्रपति होता है। उन दिनों हमारा देश रूस से भी अनेक मामलों में प्रभावित था, इसीलिए साम्यवादी दुनिया के इस नायक के पदचिन्हों पर चलने का मन बना लिया। लेकिन अब जब कि असंख्य राजनीतिक दल हो गए हैं और देश के अनेक राज्यों में भिन्न-भिन्न राजनीतिक दल हावी होते जा रहे हैं। यही कारण है कि देश के दो बड़े दल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में यह मंथन हो रहा है कि इस अस्थिरता से बचने के लिए क्यों नहीं हम भी राष्ट्रपति प्रणाली को अपना लें। यद्यपि आज हमें यह बात दूर की लगती है, लेकिन देश में बहुदलीय राजनीति के जो परिणाम सामने आ रहे हैं उसे देखते हुए हमारे राजनीतिक पंडित एवं असंख्य प्रकार के राजनीतिक दल इस मुद्दे पर विचार कर सकते हैं। उन्हें लगता है कि अध्यक्षीय प्रणाली अपनाने से हमें अधिक न्याय और सुविधाएं मिल सकती हैं। यद्यपि यह सबकुछ भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है, लेकिन वर्तमान दृश्य यही कह रहा है कि हमारे राजनीतिक दल अमरीका के पदचिन्हों पर चल रहे हैं। उन्हें वह दिन दूर नहीं लगता है जब सब मिलकर राष्ट्रपति का निर्वाचन करेंगे और बाद में अपने राज्यों की सत्ता को मजबूत बनाने के लिए सीनेट और प्रतिनिधि सभा का गठन कर लेंगे।
वर्तमान आम चुनाव पर नजर दौड़ाएं तो लगता है कि तकनीक और विचारधारा के आधार पर सभी राजनीतिक दल कम या अधिक अमरीकी शैली का ही चुनाव लड़ रहे हैं। भारत भी विज्ञान और तकनीक में अमरीका का मुकाबला कर रहा है तो फिर चुनाव लड़ने के क्षेत्र में भी वह उनसे पीछे क्यों रहे? ब्रिटिश साम्राज्य के दिनों को याद करें तो पता लगता है कि जब देश आजाद नहीं हुआ था उस समय महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस पार्टी का कारोबार राष्ट्रपति प्रणाली जैसा ही था। कांग्रेस में चुनाव तो संविधान के अनुसार अवश्य होते थे, लेकिन महात्मा गांधी जब चाहे बदलाव भी कर देते थे। कांग्रेस को चलाने के लिए धन्ना सेठों से वे पैसा भी लिया करते थे और आवश्यकता पड़ने पर इन उद्योगपतियों और बड़े व्यापारियों से पैसा भी मंगवाया करते थे। यद्यपि महात्मा गांधी इस मामले में इतने पवित्र ढंग से और खुलेआम यह सब करते थे कि किसी को भी शंका होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। कांग्रेसी स्वयंसेवक जरुरत पड़ने पर पैसों का भी एकत्रीकरण करते थे। आजादी के बाद यह काम लगभग सभी पार्टियांे के नेता भी करने लगे। महात्मा गांधी की ओर किसी ने उंगली नहीं उठाई, लेकिन इसके बाद कांग्रेस में चंदे का धंधा एक बदनाम और बेशर्म लोगों का काम बन गया। हद तो तब हो गई जब एक अध्यक्ष ने साफ-साफ कह दिया- न खाता न बही केसरी जो बोले वही सही। आजाद भारत में यह छूत का रोग बन गया जिससे सभी पीडि़त हैं। जो कहते हैैं उनके यहां ऐसा नहीं होता है वे या तो पांच नेत्रहीन की तरह हैं जो हाथी को देखकर अपना-अपना अनुमान लगाने लग जाते हैं।
अब अमरीकी चुनावों की झांकी अपनी आखांे के सामने रखेंगे और भारत में इन दिनों जिस तरह से चुनाव लड़े जा रहे हैं, उसकी तुलना कीजिए वस्तुस्थिति सामने आ जाएगी। वर्तमान चुनाव इंटरनेट और वेब साइट पर लड़ा जा रहा है। अमरीका के समान ही चुनावी कोष एकत्रित करने के लिए शानदार भोज का आयोजन किया जा रहा है। कल तक केवल कांग्रेस पर यह आरोप था, लेकिन इस मामले में भाजपा और आआपा ने सबको पछाड़ दिया है। सोशल मीडिया के नाम पर फेसबुक और ट्विटर का धमाल है। नेता भी सक्रिय हैं और उनके अनुयायी भी। ऐसी स्पर्धा है कि कबड्डी को भी मात कर दिया है। वहां पाला बदला जाता है यहां जिसे टिकट नहीं मिला वह पार्टी बदल लेता है। कबड्डी में चाहे जिस खिलाड़ी की टांग खींच लीजिए, लेकिन यहां तो पाला बदलते ही वफादारी चुनाव, चुनाव चिन्ह और यदि कोई नियमावली अथवा कोई बचे सिद्धांत हैं तो वह सब कुछ बदल जाते हैं। मन में ही नहीं ट्वीट कर के अथवा फे सबुक पर अपना चेहरा दिखाए बिना ही सबकुछ बदल डालते हैं। वे खुश हैं और गर्व करते हैं कि उनके मित्र अमरीका ने अपने चुनाव के माध्यम से हमें सिखलाया है। वही तो हमारा गुरु है, इसमें खर्चा भी कम होता है। इसीलिए मितव्ययिता और बचत के नाम पर महात्मा गांधी के पक्के अनुयायी होने का दावा भी सिद्ध कर देते हैं। सभी बड़े नेताओं की लंबी-चौड़ी टीमें साइबर जगत में सक्रिय रहती हैं। डिनर डिप्लोमेसी भी अमरीका की ही देन है। केजरीवाल जो वर्तमान पीढ़ी का नेतृत्व कर रहे हैं उन्होंने अमरीका की डिनर डिप्लोमेसी का प्रचार भी यहां पूरी तरह से कर दिया है। हर बात में सादगी और खुलेपन का दावा करने वाले केजरीवाल ने बेंगलुरू में एक भोज समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उक्त भोज आआपा ने अपना चुनावी कोष एकत्रित करने के लिए आयोजित किया था जिस में एक प्लेट का मूल्य 20 हजार रुपये निश्चित किया गया था। उनके चाहने वाले इस भोज पर टूट पड़े। अरे एक वोट और एक नोट यह तो अब पुराना नारा है। 21वीं सदी में अपना नहीं तो विश्व में कदम बढ़ाते भारत की ओर तो देखो। दूसरा कार्यक्रम उन्होंने नागपुर में आयोजित किया गया, जहां एक प्लेट का मूल्य दस हजार था। कुछ ही मिनटों में 67 लाख रुपये वसूल कर लिए। अमरीकी तकनीक है, विचार करिए आने वाले दिनों में भारत को भी तो अमरीका बनाना है। केजरीवाल तो मुफ्त में बदनाम हुए, सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने दर्शन दिए उनके साथ चार कोर तोड़े और रुपयों का ढेर लगा दिया। अमरीकी तकनीक नहीं पूंजीवाद की जय अब नहीं बोलेंगे तो कब बोलेंगे? जब मोदी ने कम दामों में यह सबकुछ किया तो कांग्रेसी कहने लगे उनकी हैसियत भी तो पांच रुपये की है। अच्छा हुआ हमारे मोंटेक सिंह अहलूवालिया को नहीं बुलाया वरना वे तो मानहानि का मुकदमा ही दायर कर देते।
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